Wednesday, June 26, 2024

चीन में मुसलमानों के दमन पर वैश्विक चुप्पी

पश्चिमी युन्नान प्रांत की ग्रैंड मस्जिद शादियान के गुंबद और मीनारें गिराकर उसे चीनी शैली की इमारत बना दिया गया। चित्र में ऊपर पुरानी मस्जिद और नीचे उसकी बदली तस्वीर। चित्र द गार्डियन से साभार

चीन में मुसलमानों की प्रताड़ना से जुड़े विवरण पहले भी आते रहे हैं, पर हाल में इस आशय की खबरों की संख्या काफी बढ़ी हैं. इसके बावजूद कुछ पश्चिमी संगठनों को छोड़ दें, तो मुस्लिम देशों के संगठन (ओआईसी) या ऐसे ही किसी दूसरे बड़े संगठन की ओर से विरोध के स्वर सुनाई नहीं पड़ते हैं.

मुसलमानों को सुधार-गृहों के नाम पर बने डिटेंशन-सेंटरों के नाम पर वस्तुतः जेलों में रखा जा रहा है. इनमें लाखों व्यक्तियों को न्यायिक-प्रक्रिया के बगैर, सुधार के नाम पर कैद किया जा रहा है. शिनजियांग प्रांत में 600 से ज्यादा ऐसे गाँवों के नाम बदल दिए गए हैं, जिनसे धार्मिक-पहचान प्रकट होती थी. मस्जिदों के गुंबदों और मीनारों को हटाकर उन्हें चीनी शैली की इमारतों में बदला जा रहा है.

पहले माना जाता था कि यह दमन केवल शिनजियांग प्रांत के वीगुर समुदाय तक सीमित है, पर हाल में आई खबरें बता रही हैं कि यह दमन-चक्र देश भर में चल रहा है. पिछले एक दशक से ओआईसी ने चीन में मुसलमानों के मसले पर पूरी तरह मौन साध रखा है. मुस्लिम-हितों के लिए मुखर रहने वाला पाकिस्तान भी इस मामले में कुछ नहीं बोलता.

इस गतिविधि ने खासतौर से 2015 के बाद से जोर पकड़ा है, जब राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने धर्मों के चीनीकरण (सिनिसाइज़ेशन) का आह्वान किया था. चीनीकरण के साथ फोर एंटर अभियान भी चल रहा है, जिसका मतलब है कि हरेक मस्जिद में चार बातों को अहमियत दी जाएगी.

Wednesday, June 19, 2024

भारत-पाक संबंध-सुधार ‘असंभव’ नहीं, तो ‘आसान’ भी नहीं


 विदेशमंत्री एस जयशंकर ने पिछले मंगलवार को अपना पदभार ग्रहण करते हुए कहा था कि हमारा ध्यान चीन के साथ सीमा-विवाद और पाकिस्तान के साथ बरसों से चले आ रहे सीमा-पार आतंकवाद की समस्याओं को सुलझाने पर रहेगा.

उन्होंने कहा कि दुनिया ने देख लिया कि भारत में अब काफी राजनीतिक स्थिरता है. जहाँ तक चीन और पाकिस्तान का सवाल है, हमारे रिश्ते एक अलग सतह पर हैं और उनसे जुड़ी समस्याएं भी दूसरी तरह की हैं. 15 जून को गलवान की घटना के चार साल पूरे हो गए हैं, पर सीमा-वार्ता जहाँ की तहाँ है.

आतंकी हमले

उधर हाल में एक के बाद एक हुए आतंकी हमलों की रोशनी में लगता नहीं कि भारत सरकार, पाकिस्तान के साथ बातचीत का कोई कदम उठाएगी. माना जा रहा है कि इन हमलों के मार्फत पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने संदेश दिया है कि हम भारत को परेशान करने की स्थिति में अब भी हैं.

हाल में जम्मू-कश्मीर में हुए चुनाव में इंजीनियर रशीद की जीत से भी वे उत्साहित हैंउन्हें लगता है कि कश्मीर में हालात पर काबू पाने में भारत की सफलता के बावजूद अलगाववादी मनोकामनाएं जीवित हैं.

मोदी सरकार

पाकिस्तानी प्रतिष्ठान को यह भी लगता है कि मोदी सरकार अब राजनीतिक रूप से उतनी ताकतवर नहीं है, जितनी पहले थी, इसलिए वह दबाव में आ जाएगी. उनकी यह गलतफहमी दूर होने में कुछ समय लगेगा. वे नहीं देख पा रहे हैं कि भारत ने 2016 में माइनस पाकिस्तान नीति पर चलने का जो फैसला किया था, उसे फिलहाल बदलने की संभावना नहीं है.  

हाल में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की चीन यात्रा की समाप्ति पर जारी संयुक्त वक्तव्य में सभी लंबित विवादों के समाधान की आवश्यकता तथा किसी भी एकतरफा कार्रवाई के विरोध को रेखांकितकरके पाकिस्तान और तीन ने अनुच्छेद-370 की वापसी के विरोध पर अड़े रहने की रवैया अपनाया है.

इन बातों से लगता है कि पाकिस्तानी सेना किसी भी बातचीत के रास्ते में रोड़े बिछाएगी. अब देखना होगा कि अगले महीने 3-4 जुलाई को शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन के हाशिए पर दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की भेंट हो भी पाती है या नहीं.

