Sunday, December 23, 2018

कश्मीर पर राजनीतिक आमराय बने


फारूक अब्दुल्ला ने कहा है कि यदि हमारी पार्टी राज्य में सत्तारूढ़ हुई, तो 30 दिन के भीतर हम क्षेत्रीय स्वायत्तता सुनिश्चित कर देंगे. नेशनल कांफ्रेंस की पिछली सरकार ने राज्य में जम्मू, लद्दाख और घाटी को अलग-अलग स्वायत्त क्षेत्र बनाने की पहल की थी. क्या यह कश्मीर समस्या का समाधान होगा? पता नहीं इस पेशकश पर कश्मीर और देश की राजनीति का दृष्टिकोण क्या है, पर हमारी ढुलमुल राजनीति का फायदा अलगाववादी उठाते हैं. जम्मू और लद्दाख के नागरिक भारत के साथ पूरी तरह जुड़े हुए हैं, पर घाटी में काफी लोग अलगाववादियों के बहकावे में हैं.

कश्मीर में जब भी कोई घटना होती है, देश के लोगों के मन में सवाल उठने लगते हैं. हाल में पुलवामा के उग्र भीड़ को तितर-बितर करने के लिए सुरक्षाबलों को गोली चलानी पड़ी, जिसमें सात नागरिकों की मौत हो गई. मुठभेड़ में एक जवान भी शहीद हुआ और तीन उग्रवादी भी मारे गए. इस घटना पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा, हमारी माँग है कि संरा सुरक्षा परिषद जनमत-संग्रह की प्रतिबद्धता को पूरा करे. पाकिस्तानी आजकल बात-बात पर यह माँग करते हैं. पर सच यह है कि सुरक्षा परिषद में कश्मीर पर अंतिम विमर्श पचास के दशक में कभी हुआ था. उसके बाद से वहाँ यह सवाल उठा ही नहीं.


संरा चार्टर के अध्याय छह के तहत पास हुए प्रस्ताव बाध्यकारी नहीं हैं और अब प्रासंगिक भी नहीं हैं. अलबत्ता पाकिस्तान में कुछ संगठन सिर्फ कश्मीर के नाम पर कमाई कर रहे हैं. लश्करे तैयबा, जैशे मोहम्मद और हिज्बुल मुजाहिदीन नौजवानों को भरती करने और ट्रेनिंग देकर उन्हें जम्मू-कश्मीर भेजने का काम करते हैं. पिछले कुछ वर्षों से वहाँ के किशोर सुरक्षा बलों पर पथराव कर रहे हैं. बदले में सेना कार्रवाई करती है, जिसमें नागरिकों की जान जाती है. हिंसा और प्रतिहिंसा का यह चक्र चल रहा है.

इमरान खान की टिप्पणी का भारत के विदेश मंत्रालय ने कड़े शब्दों में जवाब जरूर दिया है, पर यह सोचने की जरूरत है कि यह हो क्यों रहा है? निर्दोष नागरिकों की मौत कोई नहीं चाहता. उसे कैसे रोका जाए? क्या सेना को खामोश बैठे रहना चाहिए? आतंकियों की धर-पकड़ बंद कर देनी चाहिए? अलगाववादियों को जनता से हमदर्दी नहीं है. वे इनका इस्तेमाल करते हैं. धार्मिक भावनाएं भड़काते हैं. पाकिस्तान डिप्लोमैटिक रोटियाँ सेंक रहा है.   

इन मौतों की निन्दा करने के अलावा पाकिस्तान की संघीय कैबिनेट ने कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की निंदा भी की है. कश्मीर में 20 दिसम्बर को राज्यपाल शासन की अवधि समाप्त होने के बाद वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू किया गया है. हमारे देश में शासन-व्यवस्था किस तरह चलेगी, इसका फैसला करने का अधिकार पाकिस्तान को किसने दे दिया?

