Monday, May 5, 2014

पार्टी-पॉलिटिक्स के अलावा भी पॉलिटिक्स है

चुनाव वह समय होता है, जब हम अपनी तमाम समस्याओं पर विचार करते हैं. इस विमर्श से कुछ समस्याओं के समाधान मिलते हैं. कुछ समाधान फौरन होते हैं और कुछ में समय लगता है. आप किसी भी क्षेत्र के मतदाता से बात करें उसकी शिकायत होती है सरकार महंगाई कम कर दें, बच्चों को रोज़गार दिलवा दे, नलों में पानी आने लगे, बिजली जाना बंद कर दे, अस्पतालों में इलाज होने लगे तो जीवन सुखद हो जाए. उसकी ज्यादातर शिकायतें प्रशासन से हैं. वह प्रशासन जो सरकार की ओर से जनता की मदद के लिए तैनात किया गया है. पर प्रशासन और पुलिस, इन दोनों से जनता डरती है. क्यों हैं ऐसा? क्या हम प्रशासनिक रूप से विफल हैं? क्या हम नालायक हैं?

भारत में होने वाली दो प्रशासनिक गतिविधियों का दुनियाभर में जवाब नहीं है. पहली गतिविधि है जनगणना और दूसरी चुनाव. हर दस साल में होने वाली जनगणना अपने आप में दुनिया की सबसे बड़ी प्रशासनिक कसरत है. दुनिया के अनेक बड़े देश जिनमें हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान शामिल है, जनगणना का काम समय से पूरा नहीं कर पाते हैं. पर हमे जनगणना का पता नहीं लगता, वह हो जाती है. चुनाव हमें घेरकर रखते हैं या दूसरे शब्दों में कहें हम चुनावों में घिरे रहते हैं. हाल में भारतीय चुनाव-संचालन की सफलता के इर्द-गिर्द एक सवाल ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने उठाया. उसका सवाल है कि भारत चुनाव-संचालन में इतना सफल क्यों है? इसके साथ जुड़ा उसका एक और सवाल है. जब इतनी सफलता के साथ वह चुनाव संचालित करता है, तब उसके बाकी काम इतनी सफलता से क्यों नहीं होते? मसलन उसके स्कूल, स्वास्थ्य व्यवस्था, पुलिस वगैरह से लोगों को शिकायत क्यों है?
ऐसा क्यों माना जाता है कि यह देश बैलगाड़ी की गति से चलता है? पत्रिका ने एक सरल जवाब यह दिया है कि जो काम छोटी अवधि के लिए होते हैं, उनमें भारत के लोग पूरी शिद्दत से जुट जाते हैं. लगातार चलने वाले कार्यों की वे फिक्र नहीं करते. जनगणना के अलावा भारत ने राष्ट्रीय पहचान पत्र आधार बनाने का काम सफलता के साथ किया है. पर वह काम सरकारी कर्मचारियों ने नहीं बाहरी लोगों ने किया. हालांकि पत्रिका ने ज़िक्र नहीं किया, पर भारत के रेलवे पर नज़र डालें तो वह भी हमारी सफलता की कहानी है. बेशक रेलगाड़ियाँ देर से चलती हैं, पर इतना बड़ा नेटवर्क तमाम तकनीकी खामियों के बावज़ूद चल रहा है. जिन दिनों कोहरा हो या बाढ़ या कोई प्रकृतिक आपदा तब की बात अलग है, आम तौर पर रेलगाड़ियाँ समय से चलती हैं. बावज़ूद इस बात के कि जिस रेल लाइन पर बीस साल पहले 10 गाड़ियाँ चलती थीं, उसपर आज 15 चलती हैं. पहले एक गाड़ी में 15 डिब्बे लगते थे, तो आज 20 लगते हैं.
इकोनॉमिस्ट का निष्कर्ष है कि उस विभाग के सरकारी कर्मचारी बेहतर काम करते हैं, जिसपर जनता की निगाहें होती हैं. चुनाव आयोग का अपना कोई स्टाफ नहीं होता. चुनाव का कार्य वही प्रशासनिक मशीनरी करती है, जो सामान्य दिनों में दूसरे काम करती है. सच यह है कि हमारे सरकारी कर्मचारी बेहतर काम करें तो उन्हें बढ़ावा देने की व्यवस्था नहीं है. निजी क्षेत्र में यह सम्भव है. इसका मतलब यह हुआ कि यदि काम करने वालों को उचित प्रोत्साहन दिया जाए तो वे बेहतर परिणाम दे सकते हैं. भारत में एक औसत छोटा दुकानदार जितनी मेहनत से रोज़ाना काम करता है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि उद्यमिता में भी हम पीछे नहीं हैं. देश में पूरी खेती निजी क्षेत्र में है. किसान की मेहनत और ईमानदारी पर कोई शक नहीं, जबकि उसे मदद देने वाली सरकारी एजेंसियाँ उसे हतोत्साहित करने में कसर नहीं छोड़तीं. ऐसा क्यों है? नरेंद्र मोदी का गवर्नेंस का नारा भले ही प्रचारात्मक हो, पर वह आधारहीन नहीं है.
