Friday, April 27, 2012

वैचारिक भँवर में फँसी कांग्रेस



हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
पिछले कुछ समय से कांग्रेस के भीतर विचार-विमर्श का सिलसिला चल रहा है। पिछले दिनों हुए विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को उम्मीद से कम सीटें मिलीं, खासतौर से उत्तर प्रदेश और पंजाब में। अगले साल हिमाचल, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, मेघालय, त्रिपुरा, नगालैंड और मिजोरम विधान सभाओं के चुनाव हैं। घटनाक्रम तेजी से बदल रहा है। तमाम राजनीतिक शक्तियाँ बदलते हालात में अपने लिए जगह खोज रहीं हैं।
अगले साल के विधानसभा चुनावों के बाद राष्ट्रीय राजनीति की शक्ल साफ होने लगेगी, जिसका प्रभाव 2014 के चुनाव पर पड़ेगा। लेकिन हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं उन्हें देखते हुए एक सम्भावना यह भी है कि 2013 के मई में ही लोकसभा चुनाव भी हो जाएं। चुनाव को होना या न होना उन ताकतों के जोड़-घटाने पर निर्भर करता है, जिन्हें कोई नफा या नुकसान नज़र आता हो।


पिछले महीने विधान सभा चुनाव परिणाम आने के बाद पत्रकारों से बातचीत के दौरान सोनिया गांधी से किसी ने पूछा, क्या इस हार का कारण नेतृत्व की कमी थी। इस पर सोनिया गांधी ने हँसते हुए कहा, “मैं नेतृत्व की कमी के बजाय नेतृत्व की अधिकता कहूँगी। हमारे यहाँ नेता काफी ज्यादा हैं। यह समस्या है।” चुनाव परिणामों के विश्लेषण-विवेचन के लिए बनी एंटनी कमेटी ने संगठन की खामियों की ओर इशारा किया है। संगठन, नेतृत्व और नीतियों के मोर्चे पर कांग्रेस दबाव में आती जा रही है। और ऐसे ही मौकों पर साथी भी साथ छोड़ते हैं। इसलिए कांग्रेस ने गहराई से सोचना शुरू कर दिया है। इस हफ्ते खबर आई कि पार्टी के कुछ वरिष्ठ मंत्रियों ने सरकारी पद छोड़कर पार्टी का काम हाथ में लेने की पेशकश की है। खबरें हैं कि 24 मई को संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद पार्टी और सरकार में बड़े बदलाव हो सकते हैं।

कांग्रेस पर बदलाव का दबाव कम से कम डेढ़ साल से है। पिछले साल दो बार मंत्रमंडल में फेर-बदल हुए। पहली बार जनवरी में और फिर जुलाई में। जनवरी में हुए फेर-बदल के वक्त कहा गया था कि अभी मामूली बदलाव कर रहे हैं। असली बदलाव बाद में करेंगे। पर जुलाई के बदलाव तो बदलाव जैसे भी नहीं लगे। लगभग पूरी टीम जहाँ की तहाँ रही। जो बदलाव हुआ भी है वह कुर्सियों की निरर्थक अदला-बदली लगती है। साथ में प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि 2014 के चुनाव के पहले अब कोई फेर-बदल नहीं। तब फिर अब कैसा बदलाव होने वाला है? अभी तक स्पष्ट है कि कांग्रेस किसी नए विचार या नए कार्यक्रम की राजनीति करने के बजाय मैदान में प्रभावशाली विकल्प की नामौज़ूदगी का फायदा उठाना चाहती है। हालांकि बीजेपी की दशा भी कांग्रेस जैसी है, पर क्षेत्रीय दल विकल्प के रूप में सामने आ रहे हैं। पहले लगता था कि कांग्रेस का राजनैतिक कार्यक्रम राहुल गांधी को स्पॉटलाइट में रखने तक सीमित है। पर अब पार्टी के अस्तित्व का प्रश्न नज़र आता है। और इस वक्त दीर्घकालीन रणनीति बनाने के साथ-साथ आंध्र प्रदेश की समस्या को सुलझाने का सवाल भी है।

आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने दो सेल्फ गोल किए हैं। तेलंगाना मामले को पहले उठाकर और फिर छोड़कर कांग्रेस ने अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है। दूसरी समस्या है वाईएसआर रेड्डी के निधन के बाद उनके बेटे जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस का उदय, जिसका मुकाबला कर पाना मुश्किल लग रहा है। सन 2004 में चुनावी सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य बनाने का वादा कर दिया था। संयोग से केन्द्र में उसकी सरकार बन गई। तेलंगाना राष्ट्र समिति इस सरकार में शामिल ही नहीं हुई, यूपीए के कॉमन मिनीमम प्रोग्राम में राज्य बनाने के काम को शामिल कराने में कामयाब भी हो गई थी। नवम्बर 2009 में के चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन को खत्म कराने के लिए गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने राज्य बनाने की प्रक्रिया शुरू करने का वादा तो कर दिया, पर सबको पता था कि यह सिर्फ बात मामले को टालने के लिए है। कांग्रेस अब कुएं और खाई के बीच खड़ी है। दोनों चाहते हैं कि वह इधर आए या उधर जाए। पिछले साल पुलिवेन्दुला विधान सभा और कडपा लोकसभा सीटों पर वाईएसआर की पत्नी विजयम्मा और बेटे जगनमोहन रेड्डी ने विजय हासिल करके कांग्रेस का ज़ायका बिगाड़ दिया। अब 12 जून को आंध्र में नेल्लोर लोकसभा और 18 विधानसभा सीटों के उपचुनाव हैं। इनमें 16 सीटें वे हैं जो वाईएसआर कांग्रेस का समर्थन करने वाले विधायकों की सदस्यता समाप्त होने के कारण खाली हुई हैं। सन 2009 में केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनाने में कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अब वहाँ कांग्रेस संकट में नज़र आती है।

पार्टी के सामने अगले साल होने वाले विधानसभा और उसके बाद लोकसभा चुनाव हैं। इसलिए इस बात का दबाव है कि जो कुछ भी सम्भव है वह किया जाना चाहिए। सवाल है कि क्या किया जा सकता है? जवाब है पार्टी का पूरी तरह रूपांतरण। संगठनात्मक स्तर पर ऊर्जावान नेताओं की नियुक्ति। यानी एक और कामराज योजना की जरूरत है। क्या आज की समस्या 1963-64 जैसी है? 10 अगस्त 1963 को कांग्रेस महासमिति ने कामराज योजना को मंजूरी दी थी। के कामराज उस वक्त मद्रास के मुख्यमंत्री थे। 1962 के चीनी हमले के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू व्यक्तिगत रूप से व्यथित थे। वे बीमार भी रहने लगे थे। पार्टी में उनकी जगह लेने वालों की मनोकामनाएं उजागर हो रही थीं। नेहरू के व्यक्तिगत करिश्मे से कांग्रेस तीन चुनाव जीत चुकी थी, पर लगभग हर राज्य में बड़े नेताओं के बीच रस्साकशी चलने लगी थी। सरकारी कुर्सी पर सबकी निगाहें थीं। कांग्रेस प्लान नेहरू जी की मंजूरी से आया जिसके तहत छह केन्द्रीय मंत्रियों और छह राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफे दिए। बावजूद इसके कांग्रेस कमजोर होती गई। 1967 के चुनाव में गैर-कांग्रेसवाद के नारे का पहला असर दिखाई पड़ा। कई राज्यों में संयुक्त विधायक दलों की सरकारें बनीं। गठबंधन राजनीति का पदार्पण हुआ। जवाहर लाल नेहरू 1951 से 54 तक पार्टी अध्यक्ष भी रहे। पर पार्टी पर उनका नियंत्रण बना रहा। बावजूद इसके कांग्रेस के पास प्रदेश स्तर पर ऊँचे कद वाले नेता थे। और जिस नेता का पार्टी पर प्रभाव होता वह मुख्यमंत्री भी होता था या मुख्यमंत्री तय करता था। तब से अब में काफी फर्क आ गया है। अब पार्टी पूरी तरह केन्द्र संचालित है। नेहरू युग की कांग्रेस में आमराय बनाने का एक मिकेनिज्म था, जिसमें छोटा कार्यकर्ता भी शामिल था। अब वह नहीं है। पहिया वापस घुमाने की कोशिश भी की जाए तो उसमें काफी वक्त लग जाएगा। तब कांग्रेस को क्या करना चाहिए?

