Sunday, April 27, 2014

इस जहरीली भाषा का संरक्षक कौन है?

मीडिया की सजगता या अतिशय सनसनी फैलाने के इरादों के कारण पिछले एक महीने से जहर-बुझे बयानों की झड़ी लग गयी है. हेट स्पीच का आशय है किसी सम्प्रदाय, जाति, भाषा वगैरह के प्रति दुर्भावना प्रकट करना. चूंकि यह चुनाव का समय है, इसलिए हमारा ध्यान राजनीतिक बयानों पर केंद्रित है, पर गौर से देखें तो हमें अपने सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में अभद्र और नफरत भरे विचार प्रचुर मात्रा में मिलेंगे. अक्सर लोग इसे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं. पर जब यह सुरुचि और स्वतंत्रता का दायरा पार कर जाती है, तब उसे रोकने की जरूरत होती है. राजनीति के अलावा यह भाषा और विचार-विनिमय का मसला भी है.


हेट स्पीच का नवीनतम संदर्भ संघ परिवार से जुड़े कुछ लोगों के जहरीले बयानों से जुड़ा है. इन बयानों के कारण भारतीय जनता पार्टी के छवि-सुधार कार्यक्रम को धक्का लगा है. साथ ही संघ परिवार के अंतर्विरोध भी उजागर हुए हैं. इन जहरीली टिप्पणियों से अपना पल्ला झाडने के लिए नरेंद्र मोदी ने एक के बाद एक दो ट्विटर संदेशों में कहा, 'जो लोग बीजेपी का शुभचिंतक होने का दावा कर रहे हैं, उनके बेमतलब बयानों से कैंपेन विकास और गवर्नेंस के मुद्दों से भटक रहा है. मैं ऐसे किसी भी गैरजिम्मेदाराना बयान को खारिज करता हूं और ऐसे बयान देने वालों से अपील कर रहा हूं कि वे ऐसा न करें.' मोदी का यह संदेश केवल व्यावहारिक राजनीति और रणनीति का हवाला देता है. यह उस मूल भावना पर प्रहार नहीं करता जो ऐसे बयानों के लिए जिम्मेदार है.

नरेंद्र मोदी और प्रवीण तोगड़िया का झगड़ा आज का नहीं है. मोदी ने गुजरात में तोगड़िया को हाशिए पर पहुँचा दिया है. हो सकता है तोगड़िया कोई हिसाब चुकता कर रहे हों. अरसे से हाशिए पर पड़े तोगड़िया को इस बयान के बहाने अपनी राजनीति चमकाने का मौका मिला है. पर बात यह नहीं है. उनके बयानों पर यों भी कोई ध्यान नहीं देता था. चूंकि उनपर कभी कड़ी कारवाई नहीं हुई तो उनके हौसले बढ़े. देखा-देखी छुटभैया नेताओं ने इसी झोंक में बोलना शुरू कर दिया. सन 1992 में बाबरी विध्वंस के पहले इस किस्म के भाषणों की बाढ़ आई थी और लोग गलियों-चौराहों और पान की दुकानों में इन भाषणों के टेपों को सुनते थे. हेट स्पीच रोकने के लिए देश में तब भी कानून थे और आज भी हैं. पर हमने किसी को सजा मिलते आज तक नहीं देखा. प्रवीण तोगड़िया का नाम इनमें सबसे ऊपर है. पिछले साल अगस्त तक उनके खिलाफ इस प्रकार के बयानों के 19 मामले दर्ज थे. ये बयान तिरुअनंतपुरम से जम्मू तक तकरीबन एक दर्जन शहरों में दिए गए थे. इनमें से 15 मामले पिछले तीन साल के हैं.

महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के राज ठाकरे और ऑल इंडिया मजलिसे इत्तहादुल मुस्लिमीन के नेता अकबरुद्दीन ओवेसी के खिलाफ अक्सर मामले दर्ज होते रहते हैं. राजनेता जिस भाषा में बात करने के आदी हैं, उसे देखते हुए कई बार यह मामूली बात लगती है, जिसे जुबान फिसलना कहा जाता है. जैसे मुलायम सिंह का यह कहना कि लड़कों से गलती हो जाती है. सवाल इसे रोकने का है. सच यह है कि साम्प्रदायिक और जातीय नफरत हमारी राजनीति में काफी घुली-मिली है.

