आम आदमी पार्टी ने अपने
जन्म के लिए 26 नवम्बर का दिन इसलिए चुना, क्योंकि सन 1949 में भारत की संविधान
सभा ने उस दिन संविधान को स्वीकार किया था। पार्टी राष्ट्रीय प्रतीकों और चिह्नों
को महत्व देती है। उसकी कोई तयशुदा विचारधारा नहीं है। सन 2013 में अरविंद
केजरीवाल ने वरिष्ठ पत्रकार मनु जोसफ को सार्वजनिक मंच पर दिए एक इंटरव्यू में कहा,
हम विचारधाराओं की राह पर नहीं चलेंगे, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन करेंगे। यदि समधान
वामपंथ में हुआ तो उसे स्वीकार करेंगे और दक्षिणपंथ में मिला तो उसे भी मानेंगे। ‘आयडियोलॉजी से पेट नहीं
भरता। हम आम आदमी हैं।’
केजरीवाल की उस साफगोई
में उनके अंतर्विरोध भी छिपे थे। पार्टी का ‘स्वराज’ नाम का दस्तावेज
विचारधारा के नजरिए से अस्पष्ट है। अलबत्ता उसका नाम गांधी की मशहूर किताब ‘हिंद स्वराज’ और राजाजी की पत्रिका ‘स्वराज्य’से मिलता जुलता है। शुरू
में वे मध्यवर्गीय शहरी समाज के सवालों को उठाते थे, फिर उन्होंने दुनियाभर के
सवालों को उठाना शुरू कर दिया। हाल में तमिलनाडु में कमलहासन की राजनीतिक
सम्भावनाएं नजर आईं तो वे चेन्नई जाकर उनसे मिले। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर
रघुराम राजन को राज्यसभा की सदस्यता स्वीकार करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने
विनम्रता से अस्वीकार कर दिया।
पार्टी तीन प्रकार की
प्रवृत्तियों पर चलने की कोशिश करती है। एक, गांधीवादी, दूसरी समाजवादी और तीसरी
पश्चिमी उदारवादी। गांधी, जेपी और लोहिया
के समर्थक इस पार्टी में शामिल हैं। तीनों आंदोलनकारी नेता थे। तीनों ने सत्ता में
कभी हिस्सेदारी नहीं की। इसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी यही है। आंदोलनकारी पार्टी
सत्ता चलाना चाहती है।
इस पार्टी के विकास में पत्रकारिता
के मार्फत एक्टिविस्ट बने लोगों की भूमिका भी है। मीडिया से इनकी गहरी अपेक्षाएं
हैं। जब साथ देता है, तो अच्छा होता है और जब सवाल करता है तो खराब। मार्च 2014
में अरविंद केजरीवाल ने किसी संदर्भ में कहा, समूचा मीडिया बिक गया है। हमारी
सरकार सत्ता में आई तो हम इनकी जांच कराएंगे। मीडिया के लोगों को जेल भेजा जाएगा। दिसम्बर
2013 में जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत हुई थी तब मीडिया उस ‘जनमत संग्रह’ का सीधा प्रसारण कर रहा
था जो सरकार बनाने के बारे में जनता की राय लेने के लिए किया गया। तबतक वह ठीक था।
इसे आम आदमी पार्टी की
उपलब्धि माना जाएगा कि देखते ही देखते देश के हर कोने में वैसा ही संगठन खड़ा करने
की कामनाओं ने जन्म लेना शुरू कर दिया। न केवल देश में बल्कि पड़ोसी देश पाकिस्तान
से खबरें आईं कि वहाँ भी ऐसी ही कोई पार्टी बनाने की माँग हो रही है। इस पार्टी
में शामिल होने के लिए देश-विदेश की बड़ी-बड़ी कम्पनियों की नौकरियाँ छोड़कर
नौजवान आने लगे।
इनमें थे आईटी क्रांति के
नए ‘टेकी’, अमेरिका में काम करने
वाले एनआरआई, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद और मुम्बई के नए
प्रोफेशनल। काम-काजी लड़कियाँ और गृहणियाँ भी। गाँवों और कस्बों के अपवार्ड मूविंग
नौजवान। 18 मई 2013 को अमेरिका के 20 शहरों के लोग शिकागो शहर में जमा हुए,
