Monday, July 9, 2012

नया वैश्विक सत्य, उन्माद नहीं सहयोग

दिफाए पाकिस्तान कौंसिल ने रविवार को लाहौर से लांग मार्च शुरू किया है, जिसका उद्देश्य नेटो सेनाओं की रसद सप्लाई पर लगी रोक हटाने के खिलाफ नाराज़गी जताना है। इस बीच अमेरिका ने अफगानिस्तान को गैर-नेटो देशों में अपने सामरिक साझीदारों की सूची में शामिल करके आने वाले समय में इस इलाके के सत्ता संतुलन का संकेत दिया है। पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान को समझ में आने लगा है कि यह वक्त आर्खिक सहयोग का है, टकराव का नहीं, पर वहाँ का कट्टरपंथी तबका इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है

हाल में भारत आए पाकिस्तान के विदेश सचिव जलील अब्बास जीलानी और भारत के विदेश सचिव रंजन मथाई के बीच दो दिन की बातचीत के बाद हुई प्रेस कांफ्रेस में दोनों सचिवों ने मीडिया से अपील की कि वह दोनों देशों के बीच टकराव का माहौल न बनाए। इस बातचीत का मकसद दोनों देशों के बीच रिश्तों को बेहतर बनाना था, जिसमें जम्मू-कश्मीर, आतंकवाद और भरोसा बढ़ाने वाले कदम (सीबीएम) शामिल हैं। दोनों देशों के रिश्ते जिस भावनात्मक धरातल पर हैं, उसमें सबसे बड़ा सीबीएम मीडिया के हाथ में है। जब भी भारत और पाकिस्तान का मैच खेल के मैदान पर होता है मीडिया में ‘आर्च राइवल्स’, परम्परागत प्रतिद्वंदी, जानी दुश्मन जैसे शब्द हवा में तैरने लगते हैं। किसी एक की विजय पर उस देश में जिस शिद्दत के साथ समारोह मनाया जाता है तकरीबन उसी शिद्दत से हारने वाले देश में शोक मनाया जाता है। इसके विपरीत दोनों देशों के बीच की सरकारी शब्दावली पर जाएं तो उसमें काफी बदलाव आ गया है। ताजा संयुक्त वक्तव्य को पढ़ें तो यह फर्क समझ में आएगा। पर दोनों विदेश सचिवों के संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में बातें बार-बार अबू जुंदाल पर जा रहीं थीं। 

मनमोहन सिंह सरकार ने सायास यह फैसला किया था कि दोनों देशों की बातचीत में 26 नवम्बर 2008 के मुम्बई हमलों का ज़िक्र तब तक नहीं किया जाएगा, जब तक उसका संदर्भ न हो। इसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी यही किया था। दोनों देशों के औपचारिक वक्तव्यों में जो बदलाव आया है वह मीडिया में दिखाई नहीं पड़ता। जुलाई 2010 में भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की पाकिस्तान यात्रा के दौरान पाकिस्तान के तत्कालीन विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी के कड़वे वक्तव्य के कारण माहौल खराब हो गया था। इसके छह महीने बाद शाह महमूद कुरैशी को इस हटना पड़ा। हालांकि कारण बने अमेरिका विरोधी वक्तव्य, पर वे बदलते हालात को समझ नहीं पाए। पिछले साल जुलाई में पाकिस्तान के कार्यवाहक राष्ट्रपति फारुक एच नाइक ने 34 वर्षीय हिना रब्बानी खार को देश के विदेश मंत्री पद की शपथ दिलाई। जिस वक्त उन्होंने शपथ ली उस वक्त राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों देश के बाहर थे। हिना पिछले पाँच महीने से विदेश राज्यमंत्री के स्वतंत्र प्रभार के साथ काम कर रहीं थीं। उन्हें अचानक उसी वक्त शपथ दिलाकर मंत्री बनाने की ज़रूरत दो वजह से समझ में आती थी। एक तो वे बाली में हो रहे आसियान फोरम में पाकिस्तानी दल का नेतृत्व करने वाली थीं। और शायद उससे बड़ी वजह यह थी कि वे 27 जुलाई को भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्ण से बातचीत के लिए दिल्ली आ रहीं थीं। उसके पहले 13 जुलाई को मुम्बई में फिर धमाके हुए थे। धमाकों के फौरन बाद हो रही भारत-पाकिस्तान वार्ता कई मायनों में महत्वपूर्ण थी। पाकिस्तान चाहता तो हिना रब्बानी खार राज्यमंत्री के रूप में भी बातचीत के लिए आ सकतीं थीं। या मुम्बई धमाकों का नाम लेकर बातचीत को कुछ दिन के लिए टाला जा सकता था। पर ऐसा नहीं हुआ। मतलब यह कि दोनों देशों ने परिस्थितियों को समझा था।

