Sunday, December 31, 2017

सुलगते सवाल सा साल

भारत के लिए 2017 का साल बेहद जोखिम भरा साबित हुआ है। आंतरिक राजनीति की गहमा-गहमी, सांस्कृतिक टकरावों, आर्थिक उतार-चढ़ाव और विदेश नीति के गूढ़-प्रश्नों पर निगाह डालें तो पता लगेगा कि हमने एक साल में कई साल की यात्रा पूरी की है। इसकी शुरुआत उसके पिछले साल यानी 2016 के अंत में नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक जैसी दो बड़ी घटनाओं से हुई थी। साथ ही 2017 की शुरूआत पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के शोर और आम बजट की तारीख में बदलाव से जुड़ी बहस के साथ हुई। इस साल तमाम सवालों के जवाब मिले, फर भी अपने पीछे यह अनेक गूढ़-प्रश्न छोड़ गया है, जिनके जवाब आने वाला साल देगा।
राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से साल का आगाज़ उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन से और समापन गुजरात के जनादेश के साथ हुआ। गुजरात का परिणाम अपने पीछे एक पहेली छोड़ गया है कि जीत किसकी जीत हुई और किसकी हार? इस पहेली को बूझने के लिए अगले साल कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के अलावा मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड जैसे पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव होने हैं। ये चुनाव पूरे साल को सरगर्म बनाकर रखेंगे और सन 2019 के लोकसभा चुनाव की पृष्ठपीठिका तैयार करेंगे।

आने वाले साल में यह भी तय होगा कि अगला लोकसभा चुनाव दो राष्ट्रीय मोर्चों के बीच लड़ा जाना है तो उनकी शक्ल कैसी होगी? देश की अर्थ-व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति की कई जटिल पहेलियाँ सामने खड़ी हैं। सन 2019 में सरकार कोई भी आए, उसके सामने सबसे बड़ा चुनौती महाशक्ति के रूप में भारत के रूपांतरण की होगी। वह सरकार देश को ढाई ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था से साढ़े तीन ट्रिलियन डॉलर या उससे भी ज्यादा बड़ी अर्थ-व्यवस्था के रूप में ढालेगी। केवल अर्थ-व्यवस्था ही नहीं अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत एक बड़ी ताकत के रूप में उसी दौर में उभरेगा, पर उसका प्रस्थान-बिन्दु 2018 का साल बनने वाला है। एक सवाल साल यह भी है कि 2019 का चुनाव 2018 में ही तो नहीं हो जाएगा?    
2022 का सपना
देश में अब हर साल और तकरीबन हर मौसम में कहीं न कही चुनाव होता रहता है। इनकी वजह से माहौल में गरमी बनी रहती है। सन 2014 में जबसे केन्द्र में बीजेपी आई है वह हर समय चुनाव की मुद्रा में रहती है। काफी ताकतवर होने के बावजूद नरेन्द्र मोदी असुरक्षा के घेरे में रहते हैं। पिछले एक-डेढ़ साल से बातें 2019 के चुनाव की हो रही हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी जब जीतकर आई थी, तब उसने अच्छे दिन लाने के लिए पाँच साल माँगे थे। साढ़े तीन साल गुजर गए हैं और सरकार के पास ऐसी चमत्कारिक उपलब्धिनहीं है। पर बड़ी एंटी इनकंबैंसीभी नहीं है।
