सन 2002 के गुजरात दंगे और उसके बाद की घटनाएं देश की न्याय-व्यवस्था और राजनीति के लिए कसौटी बन गई हैं। सितम्बर में जब उच्चतम न्यायालय ने इन दंगों में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की भूमिका को लेकर फैसला सुनाया तब उसके दो मतलब निकाले गए। एक यह कि उन्हें क्लीन चिट मिल गई। और दूसरे यह कि उनके खिलाफ निचली अदालत में मुकदमे का रास्ता साफ हो गया है। सच यह है कि उन्हें क्लीन चिट नहीं मिली थी। पर उस फैसले को पेश इसी तरह किया गया। न्याय प्रक्रिया में देरी और जाँच में रुकावटें इस किस्म के भ्रम पैदा करती हैं। सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में कुछ पुलिस अफसरों की गिरफ्तारी के बाद से पहिया घूमा है और कई तरह के मामले सामने आ रहे हैं, जिनसे व्यवस्था के प्रति आश्वस्ति बढ़ती है। इनमें सबसे ताज़ा मामला है इशरत जहां का।
15 जून 2004 की सुबह अहमदाबाद के एक बाहरी इलाके में चार नौजवानों की लाशें पड़ी थीं। पुलिस का दावा था कि ये लश्करे तैयबा के आतंकी थे, जो मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या करना चाहते थे। पुलिस की विशेष टीम ने उन्हें मार गिराया। मरने वालों में एक मुम्बई की छात्रा इशरत जहाँ थी। उसकी उम्र 19 साल थी। उस पर किसी किस्म का आपराधिक मामला कभी दर्ज नहीं हुआ।
सन 1993 के मुम्बई धमाकों के बाद से किसी व्यक्ति के नाम के साथ लश्करे तैयबा का नाम जुड़ जाने के बाद उसके पक्ष में बोल पाना सम्भव नहीं होता। इशरत जहाँ के साथ भी ऐसा ही हुआ। पर इसके समानांतर इस एनकाउंटर के फर्जी होने की शिकायतें भी बढ़ने लगीं। मुम्ब्रा में इशरत जहाँ के अंतिम संस्कार के वक्त 10 हजार से ज्यादा लोग शरीक हुए। महाराष्ट्र राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने और समाजवादी पार्टी की महाराष्ट्र शाखा के अध्यक्ष अबू आज़मी ने इस मामले की जाँच की माँग की।
इशरत जहाँ का एनकाउंटर जिस पुलिस टीम ने किया उसके प्रमुख डीआईजी डीजी वंजारा थे, जिन्हें बाद में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में गिरफ्तार किया गया। इशरत जहाँ मामले की न्यायिक जाँच अहमदाबाद के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमंग ने की। उन्होंने 7 सितम्बर 2009 को पेश अपनी रपट में इस एनकाउंटर को फर्जी बताया। उनके अनुसार पुलिस ने इन चार लोगों को तीन-चार दिन पहले मुम्बई में गिरफ्तार किया था। इस जाँच के अनुसार इनकी मौत की तारीख, समय और स्थान वही नहीं है जो पुलिस बता रही है। गुजरात पुलिस का दावा था कि इशरत और साथियों के बारे में जानकारी मुम्बई पुलिस ने दी, पर मुम्बई पुलिस ने इस बात से इनकार किया। बहरहाल गुजरात सरकार ने तमंग-जाँच को हाईकोर्ट में चुनौती दी। गुजरात हाईकोर्ट ने जाँच के लिए विशेष टीम बनाई, जिसके प्रमुख बदलते रहे। कुछ इच्छा से कुछ अनिच्छा से। अंततः यह बात अब अच्छी तरह साफ हो गई है कि इन चारों को पहले पकड़ा गया, फिर हत्या की गई और लाशें सड़क पर फेंक कर इसे एनकाउंटर बताया गया।
