Sunday, August 1, 2021

विरोधी-एकता का गुब्बारा


विरोधी-एकता का गुब्बारा फिर से फूल रहा है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सफलता इसका प्रस्थान बिंदु है और ममता बनर्जी, शरद पवार और राहुल गांधी की महत्वाकांक्षाएं बुनियाद में। तीनों को जोड़ रहे हैं प्रशांत किशोर। कांग्रेस पार्टी भी प्रशांत किशोर की सलाह पर नई रणनीति बना रही है। ममता बनर्जी एक्शन पर जोर देती हैं। उनके पास बंगाल में वाममोर्चे को उखाड़ फेंकने का अनुभव है। क्या वह रणनीति पूरे देश में सफल होगी? सवाल है कि रणनीति के केंद्र में कौन है और परिधि में कौन? कौन है इसका सूत्रधार?

मोदी को हटाना है?

विरोधी-एकता का राजनीतिक एजेंडा क्या है? मोदी को हटाना? कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली ने कहा है कि केवल मोदी-विरोधी एजेंडा कारगर नहीं होगा। व्यक्ति विशेष का विरोध किसी भी राजनीतिक मोर्चे को आगे लेकर नहीं जाएगा। एक जमाने में विरोधी-दलों ने इंदिरा गांधी के खिलाफ यही किया था। वे कामयाब नहीं हुए। मोइली का कहना है कि हमें साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाना होगा। हम चर्चा यह कर रहे हैं कि कौन इसका नेता बनेगा, किस राजनीतिक पार्टी को इसकी अगुवाई करनी चाहिए तो, यह कामयाब नहीं होगा।

मोदी की सफलता व्यक्ति-केंद्रित है या विचार-केंद्रित? कांग्रेस, ममता और शरद पवार का राजनीतिक-नैरेटिव क्या है? व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या सामूहिक चेतना? बात केवल विरोधी-एकता की नहीं है। यह कितने बड़े आधार वाली एकता होगी? इसमें बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, जेडीएस, बसपा, वाईएसआर कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी, अकाली दल और इनके अलावा तमाम छोटे-बड़े दल दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। क्या वे इसमें शामिल होंगे? जैसे ही आधार व्यापक होगा, क्या आपसी मसले खड़े नहीं होंगे?

अगले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके बाद गुजरात के चुनाव होंगे। क्या यह विरोधी-एकता इन चुनावों में दिखाई पड़ेगी? यह बहुत मुश्किल सवाल है। केवल मुखिया के नाम का झगड़ा नहीं है। सत्ता-प्राप्ति की मनोकामना केवल राजनीतिक-आदर्श नहीं है, बल्कि आर्थिक-आधार बनाने की कामना है।

नेता ममता बनर्जी?

दिल्ली आकर ममता बनर्जी ने घोषणा की कि अब कोई इस राजनीतिक तूफान को रोक नहीं पाएगा। जब उनसे पूछा गया कि इस तूफान का नेतृत्व कौन करेगा, तो उनका जवाब था, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ। कांग्रेस और तृणमूल दोनों की तरफ से कहा जा रहा है कि नेतृत्व का मसला महत्वपूर्ण नहीं है, पर यह समझ में आने वाली बात नहीं है। ममता बनर्जी और शरद पवार कांग्रेस से ही टूटकर बाहर गए थे। क्यों गए?

पिछले बुधवार को राहुल गांधी ने संसद में विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाकर पहल की। बैठक में कांग्रेस, शिवसेना, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, आरजेडी, आम आदमी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भाग लिया, पर तृणमूल के नेता नहीं थे। जब राहुल पैदल मार्च कर रहे थे, लगभग उसी समय, ममता बनर्जी ने अपने सांसदों की बैठक बुलाई थी।

तृणमूल-सांसद कल्याण बनर्जी ने बाद में कहा कि मोदी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व सिर्फ ममता बनर्जी ही कर सकती हैं। उन्होंने कहा, मोदी का कोई विकल्प है तो वह ममता बनर्जी हैं, क्योंकि ‘वह लीडर नंबर वन’ हैं। ममता बनर्जी की रणनीति में विसंगतियाँ हैं। नरेंद्र मोदी की तरह उन्होंने खुद को राष्ट्रीय नेता बनाने का प्रयास नहीं किया। उनकी पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान बांग्ला उप-राष्ट्रवाद का जमकर इस्तेमाल किया। उनके कार्यकर्ताओं ने हिंदी और हिंदी-क्षेत्र को लेकर जो बातें कही थीं, वे बाधा बनेंगी।

ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा 2016 से साफ दिखाई पड़ रही है, जब उन्होंने नोटबंदी के खिलाफ उस वक्त अचानक मोर्चा खोला था, जब राहुल गांधी तक असमंजस में थे। अब बंगाल विधानसभा-चुनाव में जीत के बाद उन्हें लगता है कि वे से मोदी-विरोधी राजनीति की स्वाभाविक नेता हैं। वे भूल रही हैं कि बंगाल में उनकी जीत मोदी की पार्टी को नहीं, उन विरोधी दलों को रौंदते हुए हासिल हुई है, जिनका नेतृत्व वे करना चाहती हैं। बंगाल में कांग्रेस-सीपीएम ने ममता के नेतृत्व में चुनाव लड़ा होता, तो उनका दावा सही होता।

