Monday, April 23, 2012

राजनीतिक दलदल में आर्थिक उदारीकऱण

प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने भारतीय राजनीति के संदर्भ में जो कुछ कहा वह उनके गले पड़ गया और तकरीबन उन्हीं कारणों से जिनका जिक्र उन्होंने अपने वक्तव्य में किया था उन्हें अपनी बात वापस लेनी पड़ी। सरकार को भी अपनी सफाई में साबित करना पड़ा कि हम कारगर हैं और काम कर रहे हैं। पर क्या किसी को दिखाई नहीं पड़ा कि रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट में जो प्रस्ताव पेश किए थे वे किसी कारण से बदल गए। वे कौन से कारण थे? उसके पहले सरकार को खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की अनुमति देने का आदेश वापस लेना पड़ा।
उसके कारण क्या थे? पेंशन बैंकिंग और टैक्स सुधार के तमाम कानूनों को क्या सरकार संसद से पास करा सकती है? भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा के कानून कैसे पास होंगे? सच यह है कि हमारे राजनीतिक दलों ने आर्थिक नीतियों पर आम राय नहीं बनाई है। हम नहीं जानते कि उदारीकरण हमारे लिए उपयोगी है या नहीं। मीडिया इस संशय को और बढ़ाता है। हम नहीं जानते कि उदारीकरण के कारण गरीबी बढ़ी है या घटी है। हम नहीं बता सकते कि यह विकास समावेशी है या नहीं। समावेशी विकास का मतलब गरीबों का विकास है तो क्या गरीबी घटी है या नहीं?

इस विषय पर आगे बढ़ने के पहले एक इंटरनेट साइट पर एक पाठक के विवेचन का एक अंश पढ़ें। हमारा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी तकरीबन 90 लाख करोड़ रुपए का है। इसमें एक प्रतिशत की वृद्धि से तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए की प्राप्ति होती है। इतनी राशि से ढाई लाख रुपए सालाना इनकम के 40 लाख रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। आर्थिक उदारीकरण रोकने का मतलब है सीधे नए रोजगारों पर लात मारना। यह बात इतनी सरल है तो सबको समझ में क्यों नहीं आती? आर्थिक विकास तब तक निरर्थक है जब तक वह कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक न पहुँचे। क्या यह विकास आखिरी आदमी तक नहीं पहुँचा? समावेशी विकास की धारणा को समझने के साथ यह भी समझना होगा कि विकास का वैश्विक मॉडल अपने साथ असमानता भी लाएगा। ऐसा सम्भव नहीं कि सुदामा की तरह अचानक किसी एक सुबह देश के 80 करोड़ लोग झोंपड़े के बजाय महल में उठें।

गरीबी घटने के बारे में सरकारी आँकड़ों के अलावा कुछ समाज विज्ञानियों की रपटें बता रहीं हैं कि दलितों और पिछड़े वर्गों की दशा में सुधार का औसत राष्ट्रीय औसत से बेहतर है। इस पर यकीन न भी करें, इस बात की ज़रूरत है कि हम आर्थिक विकास और सामाजिक विकास के फॉर्मूले तैयार करें। दिक्कत यह है कि देश के तमाम राजनीतिक दल उदारीकरण को धिक्कारते हैं और जब खुद सरकार बनाते हैं तब उसी रास्ते पर जाते हैं। सन 1991 के बाद केन्द्र की कांग्रेसी सरकार ही उदारीकरण के रास्ते पर नहीं गई थी। बंगाल और केरल की वाम मोर्चे की सरकारों ने भी उदारीकरण का रास्ता पकड़ा था।

पिछले साल दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता। हमें एक बेहतर और फोकस्ड लोकतंत्र की ज़रूरत है। यह बात दिल्ली में कही गई थी और पृष्ठभूमि में रिटेल में एफडीआई का मामला था। क्या भारत में अतिशय लोकतंत्र है? चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की राजनीतिक व्यवस्था है। राजनीतिक विपक्ष वहाँ नहीं है। सिंगापुर की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है। वहाँ छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते हैं। हमारी राजनीति सिर्फ थोड़े से लोगों तक सीमित है। लोकतंत्र बिखरा हुआ है। उसे समझदार बनाने की ज़रूरत है। इतना समझदार कि अपने फैसलों का मतलब जान सके। आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ाने के साथ हमें यह देखने की जरूरत होगी कि समावेशी विकास के रास्ते पर जाएं। इसके लिए एक जागरूक मध्यवर्ग की जरूरत है, जो पाखंडी राजनीति पर दबाव बनाए।