यह साल बारहवीं पंचवर्षीय योजना का आख़िरी साल था. पिछली सरकार ने इस साल 10 फ़ीसदी आर्थिक विकास दर हासिल करने का लक्ष्य रखा था। वह लक्ष्य तो दूर, पंचवर्षीय योजनाओं की कहानी का समापन भी इस साल हो गया। भारतीय जनता पार्टी ने इस साल संकल्प से सिद्धि कार्यक्रम दिया है। यह नए किस्म की सांस्कृतिक पंचवर्षीय योजना है। 1942 की अगस्त क्रांति से लेकर 15 अगस्त 1947 तक स्वतंत्रता प्राप्ति के पाँच साल की अवधि। बीजेपी ने कांग्रेस से यह रूपक छीनकर उसे अपने सपने के रूप में जनता के सामने पेश किया है।
सन 2022 में भारतीय स्वतंत्रता के 75 साल पूरे हो रहे हैं। मोदी सरकार ने देश की जनता को पाँच साल लंबा एक नया स्वप्न दिया है। पिछले साल के बजट में वित्तमंत्री ने 2022 तक भारत के किसानों की आय दोगुनी करने का संकल्प किया था। उस संकल्प से जुड़े कार्यक्रमों की घोषणा भी की गई है।  
चुनाव-दर-चुनाव
इस साल सात विधान सभाओं के चुनाव हुए। पंजाब, गोवा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, गुजरात और हिमाचल प्रदेश। इन सातों ने एक तरह से मध्यावधि जनादेश का काम किया। आमतौर पर विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। खासतौर से नब्बे के दशक से राज्यों के स्थानीय नेतृत्व का उभार हुआ है, जिसके कारण राज्य-केंद्रित मसले आगे आए हैं। पर इस साल हुए विधान सभा चुनावों में ही नहीं गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों पर राष्ट्रीय मुद्दे छाए रहे।
मणिपुर को छोड़ दें तो शेष राज्यों की राजनीति केंद्रीय राजनीति के समांतर चल रही है। इसकी एक वजह बीजेपी की मोदी-केंद्रित रणनीति भी है। साल के अंत में गुजरात जीत लेने के बाद नरेन्द्र मोदी ने सगर्व घोषणा की कि देश के 19 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। श्रीमती इंदिरा गांधी के सबसे चमत्कारिक दौर में कांग्रेस 18 राज्यों में सत्तारूढ़ थी।
साल की शुरुआत उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सफलता के साथ हुई। उत्तर प्रदेश के चुनाव से ही उस सम्भावित महागठबंधन की राष्ट्रीय सम्भावना को बल मिला है, जो 2015 में बिहार में बना था। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश का हिस्सा था। इस कोशिश का फलितार्थ विजय के रूप में नहीं मिला।
उत्तर प्रदेश का प्रयोग पूरी तरह गठबंधन साबित नहीं हुआ, क्योंकि इसमें बहुजन समाज पार्टी शामिल नहीं थी। यह कोशिश इस साल राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पद के चुनाव में भी दिखाई पड़ी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की पहल पर विरोधी दलों ने राष्ट्रपति पद के लिए मीरा कुमार और उप-राष्ट्रपति पद के लिए गोपाल कृष्ण गांधी को मैदान में उतारा। अंततः बीजेपी के प्रत्याशी रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद पर और वेंकैया नायडू को उप-राष्ट्रपति पद पर जीत मिली।
राज्यसभा की भूमिका
इस चुनाव के दौरान ही बिहार के महागठबंधन में दरार पैदा हुई, जो अंततः टूट गया। महागठबंधन टूटने के बाद न केवल बिहार में भारतीय जनता पार्टी सरकार में शामिल हुई, राज्यसभा में एनडीए के पाले में 10 नए सदस्य और आ गए। सन 2014 में बीजेपी को लोकसभा में बहुमत जरूर मिल गया था, पर राज्यसभा में उसके पास केवल 46 सदस्य थे। एनडीए के कुल सदस्यों की संख्या 64 थी। इसके मुकाबले अकेले कांग्रेस के पास 68 सदस्य थे। इस कमजोरी के कारण बीजेपी अपने भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक को पास नहीं करा पाई। उसे जीएसटी विधेयक पास कराने के लिए कांग्रेस की चिरौरी करनी पड़ी।