इशरत जहाँ एनकाउंटर में अगली कार्रवाई अब आगे जाँच की होगी। अदालत ने अभी तय नहीं किया है कि जाँच कौन सी एजेंसी करेगी। यह जाँच राज्य की पुलिस कर सकती है, राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) या सीबीआई भी। केन्द्र सरकार के वकील ने हाई कोर्ट से कहा है कि सीबीआई के पास बहुत ज्यादा काम है। उस पर बोझ डालना ठीक नहीं होगा। दूसरी ओर एनआईए का काम आतंकवादी गतिविधियों की जाँच करना है। अब इस मामले के दो पहलू हैं। पहला है इशरत जहाँ और तीन अन्य लोगों की हत्या, जो तकरीबन साबित है। दूसरी ओर पूर्व केन्द्रीय गृह सचिव जीके पिल्लै का कहना है कि इशरत जहाँ और उनके साथियों का लश्करे तैयबा से सम्बंध था। हालांकि वे यह मानते हैं कि ऐसा होने पर भी पुलिस को किसी की हत्या करने का अधिकार नहीं है। यदि सरकार इन्हें आतंकवाद से जुड़ा मानती है तो उसकी जाँच अलग होनी चाहिए। इसके पहले स्थानीय पुलिस इसकी जाँच कर चुकी है। बहरहाल एक रास्ता यह है कि जिस विशेष टीम ने अभी जाँच रपट दी है उसे ही आगे की जाँच सौंपी जाए। फिलहाल कम से कम 21 व्यक्तियों पर इस हत्या की साजिश का आरोप है। इनमें चार आईपीएस अधिकारी हैं। डीएस वंजारा इनमें प्रमुख हैं।
इस मामले के दो-तीन पहलू हैं। सबसे महत्वपूर्ण है फर्जी एनकाउंटर। एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रपट के अनुसार 1993 से 2008 के बीच भारत में पुलिस के साथ 2560 मौतें हुईं। इनमें से 1224 मौतें फर्जी एनकाउंटरों में थीं। सत्तर के दशक में नक्सलियों के खिलाफ पुलिस ने इस हथियार का इस्तेमाल शुरू किया था। हजारों नौजवान इसमें मारे गए। मुम्बई पुलिस ने अपराधी गिरोहों के सफे के लिए इस हथियार का प्रयोग किया। सभ्य समाज के लिए यह प्रथा कलंक है। केवल अपराध में लिप्त होने की बिना पर किसी की हत्या करने का अधिकार पुलिस को नहीं है।
पुलिस की ओर से अक्सर कहा जाता है कि देश की न्यायिक व्यवस्था इतनी सुस्त है कि अपराधी बचे रहते हैं। पर इसी कारण से किसी को मौत की सजा नहीं दी जा सकती। इसके लिए मानवाधिकार आयोग को पुलिस आचरण के मानक बनाने चाहिए। साथ ही पुलिस को कड़े निर्देश दिए जाने चाहिए कि वह इन हरकतों से बाज आए। फर्जी एनकाउंटरों में लिप्त पुलिस अफसरों पर कार्रवाई के मामले सुनाई नहीं पड़ते। सोहराबुद्दीन मामले में तथ्य इतना खुलकर बोल रहे थे कि जिम्मेदार पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई हो पाई।
इशरत जहाँ मामले में 21 पुलिसकर्मियों का एक साजिश में शामिल होना बताता है कि यह रोग कितना गहरा है। यह केवल गुजरात पुलिस तक सीमित नहीं समूची भारतीय पुलिस व्यवस्था का रोग है। इस मामले में एसआईटी ने जो रिपोर्ट दी है उसे अदालत ने सार्वजनिक नहीं किया है। अलबत्ता इस बात का पता लग चुका होगा कि उन्हें किसने, कब और कहाँ पकड़ा और उनकी हत्या कब की गई होगी। जब इनकी हत्या की गई तब वे निर्दोष थे, क्योंकि देश की किसी अदालत ने उन्हें दोषी करार नहीं दिया था। पर यदि वे लश्करे तैयबा से जुड़े थे तो उनका जीवित रहना ज़रूरी था। कोई जानकारी देने के लिए अब वे जीवित नहीं हैं। हत्या के अलावा यह दूसरा अपराध है।