पुराने अखबारों की कतरनें खोजते हुए 16 मार्च 2004 को शोलापुर में लालकृष्ण आडवाणी के एक संवाददाता सम्मेलन की रपट हाथ लगी, जिसमें आडवाणी ने आर्थिक उदारीकरण की जबर्दस्त हिमायत की थी। उन्होंने कहा, यह मान लेना गलत है कि उदारीकरण के बाद समाज के पिछड़े वर्गों को बाजार की ताकतों का सहारा नहीं मिलेगा। 1998 से 2004 तक एनडीए सरकार ने उदारीकरण के रास्ते को न सिर्फ पूरी तरह मंजूर किया था, बल्कि इंडिया शायनिंग का नारा दिया था। उस दौर में कांग्रेस उदारीकरण की नीतियों का विरोध कर रही थी। 2004 के चुनाव के बाद बाद बने यूपीए ने अपने कॉमन मिनीमम प्रोग्राम में उदारीकरण की बातों को कुछ दबाकर रखा था, क्योंकि वामपंथी पार्टियों का दबाव था। पर मनमोहन सिंह ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को भरोसा दिलाया कि उदारीकरण जारी रहेगा। 2004 के चुनाव के पहले तक विदेशी निवेश की चैम्पियन भाजपा ने चुनाव हारते ही कहा कि हम नागरिक उड्डयन में विदेशी निवेश का विरोध करेंगे। उसके पहले 1997 में जब चिदम्बरम वित्त मंत्री थे, बीमा निजीकरण के बिल का भाजपा ने विरोध किया था। जब अपनी सरकार आई तो उसने ही बीमा में विदेशी पूँजी के दरवाजे खोले। नब्बे के दशक में आंध्र और कर्नाटक विधान सभा के चुनाव हो रहे थे। आंध्र में एनटी रामाराव ने दो रुपए किलो चावल देने का वादा किया। वे जीत गए, पर चुनाव के बाद वहाँ आठ रुपए किलो चावल बिका। उसी राज्य में चन्द्रबाबू नायडू आर्थिक उदारीकरण के ध्वजवाहक बनकर उभरे। सम्भव है आज वे उसी उदारीकरण का विरोध करें। 1996 में कांग्रेस हारी तो किसी ने पूछा अब आर्थिक उदारीकरण का क्या होगा। इसके बाद आया संयुक्त मोर्चा जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। उसके वित्त मंत्री अपने पी चिदम्बरम थे। उन्होंने पहिया पीछे नहीं घुमाया।

जीवन में हम आदर्शवादी हैं। गांधी की कसमें खाते हैं। व्यवहार में ढोंगी हैं। अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन से हमने अपनी पूरी राजनीतिक-प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्था ली। उस पर चलते हैं और उसे कोसते भी हैं। हर बात में ईस्ट इंडिया कम्पनी नज़र आती है। वैश्वीकरण पाप है तो उसका खुलकर विरोध कीजिए और कोई वैकल्पिक व्यवस्था लागू कीजिए। हम समझ नहीं पाए हैं कि हमें खेतिहर समाज बने रहना है या शहरीकरण होना है। औद्योगीकरण की जरूरत है या नहीं। इसमें पूँजी की क्या भूमिका होगी? यह पूँजी सरकारी क्षेत्र में हो या प्राइवेट क्षेत्र में? दोनों में क्या फर्क है? कौशिक बसु को लगता है कि 2014 के चुनाव के पहले उदारीकरण का पहिया चल नहीं पाएगा। इसके पीछे उनकी निराशा है, पर जिस देश में बैकरूम राजनीति ज्यादा महत्वपूर्ण है वहाँ इतना निराश होने की जरूरत भी नहीं है। यहाँ पॉलिसी पैरिलिसिस है भी और नहीं भी है।

हाईटेक न्यूज़ में प्रकाशित

1 comment:

  1. Well analysed. Under the circumstances mid term election appears a strong possibility.
    Lalit

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