Monday, July 16, 2012

इस बार भी वक्त से पहले दम तोड़ेगी पाकिस्तान की नागरिक सरकार

पाकिस्तान की संसद ने पिछले सोमवार को अदालत की अवमानना के जिस नए कानून को पास किया उसपर गुरुवार को राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के दस्तखत हो गए। उसी रोज़ देश के सुप्रीम कोर्ट ने नए प्रधानमंत्री राजा परवेज़ को निर्देश दिया कि वे स्विट्ज़रलैंड के अधिकारियों को चिट्ठी लिखकर आसिफ अली ज़रदारी के खिलाफ मुकदमों को फिर से खोलने का अनुरोध करें। अदालत ने यह चिट्ठी लिखने के लिए 25 जुलाई तक का वक्त दिया है। अदालती अवमानना के कानून में संशोधन होते ही अदालत में उसके खिलाफ याचिका दायर हो गई और प्रधानमंत्री, अटॉर्नी जनरल सहित दस प्रतिवेदकों के नाम शुक्रवार की शाम नोटिस ज़ारी हो गए। इस मामले में सुनवाई 23 जुलाई को होगी। प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखने की समय सीमा के दो दिन पहले। सुप्रीम कोर्ट ने राजा परवेज़ अशरफ को दिए निर्देश में इस बात का हवाला भी दिया है कि पिछले प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गिलानी इस मामले की वज़ह से हटाए जा चुके हैं। साथ ही यह भी कि फैसले पर अमल नहीं हुआ तो प्रधानमंत्री के खिलाफ कार्रवाई होगी। अदालत और नागरिक शासन के बीच सीधे टकराव को टालने का अब कोई रास्ता नहीं बचा है। न्यायपालिका के आक्रामक रुख को देखते हुए सरकार के पास अब न तो वक्त बचा है और न सियासी हालात उसके पक्ष में हैं। पाकिस्तान में आज तक किसी प्रधानमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया और न किसी संसद ने। इस संसद का कार्यकाल अभी आठ महीने बाकी है। लगता नहीं कि यह पूरा होगा। और हो भी जाए, तो स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्पराएं बुरी तरह घायल हो चुकी होंगी।


लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण ध्वजवाहकों में न्यायपालिका भी एक होती है। संविधान आधुनिक अवधारणा है। दुनिया के ज्यादातर संविधान पिछले तीन-चार सौ साल में विकसित हुए हैं। और संविधानवाद एक जटिल अवधारणा है, जो लोकतांत्रिक शासन के सूत्रों को पिरोने की कोशिश करती है। पाकिस्तान में कार्यपालिका और न्यापालिका के बीच सैंद्धांतिक टकराव है या व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का सवाल है? क्या यह टकराव संसद और न्यायपालिका के बीच भी है? इस टकराव का समाधान क्या लोकतांत्रिक तरीके से यानी जनता के वोट से सम्भव है? ऐसे कुछ सवाल समय के साथ उठेंगे। भारत में भी पिछले एक-दो साल से इस किस्म के सवाल उठे हैं। न्यायपालिका का एक्टिविज़्म एक प्रश्न है और जन प्रतिनिधियों के कार्य-व्यवहार को लेकर जनता के बड़े तबके की नाराज़गी दूसरा। क्या पाकिस्तान में भी ऐसा ही है या कुछ और है?

जिस वक्त यूसुफ रज़ा गिलानी को अदालती आदेश पर पद छोड़ना पड़ा तब सवाल था कि अदालत नए प्रधानमंत्री को भी यही आदेश देगी, तब क्या होगा। नए प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ ने पद ग्रहण करने के बाद स्पष्ट किया कि आसिफ अली जरदारी जब तक राष्ट्रपति पद पर हैं तब तक उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। सरकार का कहना है कि ज़रदारी को राष्ट्रपति होने के नाते संविधान के अनुच्छेद 248 के तहत कानूनी कार्रवाई से छूट मिली है। सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट इस नियम को स्वीकार क्यों नहीं कर रहा है। यह संवैधानिक प्रश्न है इसकी वैधानिकता पर विचार होना चाहिए। साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि नागरिक शासन को कार्यकाल पूरा क्यों नहीं करने दिया जाता। देश की न्यायपालिका ने किसी फौजी सरकार को गैर-कानूनी करार नहीं दिया। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश इफ्तेकार मुहम्मद चौधरी ने 1999 में नवाज शरीफ का तख्ता पलट करके सत्ता में आई परवेज़ मुशर्रफ की फौजी सरकार को वैधानिक साबित करने में मदद की थी। सन 1956, 1962 और 1973 के तानाशाहों को संवैधानिक छूट मिली हुई है तो एक चुने हुए राष्ट्रपति को यह छूट क्यों नहीं मिलनी चाहिए? विडंबना है कि न तो सेना को और न्यायपालिका को जनता को सीधे जवाब देना होता है। यह ज़िम्मेदारी जन-प्रतिनिधियों की है।