बहरहाल इस मामले का दूसरा पहलू है मुस्लिम समाज पर इसके असर का। एक दौर में फर्जी एनकाउंटर बंगाल, आंध्र प्रदेश और केरल में होते थे। यह नक्सली आंदोलन का दौर था। पंजाब, कश्मीर, मिजोरम और मणिपुर में भी इस किस्म की शिकायतें मिलीं। इधर आतंकी गिरोहों से जुड़े होने के शक में मुसलमानों को प्रताड़ना सहनी पड़ती है। ऐसी शिकायतें अक्सर मिलती हैं कि फलां को उठा लिया गया। हाल में 2006 के मालेगाँव धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार सात व्यक्तियों की जमानत के बाद यह सवाल खास तौर से उभरा है। इन व्यक्तियों की जमानत के बाद रिहाई हो गई, पर उस मानसिक यातना का क्या होगा, जो वे झेल चुके हैं? एनआईए ने जमानत का विरोध नहीं किया, पर एटीएस और सीबीआई जाँच करने वालों का क्या होगा, जिनकी रपट के आधार पर ये पकड़े गए थे? स्वामी असीमानन्द ने बयान न दिया होता तो क्या हमारे निष्कर्ष अलग नहीं होते? क्या ऐसी जाँच व्यवस्था के सहारे हम आतंकी मामलों की तह तक जा सकेंगे?
19 सितम्बर 2008 को दिल्ली के बटला हाउस एनकाउंटर में पुलिस की भूमिका को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने क्लीन चिट दी। अदालत ने भी इस जाँच को स्वीकार कर लिया। पर इसकी न्यायिक जाँच की माँग आज भी कायम है। आमतौर पर एनकाउंटर की मजिस्ट्रेटी जाँच होती है, पर उससे कुछ निकलता नहीं। इशरत जहाँ के मामले में कुछ मानवाधिकार समूहों का लगातार दबाव बना रहा। गुजरात राजनीतिक कारणों से हमेशा खबरों में रहता है। उसके विकास या आर्थिक प्रगति से किसी को ईर्ष्या नहीं पर मानवाधिकार के ऐसे मामलों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। बहरहाल कसौटी पर है हमारी व्यवस्था।
15 जून 2004 की सुबह अहमदाबाद के एक बाहरी इलाके में चार नौजवानों की लाशें पड़ी थीं। पुलिस का दावा था कि ये लश्करे तैयबा के आतंकी थे, जो मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या करना चाहते थे। पुलिस की विशेष टीम ने उन्हें मार गिराया। मरने वालों में एक मुम्बई की छात्रा इशरत जहाँ थी। उसकी उम्र 19 साल थी। उस पर किसी किस्म का आपराधिक मामला कभी दर्ज नहीं हुआ।
सन 1993 के मुम्बई धमाकों के बाद से किसी व्यक्ति के नाम के साथ लश्करे तैयबा का नाम जुड़ जाने के बाद उसके पक्ष में बोल पाना सम्भव नहीं होता। इशरत जहाँ के साथ भी ऐसा ही हुआ। पर इसके समानांतर इस एनकाउंटर के फर्जी होने की शिकायतें भी बढ़ने लगीं। मुम्ब्रा में इशरत जहाँ के अंतिम संस्कार के वक्त 10 हजार से ज्यादा लोग शरीक हुए। महाराष्ट्र राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने और समाजवादी पार्टी की महाराष्ट्र शाखा के अध्यक्ष अबू आज़मी ने इस मामले की जाँच की माँग की।
