Sunday, April 15, 2012

भारत-पाक रिश्तों की गर्मी-नर्मी

अब से दो साल पहले इन्हीं दिनों कश्मीर में माहौल काफी खराब हो गया था। एक तरफ जम्मू के इलाके में आंदोलन था तो दूसरी ओर मई-जून में श्रीनगर की घाटी में अचानक तनाव बढ़ गया। अलगाववादियों ने छोटे बच्चों को इस्तेमाल करना शुरू किया। सुरक्षा दस्तों पर पत्थर फेंकने की नई मुहिम शुरू हो गई। उमर अब्दुल्ला की अपेक्षाकृत नई सरकार के सामने परेशानियाँ खड़ी हो गईं। उस मौके पर भारत सरकार ने तीन वार्ताकारों की एक टीम को कश्मीर भेजा। बातचीत को व्यावहारिक बनाने के लिए इस टीम को अनौपचारिक तरीके से हरेक पक्ष से बातचीत करने की सलाह दी गई। इसके बाद एक सर्वदलीय टीम भी श्रीनगर गई, जिसने हुर्रियत से जुड़े नेताओं से भी बात की। हालांकि कश्मीर में खड़ा किया गया बवाल अपने आप धीमा पड़ गया, क्योंकि बच्चों की पढ़ाई का हर्जा हो रहा था और हासिल कुछ हो नहीं रहा था। भारत सरकार के तीनों वार्ताकारों का काम चलता रहा। इस दौरान तीनों के बीच के मतभेद भी उजागर हुए। बहरहाल पिछले साल अक्टूबर में इस दल ने अपनी रपट गृहमंत्री को सौंप दी, जो अब जारी हो रही है।

वार्ताकारों की सिफारिशों से ज्यादा महत्वपूर्ण है इस रपट के जारी होने का समय। पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को अचानक अजमेर शरीफ यात्रा का विचार क्यों आया? और क्या इस यात्रा से कुछ भी हासिल नहीं हुआ? यह निजी यात्रा थी इस सिलसिले में कोई औपचारिक वक्तव्य जारी नहीं होना था और नीतिगत सवाल इससे जुड़े भी नहीं थे। पर प्रधानमंत्री ने दोनों देशों के रिश्तों में आ रहे बदलाव का संकेत अपने वक्तव्य में दिया। साथ ही उन्होंने हफीज सईद का मामला भी उठाया। दूसरी ओर विदेश सचिव रंजन मथाई ने स्पष्ट किया कि कश्मीर सहित सभी सवालों पर दोनों देशों के बीच बातचीत होगी। पिछले हफ्ते पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी ने कहा कि भारत के साथ बातचीत को एक नई टीम आगे बढ़ाएगी। इस बयान से कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि शायद विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार का पत्ता कटने वाला है, पर ऐसा नहीं है।

भारत और पाकिस्तान रिश्तों को दूर से देखें तो लगता है दोनों में कोई बदलाव नहीं, पर बारीकियों पर जाएं तो काफी चीजें बदलती नज़र आती हैं। पिछले एक साल में दोनों देशों ने आपसी व्यापार के मामले में काफी प्रगति की है। पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति के अंतर्विरोधों को हल करते हुए ही भारत के साथ रिश्ते बनाए जा सकते हैं। पाकिस्तान सरकार ने कुछ महीने पहले घोषणा की भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा दे दिया गया है। मोस्ट फेवर्ड नेश का उर्दू तर्जुमा होता है सबसे पसंदीदा मुल्क। सिर्फ इस शब्द ने इस घोषणा को रुकवा दिया। पर व्यापार की नकारात्मक सूची को छोटा करके वही काम कर दिया गया। ज़रदारी की यात्रा के दौरान यह बात कही गई कि भारत-पाक रिश्ते क्यों नहीं भारत-चीन रिश्तों की तर्ज पर स्थापित किए जाते? भारत और चीन के बीच सीमा विवाद काफी व्यापक है, फिर भी दोनों के बीच तकरीबन 50 अरब डॉलर का सालाना कारोबार हो रहा है जो 60 अरब हो जाएगा। चीन ने ताईवान के साथ कारोबार शुरू कर दिया है, जिसे वह देश के रूप में मान्यता भी नहीं देता। यह बात पाकिस्तानी प्रतिष्ठान को समझ में आती है, पर वहाँ एक तबका ऐसा भी है जो भारत के साथ रिश्तों को कत्तई मंज़ूर नहीं करता।

