इन दिनों उत्तर प्रदेश के शहरी निकायों के हाल में हुए चुनावों के राजनीतिक निहितार्थ खोजने की कोशिशें हो रहीं हैं. लम्बे अरसे तक पार्टियों के बीच इस बात पर सहमति रही है कि स्थानीय निकाय चुनावों को व्यक्तिगत आधार पर ही लड़ना चाहिए, क्योंकि उनके मुद्दे अलग होते हैं. निचले स्तर पर वोटर और जन-प्रतिनिधि के बीच दूरी कम होती है. इन परिणामों पर नजर डालें तो यह बात साफ नजर आती है. इसबार के चुनाव परिणाम इसलिए महत्वपूर्ण थे, क्योंकि यह माना गया कि इनसे योगी सरकार के बारे में वोटर की राय सामने आएगी. अलबत्ता इस चुनाव ने ईवीएम को लेकर खड़े किए संदेहों को पूरी तरह ध्वस्त किया है.
प्रदेश के राजनीतिक मिजाज की बात करें, तो प्रदेश के महानगरों के परिणाम बता रहे हैं कि बीजेपी की पकड़ कायम है, पर जैसे-जैसे नीचे जाते हैं वह कमजोर होती दिखाई पड़ती है. पर यह बीजेपी की कमजोरी नहीं है, बल्कि इस बात की पुष्टि है कि छोटे शहरों में राजनीतिक पहचान वैसी ही नहीं है, जैसी महानगरों में है.
इसबार जैसे ही परिणाम आने लगे पहली नजर में मीडिया ने इसे बीजेपी की भारी जीत बताना शुरू कर दिया. राज्य के 16 बड़े शहरों के नगर निगमों के परिणामों से ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है. पर नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों ने कुछ पहेलियाँ पेश कर दीं. जल्दबाजी में कुछ लोगों ने निष्कर्ष निकाले कि बड़े शहरों में बीजेपी का असर है, छोटे शहरों में नहीं. वहाँ उसकी हार हुई है. यह जल्दबाजी का निष्कर्ष है. परिणामों का जो डेटा उपलब्ध है, उसके आधार पर यह बात नहीं कही जा सकती.
जबरन निष्कर्ष निकालने की कोशिश करें तो कहें कि वोटर ने पार्टी की राजनीति को नकारा है. इतना साफ है कि उसने बीजेपी को सबसे बड़े दल के रूप में स्वीकार किया है. सीटों की संख्या के आधार पर देखें तो सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों की कुल शक्ति बीजेपी के बराबर बैठती है. प्रदेश के 75 जनपदों के कुल 652 निकायों में 16 मेयरों, 1300 निगम पार्षदों, 198 नगर पालिका अध्यक्षों, 5261 नगर पालिका परिषद सदस्यों, 438 नगर पंचायत अध्यक्षों और 5433 नगर पंचायत सदस्यों के स्थान हैं. नगर निगमों में बीजेपी का वर्चस्व साबित हो गया, पर शेष दो प्रकार के निकायों में निर्दलीय प्रतिनिधित्व बहुत ज्यादा है.
व्यावहारिक सच यह है कि सबसे नीचे के स्तर के राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच विचारधारा की बँटवारा रेखा बहुत महीन होती है. कार्यकर्ता समय के साथ राजनीतिक दल बदलता है. कुछ और निष्कर्षों तक पहुँचने के पहले शेष संख्याओं पर नजर डालनी चाहिए. प्रदेश के कुल 5261 नगर पालिका सदस्यों में से 3380 यानी 64.25 फीसदी निर्दलीय हैं. नगर पंचायतों के 5433 सदस्यों में से 3875 यानी 71.31 प्रतिशत निर्दलीय हैं. इनके अध्यक्षों की संख्या पर भी नजर डालें. नगर पालिकाओं के कुल 198 में से 43 यानी 21.72 प्रतिशत और नगर पंचायत अध्यक्षों के 438 पदों में से 182 (41.55 फीसदी) निर्दलीय हैं. यानी जैसे-जैसे लोकतंत्र नीचे गया, वैसे-वैसे वह निर्दलीय होता गया. इसमें बीजेपी की हार जैसी बात नहीं है. ज्यादातर निर्दलीय सत्तारूढ़ दल के साथ जाते हैं. कस्बों और गाँवों की राजनीति ऐसे ही संगठित होती है.
अभी दो बातें और हैं. पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक अनोखा निष्कर्ष निकाला कि जहाँ ईवीएम से चुनाव हुए, वहाँ बीजेपी जीती और जहाँ बैलेट पेपर से हुए वहाँ हारी. नगर निगमों में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ, बाकी जगह बैलेट पेपर का. अखिलेश यादव का कहना है कि बैलट पेपर के एरिया में बीजेपी को 15 फीसदी सीटें मिलीं, जबकि ईवीएम एरिया में 46 फीसदी. सवाल है कि उन्हें क्या मिला? अखिलेश यादव और मायावती दोनों बैलट पेपर के समर्थक हैं. बैलट एरिया में दोनों को कुल मिलाकर 13 फीसदी सीटें मिलीं, जो बीजेपी की 15 फीसदी सीटों से कम हैं. कांग्रेस की 2.6 फीसदी सीटें मिला लें तब बराबरी होती है. यदि प्रतिशत की बात न करें और केवल आनुपातिक शक्ति की बात करें तो लगभग यही स्थिति पिछले विधानसभा चुनाव में थी, ईवीएम से हुआ था और इसबार का यह चुनाव बैलेट से हुआ.