राज्यों में बीजेपी की सरकारें बनने के बाद राज्यसभा में बीजेपी की ताकत क्रमशः बढ़ती जा रही है। इस साल पहली बार बीजेपी राज्यसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। उसके सदस्यों की संख्या 58 और कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 57 रह गई है। अब भी 250 के सदन में एनडीए के सदस्यों की संख्या 86 है। अगले एक साल में बीजेपी के 15 नए सदस्यों के आगमन की सम्भावना है। एक साल में चार मनोनीत सदस्यों का कार्यकाल भी पूरा होगा। बीजेपी के लिए सबसे बड़े संतोष का विषय था इस साल वेंकैया नायडू का उप-राष्ट्रपति पद पर चुना जाना। राज्यसभा का संचालन अब उनके जिम्मे है। इससे पार्टी को एक प्रकार की आश्वस्ति मिली है।
दक्षिण का महत्व
सन 2016 के अंत में मुख्यमंत्री जे जयललिता के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति में जबर्दस्त तूफान आया था। यह तूफान इस साल भी थमा नहीं है। अन्ना द्रमुक पार्टी दो या तीन खेमों में बँटने के बाद अभी तक किसी किनारे पर लगी नहीं है। पहले ओ पन्नीरसेल्वम अलग हुए, फिर ई पलानीस्वामी के साथ उनका समझौता हुआ तो टीटीवी दिनाकरन खेमे के 20 विधायकों ने हाथ खींच लिया। जयललिता के जीवित रहते हुए अन्नाद्रमुक के साथ जुड़ने में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने दिलचस्पी दिखाई थी। जयललिता के निधन के बाद बीजेपी काफी हद तक पार्टी को एकजुट करने में सफल होती दिखाई पड़ रही थी।
अद्रमुक की आंतरिक कलह का लाभ डीएमके को मिला है। अब टू-जी मामले से बरी होने के बाद पार्टी के हौसले बढ़ गए हैं। सवाल है कि केन्द्र की राजनाति में अन्ना-द्रमुक और द्रमुक में किसकी भूमिका होगी? बीजेपी ने राज्यसभा में अन्नाद्रमुक के 13 सदस्यों की मौके-बेमौके सहायता ली है। इस बीच नरेन्द्र मोदी ने करुणानिधि से भी तार जोड़े हैं। तमिल राजनीति 2019 के लोकसभा चुनाव की पृष्ठभूमि में रोचक होती जाएगी। भाजपा दक्षिण में पैर जमाना चाहती है। उसकी अभिलाषा तमिलनाडु में प्रवेश करने की है। केरल विधानसभा में उसका प्रवेश हो चुका है, आंध्र और तेलंगाना में उसकी उपस्थिति है। कर्नाटक में वह अतीत में सरकार बना चुकी है। सन 2018 में कर्नाटक विधानसभा का चुनाव सबसे महत्वपूर्ण साबित होने वाला है।
पूर्वोत्तर के बदलते समीकरण
दक्षिण भारत के अलावा भारतीय जनता पार्टी पूर्वोत्तर में पैर पसारना चाहती है। सन 2016 में बीजेपी ने असम में चुनाव जीतकर सरकार बनाई। बीजेपी काफी पहले से इस इलाके में सक्रिय थी। हाल के वर्षों में कांग्रेस संगठन के भीतर पड़ी दरार का लाभ उसे मिला। इस साल पार्टी ने मणिपुर में चुनावी कामयाबी हासिल की और सरकार बनाई। अरुणाचल में भी बीजेपी की सरकार है। यह सरकार चुनाव जीतकर नहीं बनी है, बल्कि 31 दिसंबर 2016 को अरुणाचल पीपुल्स पार्टी के 33 विधायक मुख्यमंत्री पेमा खांडू की अगुवाई में बीजेपी में शामिल हो गए। इस तरह पार्टी ने बिना चुनाव लड़े राज्य में सरकार बनाई।
