हमारे देश में प्रेस की आज़ादी नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है। अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन की तरह प्रेस नाम की संस्था को मिले अधिकार से यह कुछ अलग है। पहली नज़र में यह अधिकार अपेक्षाकृत कमज़ोर लगता है, पर व्यावहारिक रूप से देखें तो जनता का अधिकार होने के नाते यह बेहद प्रभावशाली है। संविधान निर्माताओं ने इस अधिकार पर पाबंदियों के बारे में नहीं सोचा था। पर 1951 में हुए पहले संविधान संशोधन के माध्यम से इन स्वतंत्रताओं पर अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत युक्तियुक्त पाबंदियाँ भी लगाईं गईं। ये पाबंदियाँ अलग-अलग कानूनों के रूप में मौज़ूद हैं। भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ रिश्तों, लोक-व्यवस्था, शिष्टाचार और सदाचार, अश्लीलता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि और अपराध उद्दीपन को लेकर कानून बने हैं। इसी तरह पत्रकारों की हित-रक्षा का कानून वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट बना है। इन कानूनों को लागू करने में कोई दिक्कत नहीं तो दायरा लोकपाल का हो या उच्चतम न्यायालय का इससे फर्क क्या पड़ता है?
देश में मीडिया से जुड़े तमाम कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से इतर मामलों को लेकर भी बने हैं। अक्सर ईमानदार पत्रकारों को इन कानूनों के सहारे दबाव में लेने की कोशिश भी की जाती है। इसलिए इन कानूनों के दुरुपयोग की सम्भावनाओं को देखने और समझने की ज़रूरत भी है। पर यदि मीडिया से जुड़ी संस्था या व्यक्ति पर भ्रष्ट आचरण का आरोप लगे तो उसकी जाँच से घबराने की ज़रूरत भी नहीं है। मीडिया जब कारोबार के रूप में सामने आता है तब सामान्य कानून उसपर लागू होते हैं, पर कई बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कारण इन कानूनों में रियायत देनी होती है। मसलन यदि किसी तकनीक के आयात से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बल मिलता है तो व्यवस्था उसे समर्थन देगी। कई तरह की टैक्स रियायतें इसलिए मिलती हैं क्योंकि मीडिया व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का प्रतिनिधित्व करता है। चूंकि हमारे संविधान की मंशा व्यक्ति के अधिकारों तक सीमित थीं इसलिए सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं से ये संस्थागत अधिकार के रूप में भी स्पष्ट हो पाए। कोई कम्पनी नागरिक नहीं है, पर उसके शेयर होल्डर नागरिक हैं।
हाल में मीडिया के आचरण को लेकर कई तरह की बातें सामने आईं हैं। इसमें दो राय नहीं कि देश में साक्षरता बढ़ने के साथ-साथ सामान्य नागरिक की जानकारी और जागरूकता बढ़ाने में कॉरपोरेट मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बगैर कागज-स्याही और छपाई के यह काम सम्भव नहीं था। और इस काम में पूँजी लगती है। पूँजी के अपने नियम हैं। वह तब लगाई जाती है जब उसमें मुनाफे की सम्भावना हो। ऐसे में मीडिया से पहली उम्मीद यही रखनी चाहिए कि वह कारोबार के हितों को पहले देखेगा। और ऐसा करते वक्त वह पत्रकारिता के मूल्यों का ज़िक्र भी करेगा, क्योंकि उसकी साख वहीं से बनती है। यह एक व्यवस्थागत अंतर्विरोध है। यानी कारोबार पर अतिशय ज़ोर उसके पत्रकारीय मूल्यों की हत्या कर रहा है। पर इस दोष को लोकपाल का दायरा नहीं रोक पाएगा। इसका हल पाठक को और वैकल्पिक पत्रकारिता के पक्षधरों को देना है। हो सकता है इसका हल ढूँढने में सदियाँ लगें।
