Saturday, October 26, 2013

भावनाओं के भँवर में गोते लगाते राहुल

लगता है कि राहुल गांधी के भाषणों को लिखने वाले या उनके इनपुट्स तय करने वाले तीन-चार दशक पुरानी परम्परा के हिसाब से चल रहे हैं। उन्हें लगता है कि नेता जो बोल देगा उसका तीर सीधे निशाने पर जाकर लगेगा। उसके बाद अहो-अहो कहने वाली मंडली उस बात को आसमान पर पहुँचा देगी। मुज़फ्फरनगर के युवाओं के पाकिस्तानी खुफिया एजेंटों के सम्पर्क में आने वाली बात कह कर राहुल ने नासमझी का परिचय दिया है। नरेन्द्र मोदी के हाथों उनकी फज़ीहत हुई सो अलग किसी दूसरे समझदार व्यक्ति को भी यह बात समझ में नहीं आएगी। उन्हें अपने भाषणों में सावधानी बरतनी होगी।
राहुल गांधी अपने राजनीतिक जीवन के बेहद महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं। निर्णायक रूप से उनके सफल या विफल होने में अभी कुछ महीने बाकी हैं, पर अंतर्विरोध उजागर होने लगे हैं। उनकी विश्व-दृष्टि और राजनीतिक मिशन को लेकर सवाल उठे हैं। अपनी पार्टी का भविष्य वे किस रूप में देख रहे हैं और इसमें व्यक्तिगत रूप से वे क्या भूमिका निभाना चाहते हैं? ऐसे समय में जब उन्हें दृढ़-निश्चयी, सुविचारित और सुलझे राजनेता के रूप में सामने आना चाहिए, वे संशयी और उलझे व्यक्ति के रूप में नज़र आ रहे हैं। पहले अपनी माँ, फिर पिता, फिर दादी का ज़िक्र करते वक्त बेशक वे अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रहे हैं और इसका उन्हें अधिकार है। पर इससे विसंगति पैदा होती है। उनके परिवार की त्रासदी पर पूरे देश की हमदर्दी है। वे कहते हैं कि उन्होंने मेरे पिता को मारा, मेरी दादी की हत्या की और शायद एक दिन मेरी भी हत्या हो सकती है। ऐसा कहते ही वे अपने पारिवारिक अंतर्विरोधों का पिटारा खोल रहे हैं।


भिंडरावाले की समस्या पंजाब में अकाली दल को किनारे लगाने की कोशिश का परिणाम थी। और लिट्टे से दुश्मनी की वजह थी 1987 का शांति समझौता। राहुल गांधी गरीबों को भरपेट भोजन देने के बाद उन्हें अधिकार सम्पन्न बनाते-बनाते मुज़फ्फरनगर दंगों और आईएसआई तक जा रहे हैं।
दूसरी और वे देश को युवा सरकार देने का वादा कर रहे हैं। यह देखे बगैर कि उनकी पार्टी की सरकार कितनी युवा थी। पिछले दशक में पार्टी के अनेक युवा इसलिए आगे नहीं आ पाए कि कहीं वे काफी आगे न चले जाएं। कांग्रेस की युवा राजनीति राहुल के इंतजार में खड़ी है। इसके विपरीत नवीनतम विस्तार में कैबिनेट में शामिल होने वाले चार मंत्रियों की औसत उम्र 73 साल थी। पार्टी या तो राहुल गांधी का इंतजार कर रही थी या उसकी धारणा कुछ और थी। उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि सन 2020 तक दुनिया की सबसे युवा आबादी भारत की होगी। 83 वर्षीय सीसराम ओला को श्रम और रोजगार मंत्रालय दिया गया। इस विभाग को युवा आकांक्षाओं का सबसे ज्यादा ध्यान देना है । राहुल गांधी बेशक खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और कैश ट्रांसफर को गेम चेंजर मानते हों। पर असली गेम चेंजर आने वाले समय का नौजवान होगा, जिसका जिक्र एक बार करने के बाद वे भावनाओं के भँवर में गोते लगाने लगे हैं।

