Tuesday, August 17, 2021

अफगान सेना ने इतनी आसानी से हार क्यों मानी?


पिछले महीने 8 जुलाई को एक अमेरिकी रिपोर्टर ने राष्ट्रपति जो बाइडेन से पूछा, क्या तालिबान का आना तय है? इसपर उन्होंने जवाब दिया, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। अफगानिस्तान के पास तीन लाख बहुत अच्छी तरह प्रशिक्षित और हथियारों से लैस सैनिक हैं। उनकी यह बात करीब एक महीने बाद न केवल पूरी तरह गलत साबित हुई, बल्कि इस तरह समर्पण दुनिया के सैनिक इतिहास की विस्मयकारी घटनाओं में से एक के रूप में दर्ज की जाएगी।  

अमेरिकी थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के विशेषज्ञ मैक्स बूट ने अपने अपने लेख में सवाल किया है कि अमेरिका सरकार ने करीब 83 अरब डॉलर खर्च करके जिस सेना को खड़ा किया था, वह ताश के पत्तों की तरह बिखर क्यों गई? उसने आगे बढ़ते तालिबानियों को रोका क्यों नहीं, उनसे लड़ाई क्यों नहीं लड़ी?

भारी हतोत्साह

बूट ने लिखा है कि इसका जवाब नेपोलियन बोनापार्ट की इस उक्ति में छिपा है, युद्ध में नैतिक और भौतिक के बीच का मुकाबला दस से एक का होता है। पिछले बीस साल में अफगान सेना ने एयर-पावर, इंटेलिजेंस, लॉजिस्टिक्स, प्लानिंग और दूसरे महत्वपूर्ण मामलों में अमेरिकी समर्थन के सहारे काम करना ही सीखा था और अमेरिकी सेना की वापसी के फैसले के कारण वह बुरी तरह हतोत्साहित थी। अफगान स्पेशल फोर्स के एक ऑफिसर ने वॉशिंगटन पोस्ट को बताया कि जब फरवरी 2020 में डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने तालिबान के साथ सेना वापस बुलाने के समझौते पर दस्तखत किए थे, तब अफगानिस्तान के अनेक लोगों के मान लिया कि अब अंत हो रहा है और अफगान सेना को विफल होने के लिए अमेरिका हमारे हाथों से अपना दामन छुड़ा रहा है।  

राष्ट्रपति ग़नी को उम्मीद थी कि राष्ट्रपति जो बाइडेन कुछ भरोसा पैदा करेंगे, पर अप्रेल में उन्होंने घोषणा की कि बाकी बचे तीन हजार अमेरिकी सैनिक 11 सितम्बर, 2021 तक अफगानिस्तान से चले जाएंगे। वे सैनिक ही नहीं गए, उनके साथ सहयोगी देशों के सैनिक और अठारह हजार ठेके के कर्मी भी चले गए, जिनसे अफगान सेना हवाई कार्रवाई और दूसरे लॉजिस्टिक्स में मदद लेती थी। हाल के महीनों में अफगान सेना देश के दूर-दराज में फैली चौकियों तक खाद्य सामग्री और गोला-बारूद जैसी जरूरी चीजें भी नहीं पहुँचा पा रही थी। ऐसा नहीं कि उसने लड़ा नहीं। कुछ यूनिटों ने, खासतौर से इलीट कमांडो दस्तों ने अंतिम क्षणों तक लड़ा। पर चूंकि कहानी साफ दिखाई पड़ने लगी थी, इसलिए उन्होंने तालिबान के साथ समझौता करके समर्पण करना उचित समझा और निरुद्देश्य जान देने के बजाय बीच से हट जाने में ही भलाई समझी। अफगान सेना को दोष देने के बजाय देखना यह भी चाहिए कि पिछले बीस साल में 60 हजार से ज्यादा अफगान सैनिकों ने इस लड़ाई में जान गँवाई है।