लोकपाल शुद्ध रूप से भ्रष्ट आचरण की जाँच के लिए है। यह सार्वजनिक भ्रष्ट आचरण जहाँ भी हो वह इसके दायरे में आना चाहिए। आज भी वह न्यायिक-प्रशासनिक जाँच के दायरे में है। वैसे ही जैसे सरकारी भ्रष्टाचार की जाँच की एक व्यवस्था है। पर उस व्यवस्था में छिद्र हैं। इसीलिए नई व्यवस्था सोची जा रही है। ज़रूरत यह समझने की है कि किस तरह की व्यवस्था का सुझाव दिया जा रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जीवन का उच्चतम मूल्य है। उसकी रक्षा होनी ही चाहिए। अपने आचरण तय करने का काम भी मीडिया का है। इससे किसी ने रोका नहीं है। हाल में ब्रॉडकास्टिंग मीडिया की एक संस्था ने ऐश्वर्य राय की संतान को लेकर जो आचार संहिता बनाई वह भी एक तरह की प्रि-सेसरशिप जैसी लगती थी। हम या तो भेड़िया धसान चाहते हैं या प्रि-सेसरशिप।
पत्रकारिता की आज़ादी को अब कई तरफ से खतरे हैं। एक माफिया और अपराधियों का, दूसरा सरकारों का और तीसरा खुद मीडिया के अपने कारोबार का। सवाल लोकपाल के होने या न होने का नहीं है। सवाल है कारोबार और पत्रकारिता को जुड़ने से बचाने का है। कारोबारी लोग पत्रकारिता की धज्जियाँ उड़ाने में चूकते नहीं हैं। और जब इन सवालों को लेकर सार्वजनिक रूप से चर्चा होती है तो वे पत्रकारीय मूल्यों की दुहाई देते हुए किसी बाहरी संस्था को दूर रखने की माँग उठाने लगते हैं। मीडिया की साख गिरती रही तो अखबार रंगीन कागजों के ढेर मात्र रह जाएंगे। महत्वपूर्ण है मीडिया की साख। प्रेस परिषद को ताकतवर बनाना हो या लोकपाल को जगाना या कोई और रास्ता हो। अब रास्ता चाहिए।
समाचार फॉर मीडिया में प्रकाशित
देश में मीडिया से जुड़े तमाम कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से इतर मामलों को लेकर भी बने हैं। अक्सर ईमानदार पत्रकारों को इन कानूनों के सहारे दबाव में लेने की कोशिश भी की जाती है। इसलिए इन कानूनों के दुरुपयोग की सम्भावनाओं को देखने और समझने की ज़रूरत भी है। पर यदि मीडिया से जुड़ी संस्था या व्यक्ति पर भ्रष्ट आचरण का आरोप लगे तो उसकी जाँच से घबराने की ज़रूरत भी नहीं है। मीडिया जब कारोबार के रूप में सामने आता है तब सामान्य कानून उसपर लागू होते हैं, पर कई बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कारण इन कानूनों में रियायत देनी होती है। मसलन यदि किसी तकनीक के आयात से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बल मिलता है तो व्यवस्था उसे समर्थन देगी। कई तरह की टैक्स रियायतें इसलिए मिलती हैं क्योंकि मीडिया व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का प्रतिनिधित्व करता है। चूंकि हमारे संविधान की मंशा व्यक्ति के अधिकारों तक सीमित थीं इसलिए सुप्रीम कोर्ट की व्याख्याओं से ये संस्थागत अधिकार के रूप में भी स्पष्ट हो पाए। कोई कम्पनी नागरिक नहीं है, पर उसके शेयर होल्डर नागरिक हैं।