हाल में एक पत्रिका ने लिखा कि सच यह है कि वर्तमान लोकसभा के 36 सदस्यों ने कोई सवाल नहीं पूछा। इनमें राहुल गांधी भी हैं। 12 सदस्य किसी विचार-विमर्श में शामिल नहीं हुए। इनके नाम पढ़ेंगे तो आश्चर्य होगा। हाल के वर्षों में देश की युवा राजनीति के नाम पर मज़ाक होता रहा है, जबकि नरेन्द्र मोदी की सभाओं में बढ़ती भीड़ और दिल्ली में आप की दस्तक कुछ और कहानी कह रही है। शरद पवार का कहना है कि राहुल को अपनी प्रशासनिक दक्षता को साबित करना होगा। उन्हें काफी पहले सरकार में शामिल होकर अनुभव हासिल करना चाहिए था। पर राहुल प्रशासनिक-राजनीति से बचे रहे। उनका अपने कुछ मित्रों को छोड़ मीडिया, लेखकों, पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों या एक्टिविस्टों से सम्पर्क नहीं रहा। जब उन्हें घोषणाएं करनी हुईं वे पैराट्रुपर की तरह आए और चले गए। वे संसद में अपनी भूमिका दर्ज करा सकते थे। कोयले को लेकर चल रहे विवाद में भी उन्हें सामने आना चाहिए था।

सन 2011 में जब श्रीमती सोनिया गांधी स्वास्थ्य-कारणों से विदेश गईं थीं, तब आधिकारिक रूप से उन्हें पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। पर अन्ना-आंदोलन दौरान वे सामने नहीं आए। सन 2009 में यूपीए-2 की सरकार बनते वक्त मनमोहन सिंह ने उन्हें मंत्री बनने का सुझाव दिया, जिसे राहुल ने नहीं माना। पिछले साल जुलाई में दिग्विजय सिंह ने सलाह दी थी कि उन्हें अब प्रधानमंत्री पद सौंप दिया जाना चाहिए। उसके बाद सितम्बर में इकोनॉमिस्ट ने 'द राहुल प्रॉब्लम' शीर्षक से लिखा कि राहुल ने "नेता के तौर पर कोई योग्यता नहीं दिखाई है। और ऐसा नहीं लगता कि उन्हें कोई भूख है। वे शर्मीले स्वभाव के हैं, मीडिया से बात नहीं करते और संसद में भी अपनी आवाज़ नहीं उठाते हैं।"

एक दशक पहले तक राहुल गांधी को लेकर एक प्रकार का रहस्य था। वे अपेक्षाकृत युवा भी थे। एनडीए की सरकार के पाँच साल में उन्होंने कांग्रेस के पक्ष में कोई बड़ी मुहिम नहीं चलाई। पिछली 27 सितम्बर को उन्होंने दागी जन-प्रतिनिधियों को बचाने वाले अध्यादेश को फाड़ कर फेंक देने की बात कहकर अचानक एक बैरियर को पार किया। राहुल ने ये तेवर इसके पहले कभी नहीं दिखाए। दिल्ली के प्रेस क्लब में उन्होंने अपनी बांहें समेटीं और ऐलान किया कि उन्हें चुनौती स्वीकार है। क्या है राहुल की राजनीति? गरीब को भरपेट भोजन, शिक्षा का अधिकार और जानकारी पाने का अधिकार। कांग्रेस ने गरीबों को अधिकार देने की राजनीति का सहारा लिया है। इसके साथ ही हाल में उन्होंने इसमें युवा तत्व जोड़ा है। दलित जातियों का नाम लिया है और मुजफ्फरनगर-दंगों के संदर्भ में दूसरे दलों को दंगे भड़काने वाला साबित करके मुसलमानों को कांग्रेस की ओर खींचने की कोशिश की है। उन्होंने आर्थिक सुधारों के बारे में कभी कुछ नहीं कहा। शहरीकरण की बात नहीं की। आर्थिक नीतियों से बचते रहे। वे शहरों की रैलियों में उन सवालों को उठा रहे हैं जो सामने खड़ी जनता के नहीं हैं।


पर वे भावुक क्यों हो रहे हैं? इस साल जनवरी में जयपुर चिंतन शिविर में उपाध्यक्ष का औपचारिक पद हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने भावुक हृदय से मर्मस्पर्शी भाषण दिया। उन्होंने कहा कि मेरी माँ ने रोते हुए कहा है कि पावर ज़हर के समान है। इसका वरण किया है तो उन्हें निर्वाह करना होगा। यही उनकी परीक्षा है। पिछले दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के चुनाव अभियान में भावनाएं नहीं थीं। इन भावनाओं के साथ वे भावनाओं को भड़काने की राजनीति का जिक्र करते हैं। पर उन्हें तेलंगाना पर भी सफाई देनी होगी, जो सिर्फ राजनीतिक कारणों से झुलस रहा है। 

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