अधिकार क्षेत्र सीमित होने के बावजूद चुनाव आयोग अपनी तरफ से कार्रवाई करता है. पर उसके पास कड़ी सजा देने की ताकत नहीं है. वह ज्यादा से ज्यादा पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराएगा या राजनेता पर सभाओं को संबोधित न करने की पाबंदी लगा देगा. इतना काफी नहीं है. अक्सर राजनेता इन पाबंदियों का उल्लंघन करते हैं. पुलिस में रिपोर्ट दर्ज होने के बाद होता क्या हैअक्सर राज्य सरकारें इन मुकदमों को आगे नहीं चलातीं. मुकदमे चलते हैं तो लगातार खिंचते रहते हैं. हमारी जानकारी में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे को छह साल के लिए मताधिकार से वंचित करने के अलावा कोई बड़ा मामला नहीं है.

इन बयानों का राजनीतिक निहितार्थ महत्वपूर्ण जरूर है, पर भाषा और संस्कारों के लिहाज से हमें आधुनिक बनने की जरूरत भी है. हाल में बिहार से जेडीयू के प्रत्याशी अबु कैसर ने भागलपुर में एक चुनावी सभा में नरेंद्र मोदी को आदमखोर कहा. इससे पहले शकुनी चौधरी ने मोदी को जमीन में गाड़ देने की धमकी दी. ऐसी भाषा हमारे जीवन में आम है. राजनेता जब माइक से बोलता है और कैमरा उसे कैद कर लेता है तो वह अटपटी लगती है. अपने मुहावरों में जाति-सम्प्रदाय का इस्तेमाल भद्दे तरीके से होता है और यह हमें विचलित नहीं करता. विकलांगों तक के लिए हमारी भाषा निहायत क्रूर और संवेदना-विहीन है.

अराजक और जहरीली भाषा को कई स्तर पर रोकने की जरूरत है. अपने जीवन में कुछ शब्दों का इस्तेमाल हमेशा के लिए निकाल फेंकना होगा. यह काम सांस्कृतिक स्तर पर होना चाहिए. जिस स्तर पर गालियों ने हमारे सामान्य जीवन में जगह बनाई है, उसपर विचार करने की जरूरत है. राजनीतिक स्तर पर हेट स्पीच को रोकने के लिए कठोर कानूनों को बनाने और उन्हें लागू करने की व्यवस्था होनी चाहिए. चुनाव के दौरान गटर राजनीति अपने निम्नतम स्तर पर होती है. पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट में दो बार हेट स्पीच का मामला सामने आया. अदालत ने 12 मार्च को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए विधि आयोग को निर्देश दिया कि वह नफरत भरे बयानों, खासतौर से चुनाव के दौरान ऐसी हरकतों को रोकने के लिए दिशा निर्देश तैयार करे.


न्यायमूर्ति बीएस चौहान के नेतृत्व वाली तीन सदस्यों वाले पीठ ने कहा कि देश में ऐसे बयान देने वालों को सजा न मिल पाने का कारण यह नहीं है कि हमारे कानूनों में खामी है. कारण यह है कि कानूनों को लागू करने वाली एजेंसियाँ शिथिल हैं. सरकार को चाहिए कि वह कानून में बदलाव करके चुनाव आयोग को और ज्यादा ताकतवर बनाए. अदालत ने सरकार से कहा कि वह यह भी देखे कि क्या ऐसे बयान देने वाले नेताओं की पार्टी पर भी कारवाई की जा सकती है? मूल बात यह है कि राजनीति की भाषा को व्याकरण की जरूरत है. यह व्याकरण आप देंगे, पर तभी जब आप अपने व्यक्तिगत जीवन में ऐसी भाषा का इस्तेमाल न करते हों. 

प्रभात खबर पॉलिटिक्स में प्रकाशित

2 comments:

  1. लगता है जहरीली भाषा राजनीति का जेवर है
    बहुत बढ़िया विश्लेषण

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  2. हेट स्पीच देने में कोई भी दल कोई भी नेता पीछे नहीं आपने भ ज पा का तो विश्लेषण किया जो सही है पर इसकी शुरुआत कब कहाँ से हुई और इस हवन में कौन कौन अन्य नेता भी अपनी हवन सामग्री डाल चुके हैं वह भूल गए या कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो लिखना नहीं चाह रहे फलतः लेख का उदेश्य ही नहीं रहा.स पा कांग्रेस, फारूख अब्दुल्ला तृण मूल कांग्रेस जे डी यु के नीतीश बाबू अपने अनमोल वचन दे चुके है उनका भी तो गुण गान करते ताकि लगता कि हमारी राज नीति का स्तर कितना गिरगया है.इन नेताओं से हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या संस्कार दिला पाएंगे यह भी एक बड़ा सवाल है

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