Sunday, October 13, 2013

सरकार की ओर से जवाब तो राहुल को भी देना होगा

इंटरनेट पर पप्पू और फेंकू दो सबसे ज्यादा प्रचलित शब्द हैं। जाने-अनजाने भारतीय राजनीति दो नेताओं के इर्द-गिर्द सिमट गई है। परम्परा से भारतीय जनता पार्टी व्यक्ति केन्द्रित पार्टी नहीं है। और कांग्रेस हमेशा व्यक्ति केन्द्रित पार्टी रही है। पर इस बार दोनों अपनी परम्परागत भूमिकाओं से हट गईं हैं। भाजपा का सारा जोर व्यक्तिगत नेतृत्व पर है और कांग्रेस नेतृत्व के इस सीधे टकराव से भागती नजर आती है। सच बात है कि भारतीय चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह नहीं होते जहाँ दो राष्ट्रीय नेता आमने-सामने बहस करें। यहाँ संसद का चुनाव होता है, जिसमें पार्टियाँ महत्वपूर्ण होती हैं। और संसदीय दल अपने नेता का चुनाव करते हैं। वास्तव में यह आदर्श स्थिति है। इंदिरा इज़ इंडिया तो कांग्रेस का ही नारा था। सच यह भी है कि लाल बहादुर शास्त्री, पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह तीनों नेताओं को प्रधानमंत्री बनने का मौका तब मिला जब परिवार का कोई नेता तैयार नहीं था। पर आज स्थिति पूरी तरह बदली हुई है।


सन 2014 के चुनाव में कांग्रेस यदि सत्ता में आई तो कौन प्रधानमंत्री बनेगा? क्या संसदीय दल के नेता का चुनाव होगा? क्या मनमोहन सिंह फिर से प्रधानमंत्री बनेंगे? या पी चिदम्बरम और एके एंटनी जैसे किसी वरिष्ठ नेता को बागडोर सौंपी जाएगी? सामान्य समझ कहती है कि ऐसा नहीं होगा। राहुल गांधी तैयार हैं। पिछली 27 सितम्बर को राहुल ने दागी जन-प्रतिनिधियों को बचाने वाले अध्यादेश को फाड़ कर फेंक देने की बात कहकर यह साफ कर दिया कि ताकत उनके ही पास है। सरकार ने उनकी बात मानी। कांग्रेस को अब कुछ घोषित करने की जरूरत नहीं है। राहुल गांधी के पिछले एक हफ्ते के बयानों पर गौर करें तो उनसे भी साफ होता है कि वे पार्टी की चुनाव-रणनीति को दिशा दे रहे हैं। दिल्ली के प्रेस क्लब में अपनी बांहें समेटते हुए उन्होंने साफ कर दिया कि उन्हें चुनौती स्वीकार है। क्या है राहुल की राजनीति?

गरीब को भरपेट भोजन, शिक्षा का अधिकार और जानकारी पाने का अधिकार। कांग्रेस ने गरीबों को अधिकार देने की राजनीति का सहारा लिया है। इसके साथ ही हाल में उन्होंने इसमें युवा तत्व जोड़ा है। दलित जातियों का नाम लिया है और मुजफ्फरनगर-दंगों के संदर्भ में दूसरे दलों को दंगे भड़काने वाला साबित करके मुसलमानों को कांग्रेस की ओर खींचने की कोशिश की है। राहुल पिछले एक दशक से ज्यादा समय से सक्रिय राजनीति में हैं, पर राष्ट्रीय नीतियों पर विमर्श से बचते रहे हैं। सन 2011 में जब श्रीमती सोनिया गांधी स्वास्थ्य-कारणों से विदेश गईं थीं, तब आधिकारिक रूप से उन्हें पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। अन्ना-आंदोलन के कारण वह समय राहुल को प्रोजेक्ट करने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सका। बल्कि उस दौरान अन्ना को गिरफ्तार करने से लेकर संसद में लोकपाल-प्रस्ताव रखने तक के सरकारी फैसलों में इतने उतार-चढ़ाव आए कि बजाय श्रेय मिलने के पार्टी की फज़ीहत हो गई। इसके बाद संसद के विशेष अधिवेशन में उन्हें शून्य-प्रहर में बोलने का मौका दिया गया और उन्होंने लोकपाल के लिए संवैधानिक पद की बात कहकर पूरी बहस को बुनियादी मोड़ देने की कोशिश की। पर उनका सुझाव को हवा में उड़ गया।

