Thursday, February 13, 2025

हिंदी की वर्तनी

कुछ साल पहले मुझसे एक मित्र ने कहा, मॉनसून क्यों, मानसून क्यों नहीं? दक्षिण भारतीय भाषाओं में और अंग्रेज़ी सहित अनेक विदेशी भाषाओं में ओ और औ के बीच में एक ध्वनि और होती है। ऐसा ही ए और ऐ के बीच है। Call को देवनागरी में काल लिखना अटपटा है। देवनागरी ध्वन्यात्मक लिपि है तो हमें अधिकाधिक ध्वनियों को उसी रूप में लिखना चाहिए। इसलिए वृत्तमुखी ओ को ऑ लिखते हैं। हिंदी के अलग-अलग क्षेत्रों में औ और ऐ को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है। मेरे विचार से बाल और बॉल को अलग-अलग ढंग से लिखना बेहतर होगा।

बात औ या ऑ की नहीं। बात मानकीकरण की है। हिंदी का जहाँ भी प्रयोग है वहाँ की प्रकृति और संदर्भ के साथ कुछ मानक होने ही चाहिए। मीडिया की भाषा को सरल रखने का दबाव है, पर सरलता और मानकीकरण का कोई बैर नहीं है। हिंदी के कुछ अखबार अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। उनके पाठक को वही अच्छा लगता है, तब ठीक है। पर वे ‘टारगेट’ लिखेंगे या ‘टार्गेट’ यह भी तय करना होगा। प्रफेशनल होगा या प्रोफेशनल? वीकल होगा, वेईकल या ह्वीकल? 

ऐसा मैं हिंदी के एक अखबार में प्रकाशित प्रयोगों को देखने के बाद लिख रहा हूँ। आसान भाषा बाज़ार की ज़रूरत है, सुसंगत भाषा भी उसी बाज़ार की ज़रूरत है। सारी दुनिया की अंग्रेज़ी भी एक सी नहीं है, पर एपी या इकोनॉमिस्ट की स्टाइल शीट से पता लगता है कि संस्थान की शैली क्या है। यह शैली सिर्फ भाषा-विचार नहीं है। इसमें अपने मंतव्य को प्रकट करने के रास्ते भी बताए जाते हैं। 

हिंदी के अखबारों का विस्तार भले ही अब थम रहा हो, पर भाषा का तो हो ही रहा है। क्षेत्र-विस्तार के बाद भाषा-प्रयोगों में टकराहट भी होती है। जनपद का यूपी में अर्थ कुछ है, एमपी में कुछ और। राजस्थान में जिसे पुलिया कहते हैं वह यूपी में पुल होता है। ऐसा होने पर क्या करें, यह भी मानक का विषय है। मानकों का निर्धारण भी स्थिर वस्तु नहीं है, बल्कि गतिशील है। आज नहीं तो कल हिंदी का निरंतर बढ़ता प्रयोग हमें बाध्य करेगा कि मानकीकरण के रास्ते खोजें।

हिंदी में ‘शिकागो मैनुअल ऑफ स्टाइल’ जैसी कोई गाइड नहीं है। हिंदी के राजभाषा बन जाने के बाद भारत सरकार पर इस भाषा को सजाने-सँवारने की ज़िम्मेदारी भी आ गई। केंद्रीय भाषा निदेशालय हिंदी से जुड़े मामलों पर काम करता है। इनमें हिंदी की वर्तनी निर्धारित करने का काम भी शामिल है। कुछ समय पहले तक मैं हिंदी को ‘हिन्दी’ लिखता था, पर इस वर्तनी का अनुपालन करते हुए अब हिंदी लिखता हूँ। मेरी निजी राय का अब कोई मतलब नहीं है, क्योंकि भाषा के मामले में आमराय ज्यादा महत्वपूर्ण है।  

केंद्रीय भाषा निदेशालय की वर्तनी को मैं अपने ऊपर तो लागू कर सकता हूँ, पर मुझे यह देखकर अफसोस होता है कि बहुत से सरकारी संस्थान भी उसे स्वीकार नहीं करते हैं। आप एनसीईआरटी की हिंदी पाठ्य-पुस्तकों या पत्र सूचना कार्यालय की विज्ञप्तियों में मानक हिंदी खोजेंगे, तब वह नहीं मिलेगी। तमाम सरकारी संस्थानों में हिंदी अधिकारी हैं, पर पता नहीं उनसे क्या काम कराया जाता है?

