कांग्रेस नेता बीके
हरिप्रसाद ने पिछले गुरुवार को कहा कि पुलवामा आतंकी हमला प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच ‘मैच फिक्सिंग’ का नतीजा है।
उनका कहना था कि पुलवामा हमले के बाद के घटनाक्रम पर यदि आप नजर डालेंगे तो पता
चलता है कि यह पीएम नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच
मैच फिक्सिंग थी। हरिप्रसाद कांग्रेस के
बहुत बड़े नहीं, तो छोटे नेता भी नहीं हैं। पिछले साल राज्यसभा के उप सभापति के
चुनाव में पार्टी ने कर्नाटक के इस सांसद को अपना प्रत्याशी बनाया था। हालांकि कांग्रेस
प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने बाद में सफाई दी, बीके हरिप्रसाद ने जो भी कहा है
कि वह पार्टी का स्टैंड नहीं है, उनकी अपनी राय है। पर कैसी राय? उन्होंने
मामूली बात नहीं कही है। साफ है कि पार्टी ने उनके बयान की अनदेखी की। यह अनदेखी
सायास थी या अनायास?
पिछले महीने 14 फरवरी
को पुलवामा कांड के फौरन बाद कांग्रेस पार्टी ने सरकार को अपने पूरे सहयोग का वादा
किया था। राहुल गांधी ने कहा था, हम पूरी तरह सरकार के साथ हैं और हमें इस मामले
में इससे ज्यादा कुछ नहीं कहना। पर यह राहुल गांधी का बयान था। पार्टी की शुरूआती
प्रतिक्रियाएं दो तरह की थीं। लगता था कि नेतृत्व इस मामले में सरकार पर हमले नहीं
बोलेगा और अपनी छवि को एक जिम्मेदार राष्ट्रीय दल के रूप में बनाएगा। कांग्रेस
महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने आतंकी हमले की निंदा करते हुए कहा कि इस तरह की
घटनाओं को रोकने के लिए सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिए। उन्होंने एक बयान भी जारी
किया,...आतंकवादियों के हाथ शहीद हुए जवानों के परिवारों की वेदना मैं अच्छी तरह
समझती हूं...शहीद परिवारों के पीछे न केवल कांग्रेस बल्कि पूरा देश खड़ा है।
उन्होंने अपनी प्रस्तावित प्रेस कांफ्रेंस रद्द कर दी और कहा कि इस वक्त राजनीतिक
सवालों पर चर्चा करना मुझे ठीक नहीं लगता।
जिम्मेदार पार्टी!
धर्म-संकट राहुल और
प्रियंका के इन बयानों के विपरीत पार्टी प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला के बयानों
में कुछ अंतर था। उनके ट्वीटों में कहा गया कि मोदी सरकार के रहते यह 18वाँ बड़ा
आतंकी हमला है। उन्होंने यह भी कहा कि मोदी सरकार का 56 इंची सीना इनका जवाब कब और
कैसे देगा वगैरह। उन्होंने संवाददाताओं से कहा, आए दिन हमारे जवानों पर हमले हो
रहे हैं। शहीद मनदीप और शहीद नरेंद्र सिंह के सिर काटकर पाकिस्तानी ले गए, लेकिन मोदी जी
चुप रहे। पाँच हजार से अधिक बार सीमा पर संघर्ष विराम का उल्लंघन किया गया, लेकिन मोदी जी
चुप रहे। अब 44 जवान आतंकी हमले में शहीद हुए, लेकिन मोदी जी चुप हैं।
कांग्रेस पार्टी के
सामने दो तरह के धर्म-संकट थे। एक, राष्ट्रीय संकट की बेला में उसे एक जिम्मेदार
दल के रूप में खुद को पेश करना था, पर दूसरी तरफ यह बात साफ थी कि इस हमले से पैदा
हुई हमदर्दी का पूरा लाभ बीजेपी लेने का प्रयास करेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
और अमित शाह के बयानों से कमोबेश यह बात जाहिर होने ही लगी थी। खासतौर से 26 फरवरी
को बालाकोट पर हवाई हमले के बाद तो ‘घर में घुसकर
मारेंगे...’ का इस्तेमाल मुहावरे की तरह होने लगा। कर्नाटक भाजपा के
नेता बीएस येदियुरप्पा ने कहा कि इस हमले की बदौलत हम कर्नाटक की 28 में से 22
लोकसभा सीटें जीतने में सफल हो जाएंगे।
आरोपों की दुधारी
तलवार
उसके अगले दिन
पाकिस्तानी वायुसेना ने जम्मू-कश्मीर की वायुसीमा का उल्लंघन किया। हमारा एक
मिग-21 विमान गिराया और विंग कमांडर अभिनंदन वर्धमान को पकड़ लिया। भारत सरकार की
रणनीति के अंतर्विरोध भी सामने आने लगे। राजनीतिक बयानों की दिशा उसके बाद ज्यादा
साफ होने लगी। सरकार की खामियाँ भी उजागर होने लगीं। बुधवार 27 फरवरी को जिस रोज कांग्रेस
सहित 21 विपक्षी दलों इस सिलसिले में बैठक की, तनाव अपने चरम पर था। इस बैठक में
कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका थी और उसके बाद जारी बयान दुधारी तलवार की तरह था।
इसमें एक तरफ बालाकोट पर भारतीय वायुसेना की कार्रवाई और फिर पाकिस्तानी दुस्साहस
को विफल करने की तारीफ की गई, वहीं यह भी आरोप लगाया गया कि पुलवामा हमले के बाद
बीजेपी के नेताओं ने जवानों की शहादत का राजनीतिकरण किया जो चिंता का विषय है।
बैठक के बाद राहुल
गांधी ने संवाददाताओं के सामने विरोधी दलों का संयुक्त बयान पढ़ा था। इस बयान में
कहा गया, 'राष्ट्रीय सुरक्षा का स्थान राजनीतिक दलों की स्वार्थ-सिद्धि
से कहीं ऊंचा होता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के विषय में राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति
के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।' हालांकि पुलवामा हमले के बाद राजनीतिक एकता
को प्रदर्शित करने वाली एक सर्वदलीय बैठक हो चुकी थी, पर यह बैठक विरोधी दलों की
एकता को प्रदर्शित करने वाली थी। इससे यह भी समझ में आता था कि लोकसभा चुनाव में
यह बड़ा मुद्दा बनेगा, इसलिए उसकी पेशबंदी जरूरी है।
सामने खड़े सवाल
पुलवामा और बालाकोट प्रकरण के बरक्स आने वाले
चुनाव के दौरान कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले विरोधी दलों की रणनीति से जुड़े
दो-तीन सवाल महत्वपूर्ण बनेंगे, जो इस प्रकार हैं-
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सितम्बर 2016 में कांग्रेस ने सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत माँगे थे। राहुल
गांधी ने नरेन्द्र मोदी पर ‘जवानों के खून की दलाली’ का आरोप लगाया था। पार्टी के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा, ये लोग
फर्जी राष्ट्रवादी हैं जो सेना की बहादुरी पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। इस
किस्म के बयानों का लाभ कांग्रेस को नहीं मिला। इस बार पार्टी ने बालाकोट एयर
स्ट्राइक की तो तारीफ की, पर बाद में सबूत भी माँगने शुरू कर दिए। क्या यह
अंतर्विरोध नहीं है? कांग्रेस एक तरफ आतंकियों पर कार्रवाई न करने का तंज
मारती है और दूसरी तरफ जब कार्रवाई होती है, तो उसमें छिद्र खोजती है।
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बीजेपी सरकार का दावा है कि सन 1971 के बाद भारतीय
वायुसेना ने पहली बार वायुसीमा के पार जाकर पाकिस्तान के सुदूर इलाके पर हमला किया
है। सवाल यह नहीं है कि कितने मरे और कितने नहीं मरे। बात केवल इतनी है कि जैश के
ट्रेनिंग सेंटर पर हमले का राजनीतिक फैसला इस सरकार ने किया। ऐसा पहले क्यों नहीं
हुआ?
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बीजेपी सरकार यह भी कहेगी कि हमारी कार्रवाई के कारण ही
पाकिस्तान सरकार ने अपने जेहादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है। यह एक
प्रकार की राजनीतिक बढ़त है।
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पुलवामा और बालाकोट के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री
इमरान खान ने बातचीत करने की पेशकश की है। इस बयान के कारण इमरान खान की तारीफ में
बयान आए हैं। ऐसे बयानों में नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेताओं के नाम भी हैं।
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की तारीफ में दिए गए बयान क्या कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान
नहीं पहुँचाएंगे? बीजेपी अब कांग्रेस पर पाकिस्तान के प्रति नरमी का रुख
अपनाने का आरोप लगाएगी। गुजरात चुनाव के दौरान पार्टी ने ऐसा किया था।
मुद्दे बदलने की
चुनौती
कांग्रेस के सामने आगामी लोकसभा चुनाव को
लेकर कई तरह की चुनौतियाँ हैं। उसे महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और ऐसे ही दूसरे
मुद्दों को भी शिद्दत से उठाना है, ताकि यह चुनाव पूरी तरह पुलवामा और बालाकोट तक
सीमित न रह जाए। क्या वह जनता का ध्यान इनसे अलग कर पाएगी? ऐसा कैसे होगा? लगता है कि पुलवामा हमले के फौरन बाद और आज की स्थिति
में बदलाव है। हालात और बदलेंगे। सरकार पर हमले करते हुए भी उसे खुद को न तो
पाकिस्तान-परस्त नजर आना है और न देश-विरोधी। वह कश्मीर के मामले में पाकिस्तानी
नीतियों का समर्थन भी नहीं कर सकती। पार्टी ने मौके की नज़ाकत को देखते हुए पहले
दौर में अपेक्षाकृत नरमी दिखाई थी, पर उसे यथार्थवादी राजनीति का रास्ता अपनाना
होगा। कश्मीर में चल रहे पत्थर मार आंदोलन के संदर्भ में उसकी स्पष्ट रणनीति को सामने
आना चाहिए। संयोग से अलगाववादियों ने यह रणनीति यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही
अपनाई थी।
सन 2014 के लोकसभा चुनाव के मुद्दों में
राष्ट्रवाद, मंदिर और पाकिस्तान के साथ रिश्ते कहीं थे ही नहीं। इसबार लगता है कि
ये मुद्दे चुनाव पर हावी रहेंगे। चुनाव के ठीक पहले पुलवामा कांड होने से बीजेपी
को एक बना-बनाया मुद्दा मिल गया है। इन मुद्दों पर राय व्यक्त करने के साथ कई तरह
के खतरे जुड़े हैं। खासतौर से शब्दों के फेर से पार्टी को बचना होगा। दिग्विजय
सिंह ने पुलवामा के साथ ‘दुर्घटना’ शब्द न जाने क्या सोचकर
लगाया था, पर उसका असर कितना गहरा हुआ, यह बाद में पता लगा।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (11-03-2019) को "लोकसभा के चुनाव घोषित हो गए " (चर्चा अंक-3270) (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
देश चाहता है आतंकवाद से पूरी तरह छुटकारा..जो सरकार ऐसा कर सकती है वही विजयी होगी
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