असली चुनौती अब मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में है, जहाँ फरवरी में चुनाव होने हैं। मेघालय और नगालैंड ईसाई बहुल राज्य हैं और त्रिपुरा सीपीएम का गढ़ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत हाल में त्रिपुरा का दौरा करके आए हैं और नरेन्द्र मोदी ने मिजोरम और मेघालय का दौरा किया है। मिजोरम में अगले साल नवम्बर में चुनाव होंगे।
राहुल गांधी का पुनरोदय
साल का आखिरी महीना राहुल गांधी की अध्यक्षता का पहला महीना था। 16 दिसंबर को औपचारिक रूप से उन्होंने पार्टी अध्यक्ष का पद संभाला। यह भी सच है कि वे पिछले तीन साल से राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे, पर अब और तब में फर्क औपचारिकता का है। बहरहाल गुजरात विधानसभा के चुनाव परिणाम जिस तरह के आए हैं, उनसे कहा जा सकता है कि राहुल गांधी को आंशिक सफलता मिली है। ज्यादा बड़ा सवाल है कि क्या राहुल गांधी इतने विशाल संगठन को संभाल पाएंगे? पार्टी के सीनियर नेताओं से सम्पर्क बनाए रखने के लिए सोनिया को एक व्यवस्था बनानी पड़ी। यह व्यवस्था उनके सहायक अहमद पटेल के मार्फत थी। क्या राहुल भी अपने किसी सहयोगी का सहारा लेंगे, खुद पार्टी को देखेंगे या कोई नई व्यवस्था बनाएंगे?
गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने मीडिया से सम्पर्क बढ़ाया। अपनी छवि को बदलने की कोशिश की। उनकी असली परीक्षा 2018 के चुनावों में होगी। ये चुनाव उन्हें राजनीतिक मुहावरों को समझने और जनता से सम्पर्क का मौका देंगे। हाल में उन्होंने कहा, मोदी अपने मन की बात करते हैं, किसी की सुनते नहीं। सवाल है कि क्या वे अपने कार्यकर्ताओं की सुनते हैं? अरुणाचल और असम के कांग्रेस नेताओं की अनसुनी का परिणाम पार्टी को झेलना पड़ा।

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विदेश नीति और सुरक्षा
नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक सफलता के पीछे एक बड़ा कारण है उनकी विदेशी-सक्रियता। सामान्य वोटर उन्हें केवल राष्ट्रीय नीतियों के आधार पर ही नहीं परखता है। वह अमेरिका, चीन, रूस, जापान और पाकिस्तान के बरक्स मोदी की रीति-नीति पर नजर रखता है। आने वाली 26 जनवरी को दिल्ली की परेड में आसियान देशों के राष्ट्राध्यक्ष जब एकसाथ खड़े होंगे, तो वह सीन कुछ अलग होगा।
इस साल 20 जनवरी को अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कार्यभार संभाला है। भारत के साथ अमेरिका के रिश्तों का पिछले 17-18 साल में विकास हुआ है। यह बदलाव 1998 के एटमी धमाकों के बाद आया है। इसकी शुरुआत एनडीए सरकार के कार्यकाल में जसवंत सिंह और स्ट्रोब टैल्बॉट की बातचीत से शुरू हुई थी, जो अंततः 2005 के सामरिक समझौते और 2008 के न्यूक्लियर डील के रूप में सामने आई।
मोदी सरकार ने उस सिलसिले के आगे बढ़ाया, जिसमें राष्ट्रपति बराक ओबामा की दो बार भारत यात्राओं की बड़ी भूमिका रही। ऐसा लगता है कि डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन में यह क्रम आगे बढ़ेगा, पर इसके अंतर्विरोध भी हैं। ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट नीति के कारण भारत और अमेरिका की वीजा, व्यापार और पर्यावरण नीतियों में टकराव भी है। दूसरी ओर दोनों देशों के बीच सामरिक सहयोग भी बढ़ रहा है। भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया का चतुष्कोणीय सहयोग सामरिक गठजोड़ की शक्ल ले रहा है। गत 11-12 नवम्बर को फिलीपींस की राजधानी मनीला में आसियान शिखर सम्मेलन के हाशिए पर इन चारों देशों के अधिकारियों ने प्रस्तावित गठजोड़ के सवालों पर विचार किया। चारों देश वैचारिक सहमति की प्रक्रिया में हैं। अब मंत्रि-स्तरीय बैठकें होंगी और फिर शिखर बैठकें।