इशरत जहाँ का एनकाउंटर जिस पुलिस टीम ने किया उसके प्रमुख डीआईजी डीजी वंजारा थे, जिन्हें बाद में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में गिरफ्तार किया गया। इशरत जहाँ मामले की न्यायिक जाँच अहमदाबाद के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमंग ने की। उन्होंने 7 सितम्बर 2009 को पेश अपनी रपट में इस एनकाउंटर को फर्जी बताया। उनके अनुसार पुलिस ने इन चार लोगों को तीन-चार दिन पहले मुम्बई में गिरफ्तार किया था। इस जाँच के अनुसार इनकी मौत की तारीख, समय और स्थान वही नहीं है जो पुलिस बता रही है। गुजरात पुलिस का दावा था कि इशरत और साथियों के बारे में जानकारी मुम्बई पुलिस ने दी, पर मुम्बई पुलिस ने इस बात से इनकार किया। बहरहाल गुजरात सरकार ने तमंग-जाँच को हाईकोर्ट में चुनौती दी। गुजरात हाईकोर्ट ने जाँच के लिए विशेष टीम बनाई, जिसके प्रमुख बदलते रहे। कुछ इच्छा से कुछ अनिच्छा से। अंततः यह बात अब अच्छी तरह साफ हो गई है कि इन चारों को पहले पकड़ा गया, फिर हत्या की गई और लाशें सड़क पर फेंक कर इसे एनकाउंटर बताया गया।
इशरत जहाँ एनकाउंटर में अगली कार्रवाई अब आगे जाँच की होगी। अदालत ने अभी तय नहीं किया है कि जाँच कौन सी एजेंसी करेगी। यह जाँच राज्य की पुलिस कर सकती है, राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) या सीबीआई भी। केन्द्र सरकार के वकील ने हाई कोर्ट से कहा है कि सीबीआई के पास बहुत ज्यादा काम है। उस पर बोझ डालना ठीक नहीं होगा। दूसरी ओर एनआईए का काम आतंकवादी गतिविधियों की जाँच करना है। अब इस मामले के दो पहलू हैं। पहला है इशरत जहाँ और तीन अन्य लोगों की हत्या, जो तकरीबन साबित है। दूसरी ओर पूर्व केन्द्रीय गृह सचिव जीके पिल्लै का कहना है कि इशरत जहाँ और उनके साथियों का लश्करे तैयबा से सम्बंध था। हालांकि वे यह मानते हैं कि ऐसा होने पर भी पुलिस को किसी की हत्या करने का अधिकार नहीं है। यदि सरकार इन्हें आतंकवाद से जुड़ा मानती है तो उसकी जाँच अलग होनी चाहिए। इसके पहले स्थानीय पुलिस इसकी जाँच कर चुकी है। बहरहाल एक रास्ता यह है कि जिस विशेष टीम ने अभी जाँच रपट दी है उसे ही आगे की जाँच सौंपी जाए। फिलहाल कम से कम 21 व्यक्तियों पर इस हत्या की साजिश का आरोप है। इनमें चार आईपीएस अधिकारी हैं। डीएस वंजारा इनमें प्रमुख हैं।
इस मामले के दो-तीन पहलू हैं। सबसे महत्वपूर्ण है फर्जी एनकाउंटर। एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रपट के अनुसार 1993 से 2008 के बीच भारत में पुलिस के साथ 2560 मौतें हुईं। इनमें से 1224 मौतें फर्जी एनकाउंटरों में थीं। सत्तर के दशक में नक्सलियों के खिलाफ पुलिस ने इस हथियार का इस्तेमाल शुरू किया था। हजारों नौजवान इसमें मारे गए। मुम्बई पुलिस ने अपराधी गिरोहों के सफे के लिए इस हथियार का प्रयोग किया। सभ्य समाज के लिए यह प्रथा कलंक है। केवल अपराध में लिप्त होने की बिना पर किसी की हत्या करने का अधिकार पुलिस को नहीं है।