कांग्रेसी रणनीति

कांग्रेसी रणनीति क्या है? पहले कर्नाटक, फिर महाराष्ट्र, झारखंड और तमिलनाडु में कांग्रेस ने दूसरे दलों का सहारा लिया है। पर क्या वह राष्ट्रीय स्तर पर भी उसी रणनीति को अपनाएगी? पार्टी ने 1996 में पहले एचडी देवेगौडा और फिर इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाकर इस रणनीति का इस्तेमाल किया था। उसके बाद 2015 में बिहार ने महागठबंधन की अवधारणा दी, जो 2017 में उत्तर प्रदेश में फेल हो गई।

नब्बे के दशक के बाद से यूपीए और एनडीए के रूप में दो बड़े गठबंधन राष्ट्रीय-क्षितिज पर हैं। ममता बनर्जी यूपीए का विस्तार चाहती हैं या कोई नया गठबंधन चाहती हैं? एक सामान्य डोर जरूर दोनों के बीच है। प्रशांत किशोर दोनों के सलाहकार हैं। प्रशांत किशोर के सम्पर्क में शरद पवार भी हैं। नेतृत्व को लेकर उनकी महत्वाकांक्षाएं हैं। सन 1999 में उन्होंने जब पार्टी छोड़ी थी, तब भी उनकी महत्वाकांक्षाएं थीं। प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बन जाने के बाद जुलाई 2012 में केंद्रीय कैबिनेट की बैठकों में दूसरे नम्बर की कुर्सी का मसला उन्होंने ही उठाया था।

पेगासस मामला

पहल किसके हाथ में है, कांग्रेस के या ममता के? दिल्ली आने के पहले ममता बनर्जी ने पेगासस मामले की जाँच के लिए दो जजों का एक आयोग गठित करके पहल अपने हाथ में ली है, पर लगता नहीं कि उन्होंने जाँच आयोग अधिनियम-1952 का बारीकी से अध्ययन किया है। यदि यह जाँच केवल राजनीतिक-शिगूफा है, तो इसका कोई लाभ नहीं। वे वास्तव में इसे लेकर गम्भीर हैं, तो देखना होगा कि बंगाल के दायरे में जाँच से कौन से निष्कर्ष निकलेंगे, जो राष्ट्रीय राजनीति में तूफान लाएंगे?  

ममता बनर्जी ने 21 जुलाई को अपनी सालाना शहीद रैली में विपक्षी राजनीतिक दलों से बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की अपील की थी। उनकी बात बंगाल के बाहर तक जाए, इसके लिए बाकायदा उनकी रैली का दिल्ली, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात तक प्रसारण किया गया। ममता ने अपना ज्यादातर भाषण हिंदी और अंग्रेजी में दिया। बीच-बीच में वे बांग्ला भी बोलती रहीं। जाहिर है कि वह वक्तव्य बंगाल से ज्यादा बाहर के लोगों को सम्बोधित था।

उनके दिल्ली दौरे के साथ ही प्रशांत किशोर ने दिल्ली में संवाद-प्रक्रिया शुरू की है। मुकुल रॉय और ममता के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी भी दिल्ली आए। दूसरे दलों से सम्पर्क साधने का काम यशवंत सिन्हा को भी कर रहे हैं।

संसद में एकता

पेगासस-विवाद के सहारे विरोधी-एकता के तार जुड़ तो रहे हैं, पर अंतर्विरोध भी सामने हैं। एक पक्ष सदन में बहस चाहता है, दूसरा चाहता है कि संयुक्त संसदीय समिति जांच करे, और तीसरा सुप्रीम कोर्ट के जज की निगरानी में जांच चाहता है। सरकार चर्चा के लिए तैयार नहीं है। उसका कहना है कि विपक्ष ठोस सबूत पेश करे। अफवाहों की जांच कैसे होगी? सम्भव है कि वह कार्य-स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा के लिए तैयार हो जाए, पर उसकी दिलचस्पी विरोधी-एकता के छिद्रों और उनकी गैर-जिम्मेदारी को उजागर करने में है। क्या वास्तव में यह इतना बड़ा मामला है, जितना बड़ा कांग्रेस पार्टी मानकर चल रही है? क्या यह चुनावों पर असर डालेगा? राज्यसभा में सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री के हाथ से कागज लेकर फाड़ने का असर जनता पर कैसा हुआ होगा?  

पिछले 11 दिन में लोकसभा में केवल 11 फीसदी और राज्यसभा में करीब 21 फीसदी काम हुआ है। सरकार ने लोकसभा में अपने दो विधेयक इस दौरान पास करा लिए, जिनपर चर्चा नहीं हुई। लगता है कि शोरगुल चलेगा। सरकार अपने विधेयक पास कराती रहेगी। चर्चा नहीं होगी, केवल नारे लगेंगे और तख्तियाँ दिखाई जाएंगी। जनता को क्या यह अच्छा लगेगा?

हरिभूमि में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment