Monday, April 16, 2012

राजनीति में उलझी आंतरिक सुरक्षा

हाल में हुए पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के पहले ही तीन-चार सवालों पर यूपीए सरकार घिर चुकी थी। खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मामला सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस ने उठाया और कोई पार्टी यूपीए के समर्थन में नहीं आई। इसके बाद लोकपाल बिल में राज्यों के लिए कानून बनाने की शक्तियों को लेकर बहस शुरू हुई और अंततः बिल राज्यसभा का दरवाजा पार नहीं कर पाया। नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) की स्थापना 1 मार्च को होनी थी और उसके ठीक पहले लगभग सभी पार्टियों ने विरोध का झंडा खड़ा कर दिया। यूपीए सरकार को इस मामले में पीछे हटना पड़ा। हालांकि आतंक विरोधी संगठन का राजनीति से सीधा रिश्ता नहीं है, पर केन्द्र और राज्य की शक्तियों को लेकर जो विवाद शुरू हुआ है उसने इसे राजनीति का विषय बना दिया है।



एनसीटीसी की ज़रूरत 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए हमले के बाद महसूस की गई थी। इसके साथ ही राष्ट्रीय जाँच एजेंसी बनाने का फैसला भी हुआ। अमेरिका में 11 सितम्बर के हमले के बाद कानूनों में भारी बदलाव किया गया था और सन 2004 में नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर बनाया गया था। 26/11 के बाद अफरा-तफरी में जब दिसम्बर 2008 में अवैधानिक गतिविधि कानून में संशोधन किया जा रहा था तब इक्का-दुक्का सवाल उठे थे, पर किसी ने बड़ा विवाद खड़ा नहीं किया था। नागरिक अधिकारों से जुड़ी संस्था पीयूडीआर का कहना है कि यह संशोधन सिर्फ एक दिन की बहस के बाद 11 दिसम्बर 2008 को पास कर दिया गया था। लोक सभा में जिस वक्त इसे पेश किया गया था तब सदन में 50 सदस्य उपस्थित थे, जब प्रधानमंत्री इसके समर्थन में बोले तब यह संख्या 90 हो गई। इस पर चर्चा के दौरान यह संख्या 47 से 60 के बीच रही। महत्वपूर्ण बात यह है कि विपक्ष के सदस्यों ने कोई प्रतिवाद तब नहीं किया था। पर अब यह बड़ा सवाल है।

फरवरी 2012 में जब ममता बनर्जी ने राज्यों की शक्ति के सवाल उठाए तो उन्हें तमाम क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन भी मिला। भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी इस सवाल को उठाया। 5 फरवरी को सरकार ने इस आशय की अधिसूचना जारी की और महीने का अंत होने के पहले ही स्पष्ट कर दिया 1 मार्च को इसकी प्रस्तावित स्थापना नहीं हो पाएगी। संसद के बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव में एनसीटीसी के बाबत बीजेपी, सीपीएम और बीजू जनता दल ने संशोधन पेश किए। यूपीए के लिए यह संकट की घड़ी थी। पर तृणमूल सहित सभी सहयोगी दलों ने यूपीए का संकट टाल दिया, पर केन्द्र-राज्य विवाद खत्म नहीं हुआ है।

सोमवार को बुलाया गया मुख्यमंत्री सम्मेलन हालांकि सालाना एक्सरसाइज़ है, पर आने वाले वक्त की राजनीति की एक झलक इसमें देखने को मिलेगी। एक ओर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहते हैं कि यह मुख्यमंत्री सम्मेलन पूरी तरह एनसीटीसी को समर्पित हो, वहीं बंगाल की मुख्यमंत्री सम्भवतः इसमें नहीं आएंगी। उनका विचार है कि इस मसले पर विचार के लिए 5 मई को बुलाई गई बैठक में ही चर्चा होनी चाहिए। इस बीच आरपीएफ अधिनियम और बीएसएफ अधिनियम में संशोधन पर भी विचार होना है क्योंकि उनमें भी केन्द्रीय संगठनों की शक्ति का राज्यों की शक्ति से टकराव नजर आता है। इस तरीके से आने वाले वक्त की राजनीति के प्रस्थान बिन्दु भी तैयार होते नज़र आ रहे हैं।

पूरे मामले के दो पहलू हैं। एक है आंतरिक सुरक्षा का और दूसरा देश के राजनीतिक भविष्य का। आतंकवाद से निपटने की रणनीति पर जब भी बात होती है तब यह तथ्य सामने आता है कि हमारे यहाँ इतनी एजेंसियाँ इससे जुड़ी होती हैं कि ठीक से समन्वय नहीं हो पाता। 2008 के मुम्बई विस्फोट के बाद हमने जो फैसले किए, उनमें से सिर्फ नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी बना पाए हैं। तमाम जानकारियों के लिए नैटग्रिड और नेशनल काउंटर टैररिज्म सेंटर नहीं बन पाया है। यह सेंटर सन 2010 के अंत तक बन जाना था। हमारे संगठनों के समन्वय का यह हाल है कि पिछले साल हमने पाकिस्तान को जिन वांछित अपराधियों की सूची सौंपी उसमें हास्यास्पद विसंगतियाँ थीं। अमेरिका के जिस एनसीटीसी की नकल पर हम एनसीटीसी बना रहे हैं, उसके सामने संघ और राज्यों की सरकारों का सवाल नहीं है। इस संस्था के पास गिरफ्तारी के अधिकार नहीं हैं। हम क्यों यह अधिकार देना चाहते हैं, इसे स्पष्ट करना चाहिए।

इस व्यवस्था का विरोध करने वाले कहते हैं कि अवैधानिक गतिविधि (निवारण) अधिनियम की धारा 43 ए सर्च और अरेस्ट के अधिकार एनसीटीसी को देती है। इसके बाबत ज़ारी अधिसूचना के पैरा 3.5 और 5.1 को पढ़ने से लगता है कि राज्य सरकार के अधिकारी सूचनाएं, दस्तावेज और रिपोर्ट देने के मामले में इसके अधीन आ जाएंगे। यह संस्था इंटेलीजेंस ब्यूरो के प्रशासनिक नियंत्रण में होगी इसलिए इंटेलीजेंस ब्यूरो को पुलिसिंग की ताकत मिल जाएगी, जो अभी नहीं है।

जिस वक्त ममता बनर्जी समेत तमाम राजनेताओं ने एनसीटीसी को लेकर सवाल उठाए थे तब मीडिया इस बात पर विवेचन ज्यादा था कि क्या यह तीसरे या चौथे मोर्चे का प्रारम्भ है। एनसीटीसी की उपादेयता और प्रसंगिकता पर हम आज भी चर्चा नहीं कर रहे हैं। इस सवाल को नवीन पटनायक ने संघीय व्यवस्था की विसंगतियों के रूप में उठाया। और सारी बहस उसी के इर्द-गिर्द रहेगी। सवाल यह है कि क्या यह सरकार लम्बे समय तक चलेगी? क्या लोक सभा चुनाव समय से पहले होंगे? राजनीतिक सवालों के हावी रहते क्या हम सुरक्षा से जुड़े सवालों पर विचार नहीं कर सकते?

सोमवार को होने वाली बैठक में या 5 मई की बैठक में इस मसले पर सहमति होगी या नहीं कहना मुश्किल है, पर उम्मीद करनी चाहिए कि आंतरिक सुरक्षा को राजनीतिक सवालों से दूर रखा जाए। हमारी औपनिवेशिक परम्परा है कि हम पुलिस को ताकत का प्रतीक मानते हैं। राजनेता इसे अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। इसी वजह से तमाम पुलिस सुधार अधूरे पड़े हैं। अधिकारों की सीमा रेखाएं खींचना मुश्किल काम नहीं है, पर हमारा अनुभव है कि व्यक्तिगत अहम के कारण अनेक काम पीछे रह गए हैं। पिछले अनेक वर्षों में अनेक आतंकवादी कार्रवाइयाँ हमने देखीं। दूसरे या तीसरे दिन से सुराग मिलने के दावे पेश होने लगते हैं। कई बार भंडाफोड़ होते हैं। पर वास्तव में हम बहुत कम साजिय़ों का पर्दाफाश कर पाए। इसका कारण जाँच एजेंसियों की अकुशलता के साथ राजनीतिक अकुशलता भी है।
हाईटेक न्यूज़ में प्रकाशित

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