पिछले दो-तीन हफ्तों की गतिविधियों को देखें तो उसके पीछे सिद्धांत से ज्यादा कुछ और बातें नज़र आ रही हैं। मसलन सरकार और मुख्य न्यायाधीश के बीच मीडिया के मार्फत बात होती है। संसद से अदालती अवमानना का कानून पास होते ही मुख्य न्याधीश ने कम से कम दो सार्वजनिक कार्यक्रमों में घोषणा की है कि संविधान का अनुच्छेद 8 न्यायपालिका को अधिकार देता है कि वह किसी भी संविधान विरोधी कानून को रद्द कर दे। यूसुफ रज़ा गिलानी वाले मामले में जस्टिस इफ्तेकार चौधरी सहित तीन जजों की बेंच ने अपने-अपने फैसलों में इस बात पर ज़ोर दिया कि संविधान सर्वोपरि है, चुने हुए जन-प्रतिनिधि नहीं। वह जन-भावना को व्यक्त करता है, इसलिए न्यायाधीश जन-भावना के रक्षक हैं। उनकी न्यायिक दृष्टि से संविधान की एक मूल भावना है, जिसकी रक्षा होनी चाहिए। लगता ऐसा है कि अदालत के फैसले पहले और सुनवाई बाद में हो रही है। इसके पीछे किसकी ताकत है? निष्कर्ष यह कि जेहादी दृष्टि ही पाकिस्तान का मूल मंतव्य है।

पाकिस्तानी गतिविधियों को ध्यान से देखने पर आप पाएंगे कि देश का कट्टरपंथी धड़ा अदालत के साथ है। इन दिनों दिफाए पाकिस्तान कौंसिल नेटो सेनाओं को रास्ता देने के खिलाफ लम्बे कूच पर निकली है। इसके तीन प्रमुख नेता हैं मौलाना समीउल हक़, लश्करे तैयबा के संस्थापक हफीज़ सईद और आईएसआई के पूर्व डायरेक्टर जनरल जनरल हमीद गुल। देश का उर्दू मीडिया कट्टरपंथियों के साथ है और नागरिक सरकार के खिलाफ। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए लाहौर में हुई नमाज़ में हाईकोर्ट के जज भी शामिल थे। इसी हाईकोर्ट ने हफीज़ सईद को मुम्बई मामले से बरी किया था। यह भी संयोग नहीं है कि सीआईए को लादेन के बारे में जानकारी देने वाले डॉ शकील अफरीदी को 33 साल की सजा देने वाली अदालत इसी न्यायपालिका का हिस्सा है।

पाकिस्तान की समस्या न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के टकराव की नहीं है। वह होता तो उसके फायदे भी थे। पिछले एक-डेढ़ साल से देश की नागरिक सरकार व्यावहारिक कारणों से, कट्टरपंथी दुष्चक्र से बाहर निकलना चाहती है। आधुनिक शिक्षा प्राप्त नए मैनेजर, टेकनोक्रेट, महिलाएं दूसरे शब्दों में सिविल सोसायटी और कारोबारी लोग इससे ऊब चुके हैं। देश के अंग्रेज़ी मीडिया में यह वर्ग मुखर भी है, पर बोलबाला कट्टरपंथियों का ही है। इस कट्टरपंथ को हवा-पानी सेना के एक बड़े तबके से मिलता है। अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत हुसेन हक्कानी के मामले में भी सेना और सुप्रीम कोर्ट का रुख सामने आ गया था। पाकिस्तान सरकार की यह कोशिश की सेना हमारे अधीन है, सुप्रीम कोर्ट में सफल नहीं हो पाई। इसलिए सवाल सिद्धांत का नहीं, विचारधारा का है।

ऐसा नहीं कि समूचा पाकिस्तान जेहादी रास्ते पर है। पिछले पच्चीस साल में नागरिक सरकारों को गिराने में सबसे बड़ी भूमिका सेना की रही है। अक्सर परोक्ष भूमिका को देर से पढ़ा गया। 1988 में बेनज़ीर भुट्टो की सरकार हनने पर आईएसआई के डीजी हमीद गुल ने एक इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद खड़ा कर दिया। जनरल ज़ियाउल हक कोज़माने से लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काने का काम किया जा रहा है। अफगानिस्तान के जेहाद के दौर में आईएसआई को स्वतंत्र संस्था के रूप में बनाया गया, जो अर्ध राजनीतिक संस्था है। देश की सरकारें बनाने और बिगाड़ने में भी सकी भूमिका रही है। पीपीपी के सीनेटर फरहतुल्ला बाबर ने एक विधेयक तैयार किया है जिसके तहत आईएसआई को नागरिक सरकार के अधीन लाया जा सकता है। यह प्राइवेट बिल के रूप में ही आ सकेगा, क्योंकि पीपीपी की सामर्थ्य इस बिल को पास करा पाने की नहीं है। नवाज़ शरीफ की पार्टी हालांकि फौजी शासन के खिलाफ है, पर उसकी दिलचस्पी पीपीपी का विरोध करने में ज्यादा है। इमरान खान की नई पार्टी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ के बारे में नवाज़ शरीफ की राय है कि इसे आईएसआई ने खड़ा किया है। यह सच हो भी सकता है। पाकिस्तान में टकराव लोकतंत्र और कट्टरपंथ का है और फिलहाल लोकतंत्र खतरे में है। और चुनाव के बाद हालात सुधरने की उम्मीद नहीं।
सीएक्सप्रेस में प्रकाशित

नवाज़ शरीफ को पार्टी नेताओं की सलाह

1 comment:

  1. Ek itna kamzor padosi hamare liye bhi khatarnak hai...

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