अफगानिस्तान के अभियान ने अमेरिकी सेना की गलतियों को भी रेखांकित किया है। इस इलाके में शिक्षा की कमी, भाषा और संस्कृति से अपरिचय और सैनिकों से ज्यादा पुलिस को प्रशिक्षण देने में आई खामियाँ सामने आई हैं। अमेरिकी सेना ने उन्हें बहुत ज्यादा तकनीकी जानकारी दी, जबकि लॉजिस्टिक्स, प्लानिंग, ट्रेनिंग तथा कमांड एंड कंट्रोल जैसी बातों की उपेक्षा कर दी, जो किसी सेना के लिए जरूरी हैं। दुनिया के इस निर्धनतम क्षेत्र में शिक्षा की कमी के अलावा गरीबी भी एक बड़ी समस्या है, जिसकी देन है भ्रष्टाचार। कंधार के एक पुलिस अधिकारी ने हाल में न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया कि हम भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं।

भ्रष्टाचार का मतलब एक यह भी है कि बाइडेन ने अफगान सेना की जो संख्या बताई, शायद वह भी बढ़ा चढ़ाकर थी। वॉशिंगटन पोस्ट के अफगान पेपर्स प्रोजेक्ट में सेना और पुलिसकर्मियों की संख्या 3,52,000 दर्ज है, जबकि अफगान सरकार ने 2,54,000 की पुष्टि की। कमांडरों ने फर्जी सैनिकों की भरती कर ली और उन सैनिकों के हिस्से का वेतन मिल-बाँटकर खा लिया। इस भ्रष्टाचार को रोकने में अमेरिका ने भी दिलचस्पी नहीं दिखाई।

बहुत से विशेषज्ञ अब अमेरिकी सेना की इस बात के लिए भी आलोचना कर रहे हैं कि उसने अफगान सेना तैयार करते समय अपनी छवि को सामने रखा। यानी कि तकनीक और एयर-पावर पर आश्रित सेना, जबकि अफगान सेना के लिए यह मुश्किल था। इन सब बातों के अलावा अफगानिस्तान जैसे विस्तृत देश की रक्षा के लिए उसकी सेना का आकार बहुत छोटा था। बहरहाल अमेरिकी सेना, उससे जुड़े करीब 18,000 ठेके के कर्मचारी और आठ हजार यूरोपीय सैनिक जैसे ही हटे अफगान सेना को लगा, जैसे वह निहत्थी रह गई है। अफगान सेना को दोष देना भी ठीक नहीं होगा, उसे हतोत्साहित करने वाले हालात भी पैदा हो गए थे।

 

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (18-08-2021) को चर्चा मंच   "माँ मेरे आस-पास रहती है"   (चर्चा अंक-४१६०)  पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

    ReplyDelete
  2. मुझे तो हैलीकॉप्टर से भागता नेता और ईयरपोर्ट पर छूट गए नोटों के बेग दिख रहे है हम सब जगह है कितना भी छुपा ले नाराज ना होइएगा :)

    ReplyDelete
  3. मुझे तो यह खबर प्रचार का हिस्सा लगती है। इस खबर का स्रोत रूसी दूसतावास की प्रवक्ता है। यह सही भी हो, तो इसमें गलत क्या है? वह भागेगा, तो कोशिश यही होगी कि अपनी ज्यादा से ज्यादा सम्पत्ति लेकर जाए। यदि उसे भविष्य में प्रतिरोध करना है, तो उसके लिए भी साधन चाहिए। ये बातें सामान्य जनता को प्रभावित जरूर करती हैं और इनके सहारे ग़नी को बेईमान साबित किया जा सकता है। सामान्यतः यह आरोप दुनिया के किसी भी राष्ट्राध्यक्ष पर लगाया जा सकता है। मान लिया वह निहायत बेईमान है, फिर भी इस समय का संदर्भ तालिबान की बढ़त है। ऐसी खबरें उस तरफ से ध्यान हटाने के लिए फैलाई भी जाती हैं। भारत में एक बड़ा तबका तालिबान-समर्थक है। यह पहला मौका नहीं है, जब इस तबके ने अपेक्षाकृत कट्टरपंथी प्रवृत्ति का समर्थन किया है। इसके पहले पिछली सदी में भारत के उन्होंने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया, अतातुर्क के आधुनिक सुधारों का नहीं।

    ReplyDelete