Monday, November 28, 2011

अर्थनीति को चलाने वाली राजनीति चाहिए

सन 1991 में जब पहली बार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को देश में लागू किया गया था तब कई तरह की आशंकाएं थीं। मराकेश समझौते के बाद जब 1995 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना तब भी इन आशंकाओं को दोहराया गया। पिछले बीस साल में इन अंदेशों को बार-बार मुखर होने का मौका मिला, पर आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। दिल्ली में कांग्रेस के बाद एनडीए की सरकार बनी। वह भी उस रास्ते पर चली। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की सरकारें आईं और गईं, पर उन्होंने भी उदारीकरण की राह ही पकड़ी। इस तरह मुख्यधारा की राजनीति में उदारीकरण की बड़ी रोचक तस्वीर बनी है। ज्यादातर बड़े नेता उदारीकरण का खुला समर्थन नहीं करते हैं, पर सत्ता में आते ही उनकी नीतियाँ वैश्वीकरण के अनुरूप हो जाती हैं। आर्थिक उदारी के दो दशकों का अनुभव यह है कि हम न तो उदारीकरण के मुखर समर्थक हैं और न विरोधी। इस अधूरेपन का फायदा या नुकसान भी अधूरा है।



सन 1991 में उदारीकरण की राह पकड़ने के ठीक पहले भारत सरकार ने यूनियन बैंक ऑफ स्विट्ज़रलैंड और बैंक ऑफ इंग्लैंड में 67 टन सोना गिरवी रखा था। हमारे सामने विदेशी मुद्रा का संकट था। जनवरी 1991 में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 1.2 अरब डॉलर था, जो जून आते-आते इसका आधा रह गया। आयात भुगतान के लिए तकरीबन तीन सप्ताह की मुद्रा हमारे पास थी। ऊपर से राजनीतिक अस्थिरता थी। प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की अल्पमत सरकार कांग्रेस के सहयोग पर टिकी थी। फौरी तौर पर अंतरऱाष्ट्रीय मुद्रा कोष से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लेना पड़ा और सोना गिरवी रखना पड़ा। आर्थिक उदारीकरण का वह रास्ता हमने मजबूरी में पकड़ा। न तब कोई गहरा विचार-विमर्श हुआ और न आज है।

उदारीकरण की राह पर चलने के फायदे अर्थ-व्यवस्था को मिले। इसी 18 नवम्बर को हमारे पास 308 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार था। नवम्बर 2009 में भारत ने इंटरनेशनल मोनीटरी फंड से 200 टन सोना खरीदा। इस खरीद का यों तो कोई खास अर्थ नहीं। पर भारत से संदर्भ में इसका प्रतीक रूप में महत्व था। हम यह भूलते नहीं थे कि 1991 में हमें सोना गिरबी रखना पड़ा था। अब आईएमएफ को गरीब देशों को कर्ज देने के लिए मुद्रा की ज़रूरत थी। हमने उस ज़रूरत को पूरा भी किया और अपने स्वर्ण भंडार को बढ़ाया। हमारी प्रति व्यक्ति औसत आय 1219 डॉलर है। परचेज़िंग पावर पैरिटी के आधार पर यह 3608 डॉलर है। इसमे औसतन 13 फीसदी की सालाना वृद्धि हो रही है। दुनिया की सबसे तेज़ गति से विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं में हमारा दूसरी स्थान है। सम्भावना इस बात की है कि अगले दो-तीन साल में हम चीन को पीछे करके विकास की दर में नम्बर एक पर आ जाएंगे।

बावजूद इस गुलाबी तस्वीर के इन दिनों हम एक द्वंद से गुजर रहे हैं। सन 2008 में अमेरिका और यूरोप की मंदी के दौर में भी हमारी अर्थव्यवस्था उसके दंश से बची रही। 2007-08 में हमारी जीडीपी ग्रोथ 9.2 प्रतिशत थी जो 2008-09 में 6.7 हो गई। इसके बाद अर्थव्यवस्था ने तेजी पकड़ी और 2009-10 में यह दर 7.4 प्रतिशत हो गई। इस साल उसे 9 पर लाने का इमकान था। वह अब गलत साबित हो रहा है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में सितम्बर के महीने में विकास दर 2.1 प्रतिशत पर आ गई। औद्योगिक उत्पादन की विकास दर पिछले बीस महीनों के सबसे निचले स्तर 1.9 फीसदी पर है। मॉर्गन स्टेनली ने अगस्त के महीने में भारत की रेटिंग 15 से घटाकर 16 कर दी। मूडीज़ ने अक्टूबर में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को डाउनग्रेड किया, फिर भारतीय बैंकिंग सिस्टम को निगेटिव कर दिया। डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत लगातार गिर रही है। पिछले कई महीनों से सेंसेक्स में गिरावट का रुख है। राजकोषीय घाटा अनुमान से ज्यादा होने का अंदेशा है।

अर्थ-व्यवस्था के इन संकेतकों से ज्यादा परेशान करने वाले वे संकेतक हैं जो बता रहे हैं कि विकास की गति कितनी भी बढ़ी हो भारत में असमानता बढ़ती जा रही है।

यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट में इस साल असमानता को भी इस बार एक कारक के रूप शामिल किया गया है। इस रपट के अनुसार यदि वैश्विक मानव विकास में से असमानता को घटाएं तो मानव विकास 22 फीसदी पीछे चला जाएगा। पर भारत में असमानता का स्तर वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा है। दुनिया के 169 देशों में भारत का स्थान 119 वाँ है। पर यदि असमानता का गणना करके भारत की मानव विकास दर निकालें तो उसमें 32 फीसदी की गिरावट हो जाएगी। इसका अर्थ यह कि आर्थिक विकास के साथ हमारा सामाजिक विकास नहीं हो रहा है। हमारी आर्थिक नीतियाँ समग्र विकास के बजाय एक तबके के विकास तक सीमित हो गईं हैं।

केन्द्र सरकार दोहरे दबाव में है। एक ओर कहा आर्थिक उदारीकरण के कार्यक्रम रुके हुए हैं। दूसरी ओर अर्थ-व्यवस्था मंदी की ओर बढ़ चली है। चुनाव के कारण राजनीतिक दलों की करनी और कथनी में भेद बढ़ता जा रहा है। इसका सबसे अच्छा नमूना है रिटेल में विदेशी निवेश के द्वारों का खुलना। अभी तक हम भूमि अधिग्रहण कानून तैयार नहीं कर पाए हैं। खाद्य सुरक्षा कानून भी अधर में है। दूसरी ओर आर्थिक उदारीकरण के तमाम कानून हवा में लटके हैं। हम न इधर हैं और न उधर हैं। करीब बीस साल बाद हालात फिर से 1991 जैसे हैं। फर्क इतना है कि अर्थ-व्यवस्था एक लम्बा रास्ता पार कर चुकी है। उसे एक ओर गति की ज़रूरत है और दूसरी ओर सामाजिक कल्याण, कमज़ोर तबकों की सुरक्षा, बेहतर गवर्नेंस और कुशलता की। इसमें अर्थ-नीति से ज्यादा राजनीति की भूमिका है।

जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित


1 comment:

  1. अच्छा विश्लेषण किया आपने.

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