जिन्होंने आम आदमी पार्टी की मदद करने का फैसला किया। अरुणा रॉय से लेकर मेधा पाटक
और मीरा सान्याल तक अलग-अलग सामाजिक-सांस्कृतिक रंगत वाले लोग इसमें जुटे। और
जितनी तेजी से ये जुटे उतनी ही तेजी से गायब हो गए।
सन 2015 में दिल्ली की
महाविजय के बाद पार्टी में जिस तरह से टूट-फूट हुई वह सामान्य नहीं थी। वरिष्ठ
नेताओं की पूरी टीम बाहर हो गई। पंजाब में पार्टी कार्यकर्ता चुनाव की तैयारी कर
रहे थे। चुनाव आते-आते वह टीम बदल गई। ये अंतर्विरोध सत्ता की राजनीति के साथ
जुड़े हैं। इस पार्टी के गठन के पाँच साल पूरे हुए है, पर ‘सत्ता’ में तीन साल भी पूरे
नहीं हुए हैं। उसे पूरी तरह सफल या विफल होने के लिए पाँच साल की सत्ता चाहिए। लगता
है कि इसके वैचारिक अंतर्विरोध अभी और उधड़ेंगे। उसके शुरुआती नेताओं में से आधे आज
उसके सबसे मुखर विरोधियों की कतार में खड़े हैं।
पार्टी के दो आकर्षक आधार
थे। एक, पारदर्शिता और दूसरा जनता से जुड़ाव। यह पार्टी प्रत्यक्ष लोकतंत्र की
अवधारणा को लागू करना चाहती थी। पर व्यावहारिक रूप से पार्टी तय नहीं कर पाई कि
क्या बातें कमरे के अंदर तय होनी चाहिए और क्या बाहर। इसके इतिहास में विचार-मंथन
के दो बड़े मौके आए थे। एक, लोकसभा चुनाव में पराजय
के बाद और दूसरा 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारी विजय के बाद। दोनों का
उसने लाभ नहीं उठाया।
पार्टी की पहली बड़ी टूट 2015
की शानदार जीत के बाद ही हुई थी। उसका कारण था विचार-मंथन की प्रक्रिया में खामी
या स्वार्थों का टकराव। जिस पारदर्शिता के नाम पर पार्टी बनी, वह लापता थी। टिकट
देने तक में वोटर की भागीदारी का सपना था। नेताओं की कलह ने साबित किया कि उनके
आपस के रिश्तों में भी पारदर्शिता नहीं है। पार्टी ने बाहरी दिखावे में बेहद
नाटकीयता का सहारा लेना शुरू कर दिया। सन 2015 में पार्टी की आमसभा के दौरान एक
किसान की दर्दनाक आत्महत्या ने उस नाटकीयता का पर्दाफाश कर दिया।
सन 1947 में जब देश आज़ाद
हुआ था, तब भी हमारी राजनीति नई
थी। जनता को उससे अपेक्षाएं थीं। ज्यादातर चेहरे नए थे। यानी जितने भी राजनीतिक दल
थे उनमें से ज्यादातर दल आम आदमी पार्टी जैसे थे। पर 1967 आते-आते वह राजनीति
असहनीय हो गई और जनता ने सात-आठ राज्यों में कांग्रेस को खारिज कर दिया। तब फिर आम
आदमी पार्टी जैसी नई ताकतें सामने आईं। सन 1971 में इंदिरा गांधी नई उम्मीदें लेकर
सामने आईं। उन्होंने सबसे बड़ा वादा किया। गरीबी हटाने का। अपेक्षाएं इतनी बड़ी
थीं कि जनता ने उन्हें समर्थन देने में देर नहीं की। बदले में कुछ नहीं मिला।
पाँच साल के भीतर इंदिरा
गांधी की सरकार अलोकप्रियता के गड्ढे में जा गिरी। सन 1977 में उन्हें भारी शिकस्त मिली। तब एक नए राजनीतिक जमावड़े का
ऐतिहासिक स्वागत हुआ। साल भर के भीतर वे भी अलोकप्रिय हो गए। सन 1984 में जब राजीव गांधी जीते, तब वे ईमानदार और भविष्य
की ओर देखने वाले राजनेता के रूप में सामने आए थे। यह वह दौर था जब अरुण शौरी इसी
तरह की ‘ईमानदार राजनीति’ की बात कर रहे थे जैसे आज
अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं।
सवाल उन उम्मीदों का है,