देश का कोई शहर या कस्बा नहीं है, जिसमें सड़कों-चौराहों पर स्कूटर, मोटर साइकिल, ट्रक रोककर पुलिस वाले वसूली करते नज़र न आते हों. जिस रोज़ यह दृश्य बंद हो जाएगा देश के दूसरे तबके भी कार्य-कुशल हो जाएंगे. पूरा देश ट्रकों से पाँच-दस के नोट लेकर बाहर निकले हाथ देखता है. इससे अपनी व्यवस्था पर हमारा अविश्वास पुष्ट होता है. क्या हम इस अविश्वास को दूर कर पाएंगे?
इस साल सात अप्रेल से शुरू हुई चुनाव प्रक्रिया अभी 12 मई तक चलेगी. लोकसभा चुनाव में पहली बार नौ चरण का मतदान हो रहा है. मतदान शुरू होने से परिणाम आने के बीच 39 दिन लगेंगे. नामांकन और प्रचार को जोड़ लें तो तकरीबन दो महीने का समय इसमें लगेगा.पूरे दो महीने से सुबह, दोपहर, शाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर चुनाव की चख-चख चलती रहती है. छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ बन रहा है. घंटों लम्बी और निष्कर्ष-विहीन बहसें चल रही हैं. आरोपों-प्रत्यारोपों की झड़ी लगी है. लगता है नाबदानों की गंदगी राजमार्गों से होकर बहने लगी है. चुनाव की इतनी लम्बी प्रक्रिया क्या अपरिहार्य है? खासतौर से तब जब समूचा उत्तर भारत जबरदस्त गरमी की चपेट में होता है.
देश के आकार और उसकी समस्याओं को देखते हुए चुनाव की यह लम्बी प्रक्रिया स्वाभाविक लगती है. हमारे पहले आम चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक चले थे. पर वह पहला चुनाव था. चुनाव आयोग के स्रोत-साधनों की स्थिति आज जैसी नहीं थी. सन 2009 के चुनाव पाँच चरणों में पूरे हुए थे. सन 2004 के चार चरणों में कुल 21 दिन में पूरे हो गए थे. इसका मतलब है कि यह काम कम समय में भी हो सकता है. ज्यादा समय लगने की सबसे बड़ी वजह सुरक्षा है. खासतौर से नक्सली इलाकों में सुरक्षा व्यवस्था. पर नक्सली समस्या कहाँ से आई? मूलतः यह हमारी प्रशासनिक विफलता की देन है. हमारे सामने सबसे बड़ा काम है, चुनाव को ढोंग-ढकोसला मानने वालों को गलत साबित करना.

पर क्या यह गलतफहमी है? क्या हमारे चुनाव उस उद्देश्य को पूरा कर पा रहे हैं, जिसे हासिल करने की आस में देश के करोड़ों लोग इस लू-लपट का सामना करते हुए घरों से बाहर निकल कर आ रहे हैं. वस्तुतः चुनाव हमारी जिम्मेदारी का पहला पड़ाव है. हमने देखा, जिस काम पर जनता की निगाहें हैं वहाँ सरकारी कर्मचारी भी जिम्मेदारी से काम करते हैं. पब्लिक स्क्रूटिनी वह मंत्र है, जो लोकतंत्र को उसका मतलब देता है. इसमें पत्रकारिता की भूमिका भी है. पर क्या हम वह सब कर पा रहे हैं, जो किया जा सकता है. बेशक जादू की छड़ी की तरह कोई चमत्कार नहीं होगा. पर आप सोचेंगे तो हालात बदलेंगे.  

1 comment:

  1. आपकि बहुत अच्छी सोच है, और बहुत हि अच्छी जानकारी।
    जरुर पधारे HCT- पर नई प्रस्तुती- Download blog template

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