सन 2009 में यूपीए-2 की सरकार बनते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें मंत्री का पद देने की पेशकश की थी, पर राहुल ने उसे स्वीकार नहीं किया। पिछले साल जून से अगस्त के बीच जब राष्ट्रपति चुनाव को लेकर गहमागहमी चल रही थी और कोल-ब्लॉक आबंटन को लेकर भाजपा प्रधानमंत्री को निशाना बना रही थी, उन्हीं दिनों दिग्विजय सिंह ने सलाह दी थी कि राहुल को अब प्रधानमंत्री पद सौंप दिया जाना चाहिए। पर राहुल उसके लिए तैयार नहीं हुए। बहरहाल अब उनके पास समय नहीं है। माना जा रहा है कि यदि 2014 में कांग्रेस की सरकार बनी तो राहुल प्रधानमंत्री बनेंगे। पर सरकार नही बनी तब? प्रधानमंत्री बनने या विपक्ष का नेता बनने के लिए जिस किस्म की सक्रियता चाहिए वह नज़र आनी चाहिए। उनके सिद्धांत और व्यवहार में अंतर्विरोध हैं। तमाम सक्रियता के बावज़ूद उनके चारों ओर एक प्रति-चुम्बकीय घेरा है। एक ओर वे स्वयं को सिस्टम और व्यवस्था का हामी मानते हैं, दूसरी ओर वे या उनकी पार्टी यह साबित करना चाहती है कि दागी जन-प्रतिनिधियों के मामले में उन्होंने पहल न की होती तो सर्वनाश था। यानी राहुल की शैली व्यक्तिवादी होगी।

कांग्रेस क्या 1971 के रास्ते पर जा रही है, जब इंदिरा गांधी नई उम्मीदें लेकर आईं थीं? हालंकि तब के मुहावरे आज पर लागू नहीं होंगे, पर जनता की उम्मीदें आज भी वही हैं। पर क्या राहुल गांधी की तुलना इंदिरा गांधी से की जा सकती है? क्या आज का मीडिया और सामाजिक विमर्श वैसा ही है जैसा 1967 से 1971 के बीच था? राहुल गांधी को आज पार्टी सहारा देकर खड़ा कर रही है। इंदिरा गांधी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के भीतरी विरोध से लड़ते हुए आगे आईं थीं। उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के नेता श्रीपाद अमृत डांगे जैसे नेताओं और वामपंथी रुझान के लेखकों का बाहरी समर्थन मिला था। कांग्रेस की इनकम्बैंसी का ठीकरा सिंडीकेट के माथे फूटा था। इंदिरा गांधी नए दौर की प्रतीक बनकर उभरी थीं। राहुल किसी से लड़कर आगे नहीं आए हैं। मनमोहन सिंह से भी नहीं। बेशक वे गरीबों को भरपेट भोजन देना चाहते हैं, पर कोई भी पूछ सकता है कि गरीबी हटाओ के जिस नारे पर 1971 में कांग्रेस को जनता ने सत्ता सौंपी वह गरीबी आज भी कायम क्यों है? और वह कब तक कायम रहेगी? जनता को अच्छी शिक्षा का अधिकार क्यों नहीं मिलता? और यह भी कि समस्या कुपोषण की थी तो सात किलो कार्बोहाइड्रेट्स से वह कुपोषण कैसे दूर होगा? क्रोनी कैपटलिज्म अपने आप में समस्या है तो वह किसकी देन है?


राहुल गांधी को यूपीए की दो सरकारों से जुड़ी अलोकप्रियता का टोकरा भी उठाना होगा। दागी जन-प्रतिनिधियों को लेकर अचानक मौखिक विस्फोट से ही काम नहीं चलेगा। उन्हें तमाम राष्ट्रीय नीतियों पर भी जवाब देने होंगे। ये जवाब विदेश नीति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सबसे जुड़े हैं। पिछले कुछ दिन से पूरा आंध्र प्रदेश परेशानी में है। केन्द्रीय नेतृत्व दूर बैठा तमाशा देख रहा है। पिछले साढ़े चार साल में टू-जी, आदर्श मामला, कोल ब्लॉक, कॉमनवैल्थ गेम्स जैसे तमाम मसलों पर चले राष्ट्रीय विमर्श से वे अलग रहे। संसद में उन्होंने शायद ही उन्होंने किसी महत्वपूर्ण बहस में हस्तक्षेप किया हो। दिल्ली प्रेस क्लब में उस महत्वपूर्ण घोषणा के कारण वे आए, अन्यथा मीडिया से उनका सम्पर्क ज्यादा नहीं है। उनका ही नहीं पूरी सरकार का। बेशक उन्हें जीतने और प्रधानमंत्री बनने का पूरा हक है, पर जनता यह हक देने के पहले तमाम बातें देखेगी। जवाब राहुल को देना है।    
हरिभूमि में प्रकाशित

हिन्दू में केशव का कार्टून

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