पार्टी को सबसे पहले राहुल गांधी के बारे में कोई फैसला करना चाहिए। उत्तर प्रदेश में राहुल नेता के रूप में चुनाव नहीं लड़ रहे थे। अखिलेश यादव शुरू से ही भावी नेता के रूप में सामने थे। राहुल गांधी केन्द्र के भावी नेता के रूप में पिछले चार-पाँच साल से तैयार हो रहे हैं। यह अनिश्चय नुकसानदेह है। इसका नुकसान केन्द्र सरकार के कामकाज पर भी पड़ा है। सरकार की नीतियाँ एक तरफ हैं और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद दूसरी तरफ। दोनों का फर्क दूर से दिखाई पड़ता है। जिन नीतियों पर चलना है उन्हें पूरे वेग से आगे बढ़ाना चाहिए। पार्टी के भीतर भी प्रतिस्पर्धा है। यह किसी भी संस्था में होती है। शिखर नेतृत्व से कार्यकर्ता की दूरी है और नेतृत्व में एक प्रकार का अहम भाव है। यूपीए-1 में एक समन्वय समिति थी, यूपीए-2 में सहयोगी दलों के साथ समन्वय का मिकेनिज्म नहीं है, इसे होना चाहिए। आए दिन हो रही फजीहत से बचने के रास्ते पहले से खोजने चाहिए।

कांग्रेस के लिए खेल बुरी तरह बिगड़ा हुआ है, पर उसका सौभाग्य है कि राष्ट्रीय स्तर पर उसकी प्रतिस्पर्धी बीजेपी की दशा और भी खराब है। ढाई साल पहले जिस वक्त नितिन गडकरी अध्यक्ष बने थे बीजेपी के पास कोई मुहावरा नहीं था। आज भी नहीं है। केवल कांग्रेस की कमजोरियाँ हैं। प्रादेशिक पार्टियों का उदय भी कांग्रेस और बीजेपी के वैचारिक भ्रम का परिणाम है। यह भ्रम अगले लोकसभा चुनाव में भारी पड़ेगा।
जनवाणी में प्रकाशित

1 comment:

  1. बहुत सही विश्लेषण किया है आपने प्रमोद जी|

    परन्तु, आपके और मेरे विचारों में केवल एक जगह सम्मति नहीं है | में समझता हूँ कि अब यह समय आ गया है कि कांग्रेस के भाग्य में वही हो जो बापू ने कहा था कि होना चाहिए - स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस का विसर्जन | आज, विचारों कि खोखली कांग्रेस के पास बहुत सारे विकल्प नहीं हैं, और विपक्ष जितनी भी कमजोर और विभाजित दिखे, जब मतदाता चिढ़ जायेंगे, तो गधों को भी कुर्सी पर बिठा देंगे| इस दल को बचाने का केवल एक उपाय है -- जिसको वे आपनी सबसे बड़ी ताकत समझते हैं, उस खानदान को अगर कांग्रेसी निकाल बाहर कर सकतें है, तो शायद दल में गणतंत्र आएगा -- और लोगों के मन में कांग्रेस के प्रति पुनर्विश्वास |

    पर निकालेगा भी तो भला कौन ?!

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