जो जनता ने पाली हैं। वैकल्पिक राजनीति की ‘आप’ योजना भी सुपरिभाषित
नहीं है। वह घूम-फिरकर उन्ही नुस्खों पर वापस लौट रही है जो दूसरी पार्टियाँ
अपनातीं हैं। इस पार्टी की अपील इस बात में थी कि वह मुख्यधारा की राजनीति से अलग
है। पर आंदोलनकारी संगठन और राजनीतिक दल की संरचना में बुनियादी फर्क है। कमान-कंट्रोल, निर्णय पद्धति और विवादों
के निस्तारण की व्यवस्था के बरक्स दोनों प्रकार के संगठन अलग-अलग तरीकों से चलते
हैं। आंदोलनकारी संगठन में नेताओं की भीड़ हो सकती है, पर सत्ता की राजनीति में
नेतृत्व का एक पदक्रम होता है।
‘आप’ अपने पदक्रम को परिभाषित
नहीं कर पाई और घूम-फिरकर वह भी हाईकमान वाली पार्टी बन गई है। उसके शिखर-पुरुष
केजरीवाल हैं। वह भी उसी रास्ते पर गई जिसपर
दूसरे दल जाते हैं। बल्कि वह परम्परागत पार्टियों से ज्यादा प्रचार-प्रिय है और
लोकलुभावन नारे लगाती है। उसने क्षेत्रीय-राष्ट्रीय क्षत्रपों की तरह अरविन्द
केजरीवाल को ‘ब्रांड’ बनाया और उनकी तस्वीरों से दिल्ली शहर को पाट दिया। उसने याद नहीं रखा कि
उसका विस्तार जनता के साथ मौखिक संवाद से हुआ है, बैनरों और होर्डिंगों से नहीं।
खामियों के बावजूद इस प्रयोग की कुछ उपलब्धियाँ भी हैं। यह एक छोटा एजेंडा लेकर
मैदान में उतरी थी। बेहतर होता कि वह पहले नगरपालिका के चुनाव लड़ती। वह जिस
प्रत्यक्ष लोकतंत्र की परिकल्पना लेकर आई थी, वह छोटी यूनिटों में ही सम्भव है।
गली-मोहल्लों के स्तर पर वह नागरिकों की जिन कमेटियों की कल्पना लेकर आई, वह अच्छी थी। इस मामले में मुख्यधारा की पार्टियाँ फेल हुई
हैं। पर जनता के साथ सीधे संवाद के आधार पर फैसले करने वाली प्रणाली को विकसित
करना मुश्किल काम है।
‘आप’ को उसकी उपलब्धियों से वंचित करना भी गलत होगा।
खासतौर से सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में उसके काम को तारीफ मिली
है। लोग मानते हैं कि दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का काम पहले से बेहतर हुआ है।
मोहल्ला क्लीनिकों की अवधारणा बहुत अच्छी है। चुनाव से पहले के उसके 70 सूत्री
कार्यक्रम में तमाम उपयोगी बातें हैं।
यह पार्टी उत्साही युवाओं
का समूह थी। इसके जन्म के बाद युवा उद्यमियों,
छात्रों तथा
सिविल सोसायटी ने उसका आगे बढ़कर स्वागत किया था। पहली बार देश के मध्यवर्ग की
दिलचस्पी राजनीति में बढ़ी थी। उसने जनता को अपने साथ जोड़ने के कई नए प्रयोग किए। जब पहले दौर में इसकी सरकार
बनी तब सरकार बनाने का फैसला पार्टी ने जनसभाओं के मार्फत किया था। उसने प्रत्याशियों
के चयन में वोटर को भागीदार बनाया। दिल्ली सरकार ने एक डायलॉग कमीशन बनाया है। पता
नहीं इस कमीशन की उपलब्धि क्या है, पर इसकी वैबसाइट पर सन्नाटा पसरा रहता है।
यह कहना गलत होगा कि इस
विचार का मृत्युलेख लिख दिया गया है। पर इसे जीवित या पूरी तरह सफल मानना भी गलत
होगा। इसका भविष्य उन ताकतों पर निर्भर करेगा,
जो इसकी रचना का
कारण बनी थीं। यह पार्टी जनता की उम्मीदों के सहारे आई थी। महत्वपूर्ण है उन
उम्मीदों को कायम रखना। अभी पार्टी के पाँच साल हुए हैं, उसकी सरकार के भी पाँच
साल पूरे होने दीजिए।
हिन्दी ट्रिब्यून में प्रकाशित
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