भारत-पाकिस्तान रिश्ते दो दिन में नहीं बदल सकते। लाहौर बस यात्रा से आगरा सम्मेलन तक का हमारा अनुभव यही है। पर वे लगातार खराब भी नहीं रह सकते। दक्षिण एशिया के परिदृश्य को देखें तो बड़ा बदलाव आप महसूस करेंगे। भारत के साथ रिश्तों का बनना-बिगड़ना पाकिस्तान के अंदरूनी हालात पर भी निर्भर करता है। यह पहला मौका है जब पाकिस्तान में जम्हूरी सरकार इतने लम्बे दौर तक चली है। देश की राजनैतिक केमिस्ट्री को इसके साथ ही बदलना होगा। इसके समानांतर आर्थिक बदलाव चल रहे हैं और वैश्विक राजनीति टकराव की जगह व्यापारिक रिश्तों की ओर रुख कर रही है। हाल की कउछ घटनाओं पर नज़र डालें।

नवम्बर 2011 के सलाला हादसे को लेकर पिछले हफ्ते अमेरिकी विदेशमंत्री हिलैरी क्लिंटन ने पाकिस्तान से सॉरी कहा और उम्मीद ज़ाहिर की कि पाकिस्तान नेटो सेनाओं के सप्लाई मार्ग को फिर से शुरू कर देगा। पाकिस्तान को इस सॉरी का बेसब्री से इंतज़ार था। हिलैरी का वक्तव्य ज़ारी होते ही ट्रक चलने लगे। अमेरिका ने पाकिस्तान को एक अरब डॉलर की सहायता देने की घोषणा की है। और साथ ही वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से एक अरब का लोन दिलाने में मदद करेगा। पहले यह उम्मीद थी कि नेटो सप्लाई शुरू होने पर पाकिस्तान 5000 डॉलर प्रति ट्रक ट्रांज़िट टैक्स वसूल करेगा, पर ऐसा नहीं हुआ। बल्कि नेटो सप्लाई के समझौते में किसी किस्म का बदलाव नहीं हुआ। अमेरिका ने ड्रोन हमले भी नहीं रोके हैं। इस समझौते के फौरन बाद एक ज़बर्दस्त ड्रोन हमला किया गया। पर यह सारा मामला मारा-मारी से नहीं जुड़ा है।

दक्षिण एशिया की घटनाओं को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करें तो कुछ नई बातें उभरती दिखाई पड़ेंगी। आप भारत-अमेरिका और पाक-अमेरिका रिश्तों में बदलाव देखेंगे साथ ही भारत-चीन और पाक-चीन रिश्तों पर भी गौर करें। उधर भारत-रूस और पाक-रूस रिश्तों की ओर भी ध्यान दें। इस इलाके में बढ़ती आर्थिक गतिविधियों पर नज़र डालें। पिछले महीने भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा वॉशिंगटन गए थे, जहाँ अमेरिका-भारत के बीच तीसरा सामरिक संवाद हुआ। यह एक नई सालाना एक्सरसाइज़ है। अमेरिका के साथ भारत की सामरिक संधि है। 2008 के न्यूक्लियर समझौते के पहले ही भारत ने अमेरिका के साथ सामरिक रिश्ते बना लिए थे। अनेक आर्थिक कारणों से अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देश आने वाले समय में महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं। इस इलाके में अमेरिका, रूस और चीन हमारे सहयोगी भी हैं और प्रतिद्वंदी भी। यह प्रतिद्वंदिता अब सामरिक कम और व्यापारिक ज़्यादा है।