पिछले कुछ साल से देश की राजनीति में हारने वाला तबका ईवीएम को कोसता रहा है. शुरू में बीजेपी ने इसे कोसा और अब दूसरे दल कोस रहे हैं. ज्यादातर पार्टियों ने हमेशा चुनाव सुधारों का विरोध किया है. ईवीएम और वोटर परिचय पत्र की व्यवस्था बड़ी मुश्किलों से लागू हुई है. हमला ईवीएम पर नहीं चुनाव आयोग पर होता है. संदेह पैदा करना आसान है. इस बार भी मीडिया में ऐसी खबरें आईं. मशीनों में खराबी सम्भव है. चुनाव आयोग की मशीनरी उसके लिए इंतजाम करती है.
एक निष्कर्ष यह भी है कि यूपी का मुस्लिम मतदाता समाजवादी पार्टी के बजाय बहुजन समाज पार्टी की तरफ हाथ बढ़ा रहा है. मेरठ और अलीगढ़ में मेयर पद पर बसपा के प्रत्याशी जीते. सहारनपुर में भी बीएसपी उम्मीदवार की मामूली अंतर से हार हुई. यह संकेत पहली बार नहीं मिला है. विधानसभा चुनाव का सबसे बड़ा संकेत यही था. दो-ढाई दशक से मुस्लिम वोटर टैक्टिकल वोटिंग करता रहा है. जो प्रत्याशी बीजेपी को हराता दिखाई पड़ता है, उसे वह वोट देता है.
कई विश्लेषक सपा, बसपा और कांग्रेस गठजोड़ की बातें भी करते हैं. ऐसा गठजोड़ असंभव नहीं है, पर गठजोड़ का गणित दो और दो चार की तरह सरल नहीं है. सामाजिक गठजोड़ हमारे जीवन में पहले से हैं. राजनीति उनका लाभ लेती है. इन परिणामों से निष्कर्ष निकालने ही हैं तो पहला यह कि विधानसभा-चुनाव इस साल ही हुए हैं. इतनी जल्दी बड़े बदलाव नहीं होंगे. दूसरे निचले स्तर की राजनीति व्यक्तिगत प्रभावों से संचालित होती है. विधानसभा चुनावों में इक्का-दुक्का प्रत्याशी व्यक्तिगत आधार पर जीतते हैं. पर नगर पंचायत में 71 फीसदी से ज्यादा निर्दलीय होते हैं. यह मामूली संख्या नहीं है. ग्रामीण निकायों में यह प्रतिशत और ज्यादा होगा.
inext में प्रकाशित
प्रदेश के राजनीतिक मिजाज की बात करें, तो प्रदेश के महानगरों के परिणाम बता रहे हैं कि बीजेपी की पकड़ कायम है, पर जैसे-जैसे नीचे जाते हैं वह कमजोर होती दिखाई पड़ती है. पर यह बीजेपी की कमजोरी नहीं है, बल्कि इस बात की पुष्टि है कि छोटे शहरों में राजनीतिक पहचान वैसी ही नहीं है, जैसी महानगरों में है.
इसबार जैसे ही परिणाम आने लगे पहली नजर में मीडिया ने इसे बीजेपी की भारी जीत बताना शुरू कर दिया. राज्य के 16 बड़े शहरों के नगर निगमों के परिणामों से ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है. पर नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों ने कुछ पहेलियाँ पेश कर दीं. जल्दबाजी में कुछ लोगों ने निष्कर्ष निकाले कि बड़े शहरों में बीजेपी का असर है, छोटे शहरों में नहीं. वहाँ उसकी हार हुई है. यह जल्दबाजी का निष्कर्ष है. परिणामों का जो डेटा उपलब्ध है, उसके आधार पर यह बात नहीं कही जा सकती.
जबरन निष्कर्ष निकालने की कोशिश करें तो कहें कि वोटर ने पार्टी की राजनीति को नकारा है. इतना साफ है कि उसने बीजेपी को सबसे बड़े दल के रूप में स्वीकार किया है. सीटों की संख्या के आधार पर देखें तो सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों की कुल शक्ति बीजेपी के बराबर बैठती है. प्रदेश के 75 जनपदों के कुल 652 निकायों में 16 मेयरों, 1300 निगम पार्षदों, 198 नगर पालिका अध्यक्षों, 5261 नगर पालिका परिषद सदस्यों, 438 नगर पंचायत अध्यक्षों और 5433 नगर पंचायत सदस्यों के स्थान हैं. नगर निगमों में बीजेपी का वर्चस्व साबित हो गया, पर शेष दो प्रकार के निकायों में निर्दलीय प्रतिनिधित्व बहुत ज्यादा है.