पुलिस की ओर से अक्सर कहा जाता है कि देश की न्यायिक व्यवस्था इतनी सुस्त है कि अपराधी बचे रहते हैं। पर इसी कारण से किसी को मौत की सजा नहीं दी जा सकती। इसके लिए मानवाधिकार आयोग को पुलिस आचरण के मानक बनाने चाहिए। साथ ही पुलिस को कड़े निर्देश दिए जाने चाहिए कि वह इन हरकतों से बाज आए। फर्जी एनकाउंटरों में लिप्त पुलिस अफसरों पर कार्रवाई के मामले सुनाई नहीं पड़ते। सोहराबुद्दीन मामले में तथ्य इतना खुलकर बोल रहे थे कि जिम्मेदार पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई हो पाई।
इशरत जहाँ मामले में 21 पुलिसकर्मियों का एक साजिश में शामिल होना बताता है कि यह रोग कितना गहरा है। यह केवल गुजरात पुलिस तक सीमित नहीं समूची भारतीय पुलिस व्यवस्था का रोग है। इस मामले में एसआईटी ने जो रिपोर्ट दी है उसे अदालत ने सार्वजनिक नहीं किया है। अलबत्ता इस बात का पता लग चुका होगा कि उन्हें किसने, कब और कहाँ पकड़ा और उनकी हत्या कब की गई होगी। जब इनकी हत्या की गई तब वे निर्दोष थे, क्योंकि देश की किसी अदालत ने उन्हें दोषी करार नहीं दिया था। पर यदि वे लश्करे तैयबा से जुड़े थे तो उनका जीवित रहना ज़रूरी था। कोई जानकारी देने के लिए अब वे जीवित नहीं हैं। हत्या के अलावा यह दूसरा अपराध है।
बहरहाल इस मामले का दूसरा पहलू है मुस्लिम समाज पर इसके असर का। एक दौर में फर्जी एनकाउंटर बंगाल, आंध्र प्रदेश और केरल में होते थे। यह नक्सली आंदोलन का दौर था। पंजाब, कश्मीर, मिजोरम और मणिपुर में भी इस किस्म की शिकायतें मिलीं। इधर आतंकी गिरोहों से जुड़े होने के शक में मुसलमानों को प्रताड़ना सहनी पड़ती है। ऐसी शिकायतें अक्सर मिलती हैं कि फलां को उठा लिया गया। हाल में 2006 के मालेगाँव धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार सात व्यक्तियों की जमानत के बाद यह सवाल खास तौर से उभरा है। इन व्यक्तियों की जमानत के बाद रिहाई हो गई, पर उस मानसिक यातना का क्या होगा, जो वे झेल चुके हैं? एनआईए ने जमानत का विरोध नहीं किया, पर एटीएस और सीबीआई जाँच करने वालों का क्या होगा, जिनकी रपट के आधार पर ये पकड़े गए थे? स्वामी असीमानन्द ने बयान न दिया होता तो क्या हमारे निष्कर्ष अलग नहीं होते? क्या ऐसी जाँच व्यवस्था के सहारे हम आतंकी मामलों की तह तक जा सकेंगे?
19 सितम्बर 2008 को दिल्ली के बटला हाउस एनकाउंटर में पुलिस की भूमिका को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने क्लीन चिट दी। अदालत ने भी इस जाँच को स्वीकार कर लिया। पर इसकी न्यायिक जाँच की माँग आज भी कायम है। आमतौर पर एनकाउंटर की मजिस्ट्रेटी जाँच होती है, पर उससे कुछ निकलता नहीं। इशरत जहाँ के मामले में कुछ मानवाधिकार समूहों का लगातार दबाव बना रहा। गुजरात राजनीतिक कारणों से हमेशा खबरों में रहता है। उसके विकास या आर्थिक प्रगति से किसी को ईर्ष्या नहीं पर मानवाधिकार के ऐसे मामलों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। बहरहाल कसौटी पर है हमारी व्यवस्था।
nice article Sir.
ReplyDeleteWonderfully written article sir. Great insight..
ReplyDeleteकसौटी पर व्यवस्था रहे या देश किसे फर्क पड़ता है?
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