अमेरिका ने भारत को दक्षिण चीन सागर से लेकर प्रशांत क्षेत्र तक अपना सामरिक साझीदार बनाया है। जापान और दक्षिण कोरिया के मुकाबले आने वाले वर्षों में भारत की भूमिका ज़्यादा बड़ी होगी। दूसरी सामरिक भूमिका अफगानिस्तान में होगी, जहाँ 2014 में नेटो की सेनाओं के हटने के बाद भारत की नई भूमिका होगी। भारत-अफगानिस्तान-अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय वार्ता का समझौता हुआ है। पिछले साल अक्टूबर में भारत-अफगानिस्तान सामरिक समझौता हुआ है। अफगानिस्तान में भारत ने सन 2009 में निमरोज़ प्रांत में एक सड़क बनाई है जो ईरान से माल लाने के लिए ज़रूरी थी। भारत अब अफगानिस्तान के इन्फ्रास्ट्रक्चर, सप्लाई लाइनों, स्वास्थ्य और शिक्षा के काम हाथ में ले रहा है। इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों, डिप्लोमैटों और पुलिस की ट्रेनिंग का काम भी भारत के जिम्मे है। भारत ने अफगानिस्तान को सार्क का सदस्य बनाने में मदद की।

अफगानिस्तान में भारत की उपस्थिति को पाकिस्तान का कट्टरपंथी तबका पसंद नहीं करता। पिछले हफ्ते पाकिस्तान में रूस के बिजली उप मंत्री वाईपी सेंत्युरिन के नेतृत्व में छह सदस्यों का शिष्टमंडल आया था। रूस पाकिस्तान के भारी उद्योगों और बिजलीघरों में निवेश करना चाहता है। इस इलाके में औद्योगीकरण और इनफ्रासेक्टर के काफी काम हैं। पाकिस्तान और रूसी सहयोग की प्रतीक पाकिस्तान स्टील मिल्सपहले से मौज़ूद है। तुर्कमेनिस्तान से अफगानिस्तान, पाकिस्तान होते हुए भारत तक 1680 किलोमीटर लम्बी पाइपलाइन (तापी) का निर्माण 2018 तक होना है। इस लाइन के निर्माण के लिए कई देशों की कम्पनियाँ आगे आईं हैं। रूस ने हाल के वर्षों में पाकिस्तान को अपनी ओर खींचने की कोशिश की है। उसने पाकिस्तान को शंघाई सहयोग संगठन में पर्यवेक्षक बनाने में मदद की। जवाब में पाकिस्तान ने रूस को इस्लामी देशों के संगठन(ओआईसी) में पर्यवेक्षक बनवाया। इधर भारत और चीन अपने सीमा विवाद को भूलकर आर्थिक सहयोग बढ़ा रहे हैं। यह नए दौर की वास्तविकता है। बहुत जल्द भारत से 50 रेलवे इंजन पाकिस्तान जाने वाले हैं, क्योंकि पाकिस्तान में रेल इंजनों की कमी के कारण रेल सेवाएं ठप हो रहीं हैं। वास्तव हमारे और पाकिस्तान के मीडिया को इन दिशाओं में भी देखना चाहिए। अलबत्ता आश्चर्य इस बात पर है कि अबू जुंदाल के बयान लगातार मीडिया में आ रहे हैं। इन्हें कौन लीक कर रहा है? शायद सरकारी महकमों में भी आपसी तालमेल नहीं है।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित



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