दो रोज़ बाद इमर्जेंसी के 38 साल पूरे हो जाएंगे। उस दौर को हम कड़वे अनुभव के रूप में याद करते हैं। पर चाहें
तो उसे एक प्रयोग के नाम से याद कर सकते हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का एक पड़ाव।
वह तानाशाही थी, जिसे लोकतांत्रिक अधिकार के सहारे लागू किया गया था और जिसका जिसका
अंत लोकतांत्रिक तरीके से हुआ। इंदिरा गांधी चुनाव हारकर हटीं थीं। या तो वे लोकतांत्रिक
नेता थीं या उनकी तानाशाही मनोकामनाएं इतनी ताकतवर नहीं थी कि इस देश को काबू में कर
पातीं। इतिहास का यह पन्ना स्याह है तो सफेद भी है। इमर्जेंसी के दौरान भारतीय और ब्रिटिश
संसदीय प्रणाली का अंतर स्पष्ट हुआ। हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं की ताकत और उनकी प्रतिबद्धता भी उसी आग
में तपकर खरी साबित हुई थी। भारत की खासियत है कि जब भी परीक्षा की घड़ी आती है वह
जागता है।
सन 1975 के जून महीने में दो
बड़ी घटनाएं हुईं। दोनों एक-दूसरे से जुड़ी थीं। 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उस
वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली से लोकसभा चुनाव को खारिज कर दिया।
इसकी परिणति थी 25 जून को इमर्जेंसी की घोषणा। उस दौर ने हमें कुछ सबक दिए थे। लोकतांत्रिक
प्रतिरोध किस प्रकार हो। स्वतंत्रता कितनी हो और उसका तरीका क्या होगा। और यह भी कि
उसपर बंदिशें किस प्रकार की हों। इन बंदिशों से बचने का रास्ता क्या होगा वगैरह। यह
इमर्जेंसी का सबक था कि 1971 में जीत का रिकॉर्ड कायम करने वाली कांग्रेस सरकार
1977ने 1977 में हार का रिकॉर्ड बनाया। सन 1977 के पहले 1967 और 1957 ने भी कुछ प्रयोग किए
थे। 1957 में देश में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी। पश्चिम के विश्लेषकों
के लिए 1957 का वह प्रयोग अनोखा था। चुनाव जीतकर कोई कम्युनिस्ट सरकार कैसे बन सकती
है? और 1959 में जब वह सरकार बर्खास्त की गई तो वह दूसरा
अजूबा था। दोनों प्रयोग शुद्ध भारतीय थे। इसके बाद 1967 में गैर-कांग्रेसवाद की दूसरी
लहर आई जिसने गठबंधन की राजनीति को जन्म दिया और जिसकी शक्ल आज भी पूरी तरह साफ नहीं
हो पाई है।