हाल में मीडिया के आचरण को लेकर कई तरह की बातें सामने आईं हैं। इसमें दो राय नहीं कि देश में साक्षरता बढ़ने के साथ-साथ सामान्य नागरिक की जानकारी और जागरूकता बढ़ाने में कॉरपोरेट मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बगैर कागज-स्याही और छपाई के यह काम सम्भव नहीं था। और इस काम में पूँजी लगती है। पूँजी के अपने नियम हैं। वह तब लगाई जाती है जब उसमें मुनाफे की सम्भावना हो। ऐसे में मीडिया से पहली उम्मीद यही रखनी चाहिए कि वह कारोबार के हितों को पहले देखेगा। और ऐसा करते वक्त वह पत्रकारिता के मूल्यों का ज़िक्र भी करेगा, क्योंकि उसकी साख वहीं से बनती है। यह एक व्यवस्थागत अंतर्विरोध है। यानी कारोबार पर अतिशय ज़ोर उसके पत्रकारीय मूल्यों की हत्या कर रहा है। पर इस दोष को लोकपाल का दायरा नहीं रोक पाएगा। इसका हल पाठक को और वैकल्पिक पत्रकारिता के पक्षधरों को देना है। हो सकता है इसका हल ढूँढने में सदियाँ लगें।
लोकपाल शुद्ध रूप से भ्रष्ट आचरण की जाँच के लिए है। यह सार्वजनिक भ्रष्ट आचरण जहाँ भी हो वह इसके दायरे में आना चाहिए। आज भी वह न्यायिक-प्रशासनिक जाँच के दायरे में है। वैसे ही जैसे सरकारी भ्रष्टाचार की जाँच की एक व्यवस्था है। पर उस व्यवस्था में छिद्र हैं। इसीलिए नई व्यवस्था सोची जा रही है। ज़रूरत यह समझने की है कि किस तरह की व्यवस्था का सुझाव दिया जा रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जीवन का उच्चतम मूल्य है। उसकी रक्षा होनी ही चाहिए। अपने आचरण तय करने का काम भी मीडिया का है। इससे किसी ने रोका नहीं है। हाल में ब्रॉडकास्टिंग मीडिया की एक संस्था ने ऐश्वर्य राय की संतान को लेकर जो आचार संहिता बनाई वह भी एक तरह की प्रि-सेसरशिप जैसी लगती थी। हम या तो भेड़िया धसान चाहते हैं या प्रि-सेसरशिप।
पत्रकारिता की आज़ादी को अब कई तरफ से खतरे हैं। एक माफिया और अपराधियों का, दूसरा सरकारों का और तीसरा खुद मीडिया के अपने कारोबार का। सवाल लोकपाल के होने या न होने का नहीं है। सवाल है कारोबार और पत्रकारिता को जुड़ने से बचाने का है। कारोबारी लोग पत्रकारिता की धज्जियाँ उड़ाने में चूकते नहीं हैं। और जब इन सवालों को लेकर सार्वजनिक रूप से चर्चा होती है तो वे पत्रकारीय मूल्यों की दुहाई देते हुए किसी बाहरी संस्था को दूर रखने की माँग उठाने लगते हैं। मीडिया की साख गिरती रही तो अखबार रंगीन कागजों के ढेर मात्र रह जाएंगे। महत्वपूर्ण है मीडिया की साख। प्रेस परिषद को ताकतवर बनाना हो या लोकपाल को जगाना या कोई और रास्ता हो। अब रास्ता चाहिए।
समाचार फॉर मीडिया में प्रकाशित
भय और घबराहट अपनी आंतरिक दुर्बलताओं के कारण मष्तिष्क में आता है.
ReplyDeleteआत्म- नियंत्रण और ईमानदारी पूर्वक कर्तव्यों का निर्वहन करने वालों को
घबराहट कैसा ?भय कानूनों से प्रेस को नियंत्रित होने का नही अपने
रास्तों(....?) के बंद होने का है.
.......किन्तु प्रेस के उपर नियंत्रण स्व का ही होना चाहिए बाह्य नही .
....रास्ता तो मिलेगा ही ...