Thursday, May 20, 2010

साहित्य और मीडिया की डांड़ामेड़ी

साहित्य और मीडिया में क्या कोई टकराव है ? दोनों के उद्देश्य अलग-अलग हैं ? दोनों के संरक्षक अलग-अलग हैं ? संरक्षक माने पाठक और प्रकाशक। मुझे लगता है, हम अंतर्विरोधों को देखते वक्त चीजों को बहुत संकीर्ण दृष्टि से देखते हैं। जहाँ तक अभिव्यक्ति, रचना और विचार के माध्यम का सवाल है, साहित्य का स्थान सबसे ऊपर है। पर साहित्य माने सिर्फ लिखना नहीं है। वैसे ही पत्रकारिता माने सिर्फ लिखना, रिपोर्ट करना या फोटो लेना नहीं है। इसके मर्म को समझना चाहिए।

मीडिया में भटकाव की गुंजाइश ज्यादा है, क्योंकि उसे कारोबार चलता है। उसकी ज़रूरत संदेशवाहक के रूप में है। संदेश में तमाम उचित-अनुचित छिपे हैं। कई प्रकार के स्वार्थ हैं। राग-द्वेष हैं। संदेश को पाठक या दर्शक तक आने के पहले कुछ प्रक्रियाओं से गुज़रना होता है। इन प्रक्रियाओं के अंदर ही स्वार्थ के सूत्र बैठे हैं। उनकी प्राथमिकता में साहित्य नहीं है या साहित्य को अनदेखा करने की चाहत है, इतना मान लेते हैं। पर क्या पाठक या दर्शक मीडिया का ही मोहताज है ? साहित्य की लोकप्रियता का स्तर क्या है ? साहित्य अपेक्षाकृत कारोबारी व्यवस्था से मुक्त है। मैं पूरी तरह मुक्त नहीं कहता। वहाँ भी प्रकाशन मूल्य है। पूँजी की ज़रूरत है। पर यदि पाठक पढ़ने को तैयार है तो प्रकाशक क्यों नहीं छापेगा ?

यह भी यही है कि मीडिया ने पाठकों-दर्शकों की रुचि बिगाड़ दी है, पर साहित्यकार तो समाज के शिखर पर होता है या होना चाहिए। ऐसा नहीं है। साहित्यकार का हमने सम्मान कम किया है। इसमें साहित्यकार की क्या भूमिका है ? साहित्यकार समाज का नेतृत्व करता है और करता रहेगा। यदि हिन्दी समाज में ऐसा नहीं है, तो उसके कारण खोजने चाहिए। साहित्य के अनेक स्तर होते हैं। लोकप्रिय साहित्य उत्कृष्ट हो ऐसा ज़रूरी नहीं। पर उत्कृष्ट साहित्य अलोकप्रिय होगा, ऐसा भी नहीं मानना चाहिए। दो दशक पहले तक घरों में साहित्यिक पुस्तकें आतीं थीं। अब कम हो गईं हैं। लाइब्रेरी नाम की संस्था खत्म हो गई है। उसे लेकर किसी का आग्रह या दबाव नहीं है। ऐसा देश की सभी भाषाओं में होगा, पर हिन्दी में कुछ ज्यादा है।

ब्लॉग लिखने को लेकर भी चर्चा जोरों पर है। ब्लॉग लिखा जा सकता है तो लिखना चाहिए। कम से कम लेखक किसी के आसरे पर नहीं है। बड़ी संख्या में ब्लॉग लिखे जा रहे हैं। स्वाभाविक है कि इनमें काफी आत्मश्लाघा या  प्रचार से जुड़े हैं। बदमज़गी भी है। इसके िवपरीत कुछ ऐसे भी हैं जो चीजों को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। या जो समझते हैं कि ऐसे नहीं दूसरे तरह के ब्लॉग होने चाहिए, उन्हें वैसे व्लॉग लिखने चाहिए। कोई किसी को रोक नहीं रहा। आपके पास लिखने का विकल्प है। यह बेहतर व्यवस्था है। साख बनाने और समझदार लोगों तक अपनी बात पहुँचाने में समय लग सकता है। लगने दीजिए।

1 comment:

  1. नमस्कार मित्र!
    आज फेसबुक पर देखा कि आपने ब्लॉग लेखन आरम्भ कर दिया है.मैंने बटन दबाया और कुछ सेकंडों में पहुँच गया आपकी ब्लॉग दुनिया 'जिज्ञासा' में.
    साहित्य और मीडिया के क्षेत्र को लेकर अंतर्विरोध तो आरम्भ से देखा गया है परन्तु इसके बीच एक विभाजक रेखा स्वतंत्रता के बाद खिंचने लगी जब पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन बन गयी. यह आवश्यक भी था आखिर उन्हें (पत्रकारों को) भी तो रोज़गार की दरकार थी, परिवार का पालन-पोषण करना था.
    जहाँ तक पत्रकार और साहित्यकार का सन्दर्भ है, मेरा मानना है कि प्रत्येक साहित्यकार भले ही पत्रकार न हो लेकिन प्रत्येक पत्रकार साहित्यकार होता है. आखिर उसका सन्दर्भ भी तो समाज ही है. और अगर विषय के मर्म की बात है साहित्यकार और पत्रकार में एक बड़ा अंतर योग्यता का है. प्रत्येक साहित्यकार निश्चित रूप से योग्य होता है लेकिन लेकिन पत्रकार वही योग्य होता है जिसकी योग्यता एक सामान्य मनः के लिए भी असंदिग्ध हो.
    खैर यह एक विवादित प्रश्न है. फिर कभी चर्चा होगी.
    हाँ मैं आपकी एक बात का पूर्णतः समर्थन करता हूँ कि ब्लॉग ने लोगों को लिकने का विकल्प दिया है. अपनी व्यस्त दिनचर्या से कुछ समय निकाल कर अपनी सोच को लोगों तक प्रेषित करने कि यह किसी भी अन्य माध्यम से सुलभ व्यवस्था है.
    आपका ब्लॉग पढ़कर अच्चा लगा.!!!!!!!

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