इस साल भारत ने ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफगानिस्तान को गेहूं की पहली खेपकर दो महत्वपूर्ण राजनयिक परिघटनाओं की ओर इशारा किया है। एक,  अफगानिस्तान को पाकिस्तानी दबाव से मुक्त कराने की कोशिश और दूसरे ईरान के रास्ते सेंट्रल एशिया से सम्पर्क के नए रास्तों की तलाश। पाकिस्तान के सीपैक से करीब दो दशक पहले से भारत ने उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर की योजना बना रखी है। अमेरिका के साथ भारत रिश्ते सुधार रहा है वहीं ईरान के साथ भी रिश्ते बनाकर रखना चाहता है। हम रूस और चीन के साथ भी रिश्ते बनाकर चल रहे हैं। साल के आखिरी महीने में दिल्ली में रूस, चीन और भारत के विदेश मंत्रियों की बैठक में सहयोग के बिन्दुओं पर भी बात हुई।
भारत और चीन के रिश्तों में भी पहेलियाँ हैं। गर्मियों में खबर आई कि चीन ने भारत-चीन-भूटान सीमा के पास डोकलाम में सड़क बनानी शुरू कर दी है। भारतीय सेना ने हस्तक्षेप करके सड़क बनाने का काम रोक दिया। कई महीने की गहमा-गहमी के बाद दोनों ने इस गतिरोध को तोड़ा, पर टकराव कायम है। हिंद महासागर में भारतीय नौसेना ने अपनी भूमिका को बढ़ाना शुरू कर दिया है। चीन ने म्यामांर, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव और पाकिस्तान के साथ ऐसे समझौते किए हैं, जो भारतीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं।
नवम्बर में मालदीव ने चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया है। चीन ने मालदीव में सक्रियता बढ़ाई है। सन 2011 तक वहाँ चीन का दूतावास भी नहीं था। सन 2014 में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने वहाँ की यात्रा की। दक्षिण एशिया में केवल मालदीव ऐसा देश है, जहाँ नरेन्द्र मोदी अभी तक नहीं गए हैं। उधर श्रीलंका ने हम्बनटोटा के बंदरगाह को 99 साल के पट्टे पर चीन को सौंप दिया है। नेपाल में दो बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों का गठबंधन सत्तारूढ़ हुआ है। ये खबरें हमारे डिप्लोमेटिक रिश्तों के लिहाज से महत्वपूर्ण है।

इस साल चीन ने जिबूती में अपना सैनिक बेस शुरू किया। भारत भी फारस की खाड़ी के इलाके में अपने बेस के लिए जगह तलाश रहा है। भारतीय विदेश नीति की एक्ट ईस्ट नीति के साथ पश्चिम एशिया में भी सरगर्मी बढ़ रही है। साल के अंतिम दिनों में भारत के दलबीर भंडारी को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में स्थान मिलना भी एक बड़ी सफलता मानी जाएगी। वासेनार ग्रुप का सदस्य बनना सकारात्मक समाचार है। पर एनएसजी में चीनी अड़ंगा और मसूद अजहर को आतंकी घोषित करा पाने में विफलता भी साल की सुर्खियों में शामिल हैं। 
साल 2017 में इंडियन एक्सप्रेस के कुछ पठनीय मुखपृष्ठ यहाँ देखें
हिन्दी ट्रिब्यून में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’कुछ पल प्रकृति संग : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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