हिंदी मीडिया का विस्तार जिस तेजी से हुआ है उस तेजी से उसका गुणात्मक नियमन नहीं हो पाया। एक से सौ तक की संख्याओं को हम कई तरह से लिखते हैं। मसलन सत्रह, सत्तरह, सतरह, सत्रा या अड़तालीस, अड़तालिस, अठतालिस वगैरह। एक विचार है कि एक से नौ तक संख्याएं शब्दों में फिर अंकों में लिखें। तारीखें अंकों में ही लिखें। प्रयोग में ऐसा नहीं हो पाता। प्रयोग करने वाले और इस प्रयोग को जाँचने वाले या तो एकमत नहीं हैं या इसके जानकार नहीं हैं। 

देशों के नाम, शहरों के नाम यहाँ तक कि व्यक्तियों के नाम भी अलग-अलग ढंग से लिखे जाते हैं। इसी तरह उर्दू या विदेशी शब्दों को लिखने के लिए नुक्तों का प्रयोग है। हिंदी के परंपरागत विद्वान नुक्तों को लगाने के पक्ष में नहीं थे। उनके विचार से हिंदी की प्रकृति शब्दों को अपने तरीके से बोलने की है। इधर अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग धुआँधार बढ़ा है। अरबी-फारसी शब्दों में नुक्ते लगाने में एक खतरा यह है कि ग़लत लग गया तो क्या होगा? वहाँ ज़ंग और जंग में फर्क होता है। 

हिंदी में रेफ लगाने में अक्सर गलतियाँ होतीं हैं। आशीर्वाद को आप काफी जगह आर्शीवाद पढ़ेंगे और मॉडर्न को मॉर्डन। मनश्चक्षु, भक्ष्याभक्ष्य, सुरक्षण, प्रत्यक्षीकरण जैसे क्ष आधारित शब्द लिखने वाले गलतियाँ करते हैं। इनमें से काफी शब्दों का इस्तेमाल हम करते ही नहीं, पर क्ष को फेंका भी नहीं जा सकता। लोग इच्छा को इक्षा, कक्षा को कच्छा लिखते हैं। क्षात्र और छात्र का फर्क नहीं कर पाते। ऐसा ही ण के साथ है। इसमें ड़ घुस जाता है। 

लिंग की गड़बड़ियाँ भी हैं। दही, ट्रक, सड़क, स्टेशन, लालटेन, सिगरेट, मौसम, चम्मच, प्याज, पतंग, न्याय-पीठ स्त्रीलिंग हैं या पुर्लिंग? कहीं हाथी आता है और कहीं आती है। सीताफल, कद्दू, कासीफल, घीया, लौकी, तोरी, तुरई जैसे सब्जियों-फलों के नाम अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग हैं। यह सूची काफी बड़ी है। हाल में खेल, बिजनेस और साइंस के तमाम नए शब्द आए हैं। उन्हें किस तरह लिखें इसे लेकर भ्रम रहता है।

मानक स्थिर करने में मेरा एक अनुभव वैचारिक टकराव का है। कुछ लोग मानते हैं कि हमें हर हाल में अपने नए शब्द बनाने चाहिए। जैसे टेलीफोन के लिए दूरभाष। कुछ लोग मानते हैं कि टेलीफोन चलने दीजिए। चल भी रहा है। इंटरनेट की एक साइट है अर्बन डिक्शनरी डॉट कॉम। इसपर आप जाएं तो हर रोज़ अंग्रेज़ी के अनेक नए शब्दों से आपका परिचय होगा। ये प्रयोग किसी ने अधिकृत नहीं किए हैं। पत्रकार और लेखक चाहें तो अनेक नए शब्द गढ़ सकते हैं। 


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