राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को सुलझाने के
लिए सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता की जो पहल की है, उससे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं
बाँधनी चाहिए, पर इसे समाधान की दिशा में पहला बड़ा कदम माना जा सकता है। इसकी कुछ
बड़ी वजहें हैं। एक, अदालत ने तीनों मध्यस्थों को तय करते समय इस बात का
ख्याल रखा है कि वे पूर्वग्रह से मुक्त हों। तीनों दक्षिण भारतीय हैं और उत्तर
भारत के क्षेत्रीय विवादों से दूर हैं। कहा जा सकता है कि समाधान के प्रयासों से श्रीश्री
रविशंकर पहले से जुड़े हैं। वे कई बार समाधान के प्रयास कर चुके हैं, इसलिए इससे
जुड़े मुद्दों के बेहतर समझते हैं। दोनों पक्षों के साथ उनके सम्बन्ध मधुर हैं। पर
उनकी तटस्थता को लेकर आपत्तियाँ हो सकती हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है
कि इसके पहले हुई मध्यस्थताओं और इसबार में अंतर है। यह कोर्ट की निगरानी में चलने
वाली मध्यस्थता है, इसमें एक अनुभवी न्यायाधीश शामिल हैं और मध्यस्थों को एक समय
सीमा दी गई है। फिर वे मध्यस्थ हैं, समझौता पक्षकारों के बीच होगा, मध्यस्थों की
भूमिका उसमें मदद करने की होगी। वे जज नहीं हैं। तीसरे, मध्यस्थता से हासिल
हुए समझौते में कटुता नहीं होगी, किसी पक्ष की हार या किसी की जीत की भावना नहीं
होगी। चौथी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मामले पर अब जो भी होगा, वह लोकसभा
चुनाव के बाद होगा। मध्यस्थ किसी समझौते पर पहुँचे भी तो इसमें दो महीने लगेंगे।
यानी कि मई के दूसरे हफ्ते से पहले कुछ होगा नहीं और उसी वक्त चुनाव परिणाम आ रहे
होंगे। उसके बाद अदालती कार्यवाही चलेगी।
पिछले डेढ़ सौ साल से ज्यादा समय में कम से कम
नौ बड़ी कोशिशें समस्या के समाधान की हो चुकी हैं। सभी में विफलता मिली, पर
एक अनुभव यह भी मिला है कि समझौते को वैधानिक रूप दिए बगैर समाधान सम्भव नहीं है। यानी
कि समाधान अदालत से ही होगा, पर उसकी रूपरेखा अदालत के बाहर की बातचीत से तय होगी।
सम्भव यह भी है कि कोई रूपरेखा किसी के पास हो, या मोटा-मोटी रूपरेखा बना ली गई
हो। अब कोशिश राम मंदिर बनाने के लिए ऐसी आम सहमति की है, जिसे कानूनी जामा पहनाया
जा सके। सवाल केवल राम मंदिर का नहीं है। समझौते में मस्जिद का उल्लेख भी होगा।
यह मस्जिद कहाँ बनेगी? यह तय होने का मतलब
है, समझौता। यहीं पर पेच हैं और सम्भावनाएं भी इसी
बिन्दु पर हैं। सन 2009 में पार्टी अध्यक्ष
बनने के बाद नितिन गडकरी ने इंदौर में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कहा
था कि अगर मुस्लिम विवादित भूमि पर दावा छोड़ देते हैं तो मंदिर के पास ही मस्जिद
भी बनवाई जाएगी। श्रीश्री रविशंकर के भाजपा के साथ करीबी
रिश्तों से इनकार नहीं किया जा सकता। अक्सर सामाजिक टकराव के मामलों में वे हस्तक्षेप
करते रहे हैं। सीरिया, इराक और इस्लामिक स्टेट तक के मामलों में उन्होंने
मध्यस्थता की पेशकश की है। अयोध्या पर उनकी पहल अचानक शुरू नहीं हुई है। वे सन
2003 में भी समझौते के एक फॉर्मूले की पेशकश कर चुके हैं। सन 2017 में एक कोशिश
उनके नेतृत्व में हुई थी। अब मस्जिद की जिम्मेदारी उनपर है।
इसमें दो राय नहीं हैं कि इस विवाद को सुलझाने
में सफलता मिली, तो देश के सामाजिक टकराव को रोकने में बड़ी मदद मिलेगी।
साम्प्रदायिक सद्भाव को बेहतर बनाने की दिशा में यह बड़ा कदम होगा। उसके बाद पूरा
देश मिल-जुलकर विकास के रास्ते तय करने के बारे में सोच सकता है। इसका श्रेय किसी राजनीतिक
दल को नहीं, देश की सांविधानिक व्यवस्था को मिलेगा। देश में ही नहीं इसकी गूँज
दुनिया के दूसरे देशों, खासतौर से इस्लामी देशों तक जाएगी।
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-03-2019) को "पैसेंजर रेल गाड़ी" (चर्चा अंक-3269) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'