Sunday, December 5, 2010

मशहूर होने की पत्रकारिता


बरखा दत्त की पत्रकारिता शैली और साहस की तारीफ होती है। वे करगिल तक गईं और धमाकों के बीच रिपोर्टिंग की। न्यूयार्क टाइम्स ने इस मामले पर एक रपट प्रकाशित की है जिसमें बरखा दत्त के बारे में जानकारी देते वक्त उस उत्साह का विवरण दिया है जो उन्हें विरासत में मिला है। न्यूयार्क टाइम्स के अनुसार-


Ms. Dutt has followed in the footsteps of her mother, Prabha Dutt, who was a trailblazing female newspaper reporter, barging her way onto the front lines of the battles with Pakistan in 1965 despite her editors’ reluctance to dispatch a woman to cover a war.
“She was a very aggressive, first-of-her-generation kind of reporter,” said Sevanti Ninan, who is now a media critic running a journalism Web site called The Hoot. Ms. Ninan was a contemporary of Prabha Dutt, who died of a brain hemorrhage when Barkha was 13.
“I grew up as a child of news,” Barkha Dutt said. “When I was 5 years old, I was made to look at covers of Time magazine and identify the world leaders.”
Ms. Dutt has been criticized for failing to recognize that the mere fact that a corporate lobbyist was so deeply involved in trying to get a particular person named to a cabinet post was a story in itself. The lobbyist was trying to persuade the government to reappoint Andimuthu Raja, the politician at the center of a telecommunications scandal that may have cost the Indian government as much as $40 billion. Mr. Joseph, the editor of Open, the magazine that broke the tapes story, called this “the story of the decade.”
BUT reporters in the fast-paced world of 24-hour cable news often miss the forest for the trees, said Mannika Chopra, a media critic.
“They are so eager to get that one bite,” Ms. Chopra said. “So they overlook the big picture.”

पत्रकारिता में साहस, उत्साह और आक्रामकता का महत्व ज़रूर है, पर यह बुनियादी तत्व नहीं है। बुनियादी तत्व है सार्वजनिक हित। उत्साह व्यक्तिगत  धरातल पर है तो वह निजी लक्ष्यों और कामनाओं की पूर्ति कराता है।  आज के जीवन में यह आम बात है। बच्चे हर कीमत पर अपनी इच्छाएं पूरी करना चाहते हैं। पत्रकारिता भी उन्हें प्रसिद्ध बनाती है। ऐसी प्रसिद्धि अपराध से मिले तो वे उसमें भी कूद सकते हैं।

राडिया टेपों को सुनें तो एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किसी पत्रकार ने आईपीसी में दर्ज कोई अपराध नहीं किया। और किसी कम्पनी ने अपनी पसंद का मंत्री चाहा तो उसने भी अपराध नहीं किया। इसलिए पत्रकारों को क्या कोसा जाए। दरअसल हम पत्रकारों की जिम्मेदारी को लेकर  परेशान हैं। वे अपनी भूमिका से भटक रहे हैं। टीवी का पत्रकार अभिनेता की भूमिका में आ गया है। अक्सर हम हीरो के रोल करने वाले अभिनेता से हमदर्दी और विलेन का रोल करने वाले से नाराज़गी पाल लेते हैं। पत्रकार की अभिनेता बनने की कामना को सनसनी या वैसे ही कार्यक्रमों को देखने से समझें। अपराध कार्यक्रमों को पेश करने वाला भी सनसनीखेज शैली में संवाद बोलेगा तब वह प्रभावशाली होगा।

वस्तुतः पत्रकार को समझना चाहिए कि वह जिस युद्ध का वर्णन कर रहा है वह युद्ध उसका नहीं है। डिटैचमेंट और तटस्थता के महत्व को हम समझ ही नहीं पा रहे हैं। अपने सोर्स से पत्रकार का रिश्ता कैसा हो इसे लेकर समझदारी होनी चाहिए। सिर्फ मशहूर होना हम महत्वपूर्ण क्यों मानते हैं। मशहूरी के दुश्मन भी होते हैं। पत्रकार जितना प्रसिद्ध होता जाएगा मौका पड़ने पर उसकी घिसाई भी उतनी ज्यादा होती जाएगी। इस वक्त कई तरह के लोग मामले उठा रहे हैं और दाएं-बाएं जिसपर मौका लग रहा है वार कर रहे है। जैसे बुरा न मानो होली है कहकर रंजिशें निपटाई जाती हैं। यह व्यक्तिगत मामला नहीं है। वास्तव में ध्यान से देखें तो पूरे पत्रकारीय कर्म की शैली इसके लिए जिम्मेदार है।

न्यूयार्क टाइम्स में नीरा रडिया प्रसंग पर स्टोरी

5 comments:

  1. जोशी जी , बधाई आपको । अच्छा लिखा है आपने , बुनियादी तत्व है सार्वजनिक हित। पत्रकारिता क्यों कर रहे हैं आप ? यह जानना भी एक पत्रकार के लिए शायद बेहद जरूरी होना चाहिए । केवल अपने मशहूर होने के लिए की गई पत्रकारिता समाज के लिए न्याय नहीं कर सकती , घातक सिद्ध होगी । बहुत लिखा जाना शेष है पत्रकारिता पर जो कभी मिशन हुआ करती थी आज व्यवसायिक स्वरूप लेकर चंद घरानों की मुट्ठी में मानों कैद हो कर रह गई है ।

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  2. कहीं कुलदीप नैयर जी ने लिखा था कि पैसा कमाना है तो हो तो पेशा करो, पत्रकारिता तो देश सेवा है. अब भला इसे कौन मानेगा...

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  3. "पूरे पत्रकारीय कर्म की शैली इसके लिए जिम्मेदार है।"-..आपकी बात से सौ फीसदी सहमत. मगर यह भी देखिए कि गंगा शिखर पर ही मैली होती जा रही है तो हुगली तक पहुचते हुए उसकी क्या गति होगी| शिखर के लोग,मसलन दिल्ली के दिग्गज, पत्रकारिता के बुनियादी तत्वों को भूल चुके लगते हैं और नए दौर की "पत्रकारिता" ने एक समूची पीढी को दिग्भ्रमित किया है . २५ साल पहले पहले हमारे लिए ध्येय होता था प्रभाष जोशीजी या राजेन्द्र अवस्थीजी के कद को छूने की कोशिश मगर आज के ज्यादातर नए लोगों से पूछ लीजिए वे जर्नलिज्म में आते ही किसी और मकसद से है .

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  4. joshi ji ab kya kaha jaye, mere kai mitra issi rog ke shikar hain.

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  5. बात सर पत्रकारिता के लक्ष्मणरेखा की उठ रही है...आख़िर ख़बरों को पाने के लिए पत्रकारों का स्रोतों के बीच रूप बदलकर, उसमें अपना भविष्य तलाशना कितना उचित है...

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