पाकिस्तान इस वक्त चौराहे पर है। वहाँ एक सिविल सोसायटी विकसित हो रही है। दूसरी ओर अफगानिस्तान की छाया से वह मुक्त नहीं हो पा रहा है। वहाँ की राजनीति में इतना दम नही कि कट्टरपंथियों का खुलकर विरोध कर सके। भारतीय राजनीति भी जातीय-धार्मिक जकड़बंदी में है, पर हमारी संवैधानिक संस्थाएं अपेक्षाकृत विकसित हैं। बहरहाल पाकिस्तान में कई किस्म की धाराएं हैं। एक धारा देश के इतिहास को भारतीय इतिहास से अलग रखना चाहती है। सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मसलों पर अरब देशों की ओर मुँह करके ही सोचने-समझने वालों का तबका काफी प्रभावशाली है। इस कट्टरपंथी तबके को फौज का सहारा मिलता है। फौज के बड़े हिस्से की हमदर्दी इनके साथ है। पाकिस्तानी फौज भारत की तरह गैर-राजनीतिक सेना नहीं है। कम से कम कट्टरपंथी तबका उसे इस्लाम की सेना बनाना चाहता है, सिर्फ पाकिस्तान की सेना नहीं। लोकतंत्र और राजनीति वहाँ पश्चिमी धारणाएं समझी जाती हैं। इसीलिए सेना को समर्थन मिलता है। लश्करे तैयबा जैसे संगठन वहाँ सेना के साथ हैं और राजनीति के खिलाफ। यह पाकिस्तान में ही सम्भव है कि कैबिनेट मीटिंग में फौजी जनरल शिरकत करें। कम से कम विदेश नीति और विदेश व्यापार नीति पर फौज की स्वीकृति ज़रूरी है। विदेश नीति और व्यापार नीति में लचीलापन आने से व्यवस्था पर सेना की पकड़े अपने आप कम हो जाएगी।

पाकिस्तानी सेना का जीवन के हर क्षेत्र में बोलबाला है। इस बात को समझने में हमें दिक्कत होगी कि भला व्यापार में सेना की क्या दिलचस्पी। पर दिलचस्पी है। पाकिस्तानी सेना व्यापार में भी जुड़ी है। वह बेकरी, खाद्य सामग्री, सीमेंट, उर्वरक, खेती, प्राइवेट सिक्योरिटी, बैंकिंग, इंश्योरेंस, स्कूल से लेकर रेडियो और टीवी के चैनल तक चलाती है। भारत के साथ व्यापार शुरू होने पर उसके हितों पर भी असर पड़ेगा। देश का व्यापारी वर्ग भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते चाहता है। व्यापार बढ़ने पर आर्थिक गतिविधियों में गति आएगी जो रोजगार के अवसर बढ़ाएगी। और जब लोगों की आजीविका दाँव पर होगी तब वे रिश्तों की कद्र करना भी सीखेंगे। कट्टरपंथी धारणाएं पाकिस्तान को आर्थिक रूप से पीछे ले जा रहीं हैं। इसे रास्ते पर लाने का काम राजनीति का है, पर राजनीति को लोकप्रिय होने के लिए कट्टरपंथी भाषा बोलनी पड़ती है।

यह बात दोनों देशों पर लागू होती है। जिस तरीके से पाकिस्तान में भावनाओं का उफान है उसी तरह हमारे यहाँ भी पाकिस्तान से रिश्तों को लेकर मतैक्य नहीं है। कश्मीर को लेकर देनों देश कोई फॉर्मूला बना भी लें तो उसके लिए सर्वानुमति बनाना आसान नहीं होगा। इसलिए पहली ज़रूरत है कड़वाहट को कम करना। कारोबार उसका पहला रास्ता है। इसके बाद सांस्कृतिक आदान-प्रदान दूसरा रास्ता है। संगीत, नाटक, सिनेमा, खेलकूद वगैरह। हालांकि वर्ल्ड सीरीज हॉकी में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को स्वीकार कर लिया गया, पर आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को हमने स्वीकार नहीं किया। दोनों देशों के बीच औपचारिक बैंकिंग व्यवस्था नहीं है, इसलिए कश्मीर में सारा व्यापार बार्टर पर होता है।

अगले सोमवार को दोनों देशों के गृह सचिवों की मुलाकात होने वाली है। इसमें सम्भव है कि हाफिज सईद के बारे में कुछ सबूत पाकिस्तान को सौंपे जाएं। पर पाकिस्तानी अदालतें हाफिज सईद पर कार्रवाई की अनुमति दे देंगी ऐसा नहीं लगता। हमारे पास हेडली और अजमल कसाब के बयान हैं। मानें तो सबूत हैं न मानें तो नहीं हैं। यह बात पाकिस्तानी जनता को भी समझनी चाहिए। पर पूरा पाकिस्तानी समाज एक जैसा नहीं सोचता। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अजमल कसाब के पाकिस्तानी सम्पर्कों को सबसे पहले पाकिस्तानी मीडिया ने ही उजागर किया था। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान में कोई है जो रिश्ते बिगाड़ना चाहता है। उसके पास धमाकों का हथियार है।

पाकिस्तान सरकार बेहद कमज़ोर है। दिल्ली की यूपीए सरकार की तरह वह भी सहयोगी पार्टियों की मदद से चल रही है। उनके देश में अब किसी भी वक्त चुनाव की घोषणा हो सकती है। यों अगले साल चुनाव होने हैं। प्रधानमंत्री के खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला है। राष्ट्रपति के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चलाने के लिए अदालती दबाव है। संवैधानिक संस्थाएं अपरिभाषित हैं। अमेरिका के साथ हर तरह के रिश्तों को परिभाषित करने का काम चल रहा है। सरकार की हिम्मत नहीं है। सेना की ताकत भी अमेरिका का साथ छोडने की नहीं है। पर जनमत धुर अमेरिका विरोधी बनने दिया गया है। दिफा-ए-पाकिस्तान जैसे संगठनों को सिर उठाने दिया गया है। भारत के साथ बातचीत शुरू करके पाक सरकार अपनी राजनीति को एक सौम्य चेहरा देना चाहती है। हो सकता है वह इसमें सफल हो।

जनवाणी में प्रकाशित

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