व्यावहारिक सच यह है कि सबसे नीचे के स्तर के राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच विचारधारा की बँटवारा रेखा बहुत महीन होती है. कार्यकर्ता समय के साथ राजनीतिक दल बदलता है. कुछ और निष्कर्षों तक पहुँचने के पहले शेष संख्याओं पर नजर डालनी चाहिए. प्रदेश के कुल 5261 नगर पालिका सदस्यों में से 3380 यानी 64.25 फीसदी निर्दलीय हैं. नगर पंचायतों के 5433 सदस्यों में से 3875 यानी 71.31 प्रतिशत निर्दलीय हैं. इनके अध्यक्षों की संख्या पर भी नजर डालें. नगर पालिकाओं के कुल 198 में से 43 यानी 21.72 प्रतिशत और नगर पंचायत अध्यक्षों के 438 पदों में से 182 (41.55 फीसदी) निर्दलीय हैं. यानी जैसे-जैसे लोकतंत्र नीचे गया, वैसे-वैसे वह निर्दलीय होता गया. इसमें बीजेपी की हार जैसी बात नहीं है. ज्यादातर निर्दलीय सत्तारूढ़ दल के साथ जाते हैं. कस्बों और गाँवों की राजनीति ऐसे ही संगठित होती है.
अभी दो बातें और हैं. पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक अनोखा निष्कर्ष निकाला कि जहाँ ईवीएम से चुनाव हुए, वहाँ बीजेपी जीती और जहाँ बैलेट पेपर से हुए वहाँ हारी. नगर निगमों में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ, बाकी जगह बैलेट पेपर का. अखिलेश यादव का कहना है कि बैलट पेपर के एरिया में बीजेपी को 15 फीसदी सीटें मिलीं, जबकि ईवीएम एरिया में 46 फीसदी. सवाल है कि उन्हें क्या मिला? अखिलेश यादव और मायावती दोनों बैलट पेपर के समर्थक हैं. बैलट एरिया में दोनों को कुल मिलाकर 13 फीसदी सीटें मिलीं, जो बीजेपी की 15 फीसदी सीटों से कम हैं. कांग्रेस की 2.6 फीसदी सीटें मिला लें तब बराबरी होती है. यदि प्रतिशत की बात न करें और केवल आनुपातिक शक्ति की बात करें तो लगभग यही स्थिति पिछले विधानसभा चुनाव में थी, ईवीएम से हुआ था और इसबार का यह चुनाव बैलेट से हुआ.
पिछले कुछ साल से देश की राजनीति में हारने वाला तबका ईवीएम को कोसता रहा है. शुरू में बीजेपी ने इसे कोसा और अब दूसरे दल कोस रहे हैं. ज्यादातर पार्टियों ने हमेशा चुनाव सुधारों का विरोध किया है. ईवीएम और वोटर परिचय पत्र की व्यवस्था बड़ी मुश्किलों से लागू हुई है. हमला ईवीएम पर नहीं चुनाव आयोग पर होता है. संदेह पैदा करना आसान है. इस बार भी मीडिया में ऐसी खबरें आईं. मशीनों में खराबी सम्भव है. चुनाव आयोग की मशीनरी उसके लिए इंतजाम करती है.
एक निष्कर्ष यह भी है कि यूपी का मुस्लिम मतदाता समाजवादी पार्टी के बजाय बहुजन समाज पार्टी की तरफ हाथ बढ़ा रहा है. मेरठ और अलीगढ़ में मेयर पद पर बसपा के प्रत्याशी जीते. सहारनपुर में भी बीएसपी उम्मीदवार की मामूली अंतर से हार हुई. यह संकेत पहली बार नहीं मिला है. विधानसभा चुनाव का सबसे बड़ा संकेत यही था. दो-ढाई दशक से मुस्लिम वोटर टैक्टिकल वोटिंग करता रहा है. जो प्रत्याशी बीजेपी को हराता दिखाई पड़ता है, उसे वह वोट देता है.
कई विश्लेषक सपा, बसपा और कांग्रेस गठजोड़ की बातें भी करते हैं. ऐसा गठजोड़ असंभव नहीं है, पर गठजोड़ का गणित दो और दो चार की तरह सरल नहीं है. सामाजिक गठजोड़ हमारे जीवन में पहले से हैं. राजनीति उनका लाभ लेती है. इन परिणामों से निष्कर्ष निकालने ही हैं तो पहला यह कि विधानसभा-चुनाव इस साल ही हुए हैं. इतनी जल्दी बड़े बदलाव नहीं होंगे. दूसरे निचले स्तर की राजनीति व्यक्तिगत प्रभावों से संचालित होती है. विधानसभा चुनावों में इक्का-दुक्का प्रत्याशी व्यक्तिगत आधार पर जीतते हैं. पर नगर पंचायत में 71 फीसदी से ज्यादा निर्दलीय होते हैं. यह मामूली संख्या नहीं है. ग्रामीण निकायों में यह प्रतिशत और ज्यादा होगा.
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