बहरहाल कश्मीर को लेकर फिर सवाल उठ रहे हैं कि हम क्या करें? सन 2012 से पत्थर मारो अभियान रणनीति के रूप में चलाया जा रहा है. जनता को आगे करके पाक-परस्त अलगाववादी अपना खेल चला रहे हैं. पिछले साल मई में सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने कड़े शब्दों में कहा था कि नागरिकों की दीवार बनाकर आतंकवादियों को बचाने की कोशिशें सफल नहीं होंगी. कश्मीरी पत्थर की जगह गोली चलाएं तो बेहतर है. तब हम वही करेंगे जो करना चाहते हैं. सवाल है कि एनकाउंटर स्थल पर भीड़ जमा क्यों होती है और कौन उन्हें जमा करता है?

दुर्भाग्य से कश्मीर को लेकर हमारे राजनीतिक दलों के बीच विचार-विमर्श भी नहीं होता. कश्मीर केवल राजनीतिक समस्या नहीं है, उसका सामरिक आयाम भी है. वहाँ के राजनीतिक हालात सेना ने नहीं बिगाड़े. हालात सामान्य हो जाएं, तो सेना की जरूरत नहीं होगी. जनरल रावत ने पिछले साल जनवरी में ही साफ़ कर दिया था कि सेना अब उन अलगाववादियों को भी आतंकी मानेगी जो पाकिस्तान और इस्लामिक स्टेट के झंडे लहराते हैं. उनके तेवर जब और तीखे हुए जब शोपियां जिले में कश्मीरी मूल के युवा अधिकारी लेफ्टिनेंट उमर फैयाज का आतंकियों ने अपहरण करके उनकी हत्या कर दी थी.

कश्मीर में चल रहे आंदोलन के बारे में भारत के लोगों को और खासतौर से राजनीतिक दलों को भी अपनी राय स्पष्ट करनी चाहिए. क्या यह शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन है? या यह ‘छाया-युद्ध’ है, जिसकी योजना सीमा-पार से बनाई जा रही है? यह देश की समस्या है या राजनीति का अखाड़ा? सेना के पास भी आत्मरक्षा का अधिकार होना चाहिए या नहीं?  

इन सवालों के साथ अब एक और सवाल सामने है कि कश्मीर में लोकतांत्रिक शासन कब आएगा. वहाँ चुनी हुई सरकार होती तो शायद जनता से उसका संवाद होता. राष्ट्रपति शासन होने के नाते सरकार और जनता के बीच दूरी है. कश्मीर की स्थिति देश के दूसरे राज्यों से भिन्न है. यह अकेला राज्य है, जिसका अपना अलग संविधान भी है. वहाँ 30 मार्च, 1965 तक राज्यपाल की जगह सदर-ए-रियासत और मुख्यमंत्री के स्थान पर वजीर-ए-आज़म (प्रधानमंत्री) का पद होता था. सन 1965 में जम्मू-कश्मीर के संविधान में हुए छठे संशोधन के बाद सदर-ए-रियासत के पद को राज्यपाल का नाम दे दिया गया और उसकी नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति करते हैं.

राज्य में राज्यपाल शासन के छह महीने की अवधि 20 दिसम्बर को पूरी होने के बाद वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू होना ही था. जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद 92 के तहत छह महीने के लिए राज्यपाल शासन लागू किया जाता है. छह महीनों के दौरान नई विधानसभा चुनकर नहीं आए तो अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है. राष्ट्रपति शासन छह महीने तक लागू रहेगा, फिर उसकी अवधि बढ़ती रह सकती है. यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया चलेगी, पर कश्मीर पर आमराय फिर से बननी चाहिए. नब्बे के दशक में बढ़ती हुई आतंकवादी हिंसा के मद्देनज़र संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से जैसा प्रस्ताव पारित किया था, वैसे ही प्रस्ताव की फिर से जरूरत है. 












1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-12-2018) को हनुमान जी की जाति (चर्चा अंक-3195) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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