Thursday, June 13, 2024

मोदी के शपथ-ग्रहण समारोह से जुड़े विदेश-नीति के संदेश


नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी तीसरी सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह में पिछली दो बार के साथ एक प्रकार की निरंतरता रही, जिसमें उनकी सरकार की विदेश-नीति के सूत्र छिपे हैं. इसमें देश की आंतरिक-नीतियों के साथ विदेश और रक्षा-नीति के संदेश भी पढ़े जा सकते हैं.

रविवार को राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में हुए शपथ-ग्रहण समारोह में सात पड़ोसी देशों के नेता शामिल हुए थे. भारत सरकार ने पड़ोसी पाकिस्तान, चीन, अफगानिस्तान और म्यांमार को समारोह में शामिल होने का न्योता नहीं दिया.

 

अफगानिस्तान के शासनाध्यक्ष का इस समारोह में नहीं होना समझ में आता है, क्योंकि अभी तक वहाँ के शासन को वैश्विक-मान्यता नहीं मिली है, पर पाकिस्तान को न बुलाए जाने का विशेष मतलब है.

बिमस्टेक की भूमिका

2014 में सरकार ने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के सभी नेताओं को आमंत्रित किया था, जिसमें अफगानिस्तान और पाकिस्तान भी शामिल थे, पर 2019 के समारोह में भारतीय विदेश-नीति की दिशा कुछ पूर्व की ओर मुड़ गई. उसमें पाकिस्तान को नहीं बुलाया गया. दूसरी तरफ म्यांमार और थाईलैंड सहित बंगाल की खाड़ी बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल (बिमस्टेक) के नेताओं ने समारोह में भाग लिया था.

Tuesday, June 11, 2024

बीजेपी का गठबंधन-चातुर्य, जिसने उसे राष्ट्रीय-विस्तार दिया


जवाहर लाल नेहरू के बाद देश में लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला है. एनडीए के गठबंधन में बनी यह पाँचवीं सरकार है. यह भी एक कीर्तिमान है.

इसके पहले दो बार यूपीए की, एक बार नेशनल फ्रंट (1989) की और एक बार युनाइटेड फ्रंट (1996) की सरकार बन चुकी है. 1977 की जनता पार्टी भी एक तरह का गठबंधन था, जो देश में पहली गैर-कांग्रेस सरकार थी.

फिराक गोरखपुरी की पंक्ति है, ‘सरज़मीने हिंद पर अक़वामे आलम के फ़िराक़/ काफ़िले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया.’ भारत को उसकी विविधता और विशालता में ही परिभाषित किया जा सकता है.

भारत हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक विरासत है, पर लोकतंत्र नई अवधारणा है. इन दोनों का मिलाप इस वक्त हो रहा है. देश के सामाजिक-जीवन में इतनी विविधता है कि दाद देनी पड़ती है, उस धागे को जिसने इसे हजारों साल से बाँधकर रखा है. उसी धागे के तार देश की राजनीति को जोड़ते हैं, जो राजनीतिक गठबंधनों के रूप में हमारे सामने है.

Friday, June 7, 2024

मोदी 3.0 की विदेश और रक्षा-नीति पर वैश्विक-दृष्टि

 


लोकसभा चुनावों के परिणामों पर भारतीय-विशेषज्ञों की तरह विदेशियों की निगाहें भी लगी हुई हैं. वे समझना चाहते हैं कि देश में गठबंधन-सरकार बनने से क्या फर्क पड़ेगा. इससे क्या विदेश-नीति पर कोई असर पड़ेगा? क्या देश के आर्थिक-सुधार कार्यक्रमों में रुकावट आएगी? पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा वगैरह.

न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा है, नरेंद्र मोदी के सत्ता के बीते 10 सालों में कई पल हैरत से भरे थे लेकिन जो हैरत मंगलवार की सुबह मिली वो बीते 10 सालों से बिल्कुल अलग थी क्योंकि नरेंद्र मोदी को तीसरा टर्म तो मिल गया, लेकिन उनकी पार्टी बहुमत नहीं ला पाई. इसके साथ ही 2014 के बाद पहली बार नरेंद्र मोदी की वह छवि मिट गई कि 'वे अजेय' हैं.

वॉशिंगटन पोस्ट ने लिखा है, भारत के मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी की लीडरशिप पर अप्रत्याशित अस्वीकृति दिखाई है. दशकों के सबसे मज़बूत नेता के रूप में पेश किए जा रहे मोदी की छवि को इस जनादेश ने ध्वस्त कर दिया है. उनकी अजेय छवि भी ख़त्म की है.

इस तरह की टिप्पणियों की इन अखबारों से उम्मीद भी थी, क्योंकि पिछले दस साल से ये मोदी सरकार के सबसे बड़े आलोचकों में शामिल रहे हैं. पर महत्वपूर्ण सवाल दूसरे हैं. सवाल यह है कि चुनाव के बाद हुए राजनीतिक-बदलाव का भविष्य पर असर कैसा होगा. सरकार को किसी नई नीति पर चलने या बनाने की जरूरत नहीं है, पर क्या वह आसानी से फैसले कर पाएगी