Tuesday, June 11, 2024

बीजेपी का गठबंधन-चातुर्य, जिसने उसे राष्ट्रीय-विस्तार दिया


जवाहर लाल नेहरू के बाद देश में लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला है. एनडीए के गठबंधन में बनी यह पाँचवीं सरकार है. यह भी एक कीर्तिमान है.

इसके पहले दो बार यूपीए की, एक बार नेशनल फ्रंट (1989) की और एक बार युनाइटेड फ्रंट (1996) की सरकार बन चुकी है. 1977 की जनता पार्टी भी एक तरह का गठबंधन था, जो देश में पहली गैर-कांग्रेस सरकार थी.

फिराक गोरखपुरी की पंक्ति है, ‘सरज़मीने हिंद पर अक़वामे आलम के फ़िराक़/ काफ़िले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया.’ भारत को उसकी विविधता और विशालता में ही परिभाषित किया जा सकता है.

भारत हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक विरासत है, पर लोकतंत्र नई अवधारणा है. इन दोनों का मिलाप इस वक्त हो रहा है. देश के सामाजिक-जीवन में इतनी विविधता है कि दाद देनी पड़ती है, उस धागे को जिसने इसे हजारों साल से बाँधकर रखा है. उसी धागे के तार देश की राजनीति को जोड़ते हैं, जो राजनीतिक गठबंधनों के रूप में हमारे सामने है.

विविधता के सूत्र

गठबंधन भारतीय राजनीति का मूल तत्व है. चाहे वह 1962 तक की कांग्रेस के एकछत्र शासन की राजनीति हो या यूपीए-2 की बहुरंगी राजनीति. इस राजनीति के तमाम गुण-दोष हैं और विचार-दर्शन और सिद्धांत भी. इसमें शुद्ध मतलब-परस्ती है, तो सामाजिक-संतुलन बैठाने के सूत्र भी हैं.  

क्षेत्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के दर्शन भी इसी के मार्फत होते हैं. कांग्रेस पार्टी खुद में एक गठबंधन है और उसकी धड़ेबाज़ी ने ही देश में पहली गैर-कांग्रेसी गठबंधन सरकार बनाई. ऐसा 1967 में उत्तर प्रदेश में हुआ. उस दौरान बिहार में 16 महीने में चार मुख्यमंत्री बदले गए. 85 विधायकों ने पाले बदले कई ने चार-चार बार पार्टियाँ बदलीं. बंगाल में अजय मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी.

इसके बाद दलबदल का एक महासंग्राम चला, जो तमाम कानून बनाए जाने के बावजूद किसी न किसी रूप में आज भी जारी है. गठबंधन 1967 में भी नई बात नहीं थी. 1952 से 1967 के पहले तक देश में गठबंधनों के चार उदाहरण भी हैं, पर 1967 का साल भारतीय राजनीति में एक बुनियादी बदलाव लेकर आया, जिसे गैर-कांग्रेसवाद कहते हैं.

परिवर्तनों का दौर

1991 से 1996 तक पीवी नरसिंह राव की अल्पसंख्यक कांग्रेस सरकार राजनीतिक कौशल से जुटाए गए बाहरी समर्थन के सहारे चली. इसी सरकार ने स्वतंत्रता के बाद से देश में सबसे बड़े आर्थिक-बदलाव किए.

राम मंदिर आंदोलन के बाद भाजपा एक नई केंद्रीय ताकत के रूप में सामने आई, पर यह पार्टी 6 बर को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से 1998 तक राजनीतिक अछूत बनी रही. 1996 में उससे हाथ मिलाने के लिए शिवसेना के अलावा कोई पार्टी सामने नहीं आई.

गैर-कांग्रेसवाद के समर्थक जॉर्ज फर्नांडिस ने और बाद में अकाली दल ने भाजपा को सहारा दिया और अंततः राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के समांतर एक ताकत तैयार हुई, जिसने करीब तीन दशक में उसका स्थान ले लिया है. हैरत की बात है कि दोनों पक्षों में भले ही राजनीतिक-स्तर तीखा विरोध रहा हो, पर अर्थव्यवस्था, विदेश-नीति और रक्षा-नीति में यूपीए और एनडीए के कार्यकाल में क्रमबद्धता बनी रही.

गठबंधनों की धुरी

इस दौरान तीसरे मोर्चे का प्रयोग भी हुआ, जो जड़ें नहीं जमा पाया है. उस मोर्चे की कमजोरी यह थी कि उसके केंद्र में कोई धुरी नहीं थी. गठबंधन चलाने के लिए एक सबल केंद्रीय दल चाहिए. 2019 के चुनाव तक इस लिहाज से राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए और एनडीए ही दो गठबंधनों के रूप में अभी तक सामने आए थे.

आज जो कांग्रेस बची है, वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ज्यादातर उन दलों के सहारे है, जो 1967 में गैर-कांग्रेसवाद का झंडा लेकर खड़े हुए थे. ये दल आज धर्मनिरपेक्षता के ध्वज के नीचे कांग्रेस के साथ खड़े हैं.

संगठनात्मक दृष्टि से कांग्रेस इनमें सबसे बड़ी पार्टी है. वह इस गठबंधन का नेतृत्व करती है या नहीं, अभी कहना मुश्किल है, पर दूसरी तरफ एनडीए का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी के हाथ में है, यह स्पष्ट है.

गठबंधन की राजनीति कांग्रेस की देन नहीं, मजबूरी रही है. तीन मौकों पर उसने गठबंधन सरकारें बनाईं और दो मौकों पर उसने बाहर से गठबंधन सरकारों को समर्थन दिया और उन्हें गिरा दिया. 2004 में पहली बार यूपीए बना, तो वामदलों के हाथ खींच लेने के कारण सरकार गिरते-गिरते बची.

इसबार के चुनाव में यूपीए का रूपांतरण इंडी गठबंधन या इंडिया के रूप में हो गया है. संभव है कि भविष्य में भारतीय राजनीति का किसी और रूप में रूपांतरण हो.

मोदी की भूमिका

नरेंद्र मोदी की कार्यशैली अटल बिहारी वाजपेयी की शैली से कुछ अलग है. पर भावनाओं को पकड़ना उन्हें आता है. उनका मन की बात कार्यक्रम इस बात की गवाही देता है. अपने कार्यकाल के पहले तीन साल में ही उन्होंने न केवल कांग्रेस के सामाजिक आधार को काफी ध्वस्त किया, बल्कि उसके लोकप्रिय मुहावरों को भी यथासंभव छीन लिया.

मोदी के स्वच्छ भारत अभियान का प्रतीक चिह्न गांधी का गोल चश्मा है. गांधी के सत्याग्रह के तर्ज पर मोदी ने ‘स्वच्छाग्रह’ शब्द का इस्तेमाल किया. 2017 में 9 अगस्त क्रांति दिवस ‘संकल्प दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान करके मोदी ने कांग्रेस की एक और पहल को छीना.  

उसी साल वे पार्टी के पक्ष में प्रचार करने के लिए वाराणसी गए, तो पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पुश्तैनी मकान में भी गए. 2018 में उन्होंने स्टेच्यू ऑफ यूनिटी (सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति) का प्रतिमा का अनावरण करके पटेल को अंगीकार किया.

उन्होंने पूरी कांग्रेस पर हमला नहीं किया, केवल नेहरू-गांधी परिवार को हिट किया. तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के साथ अच्छे संबंध बनाकर रखे, जिन्हें उन्होंने पिता-तुल्य बताया. वे समझते होंगे कि परिवार के प्रति प्रणब दा की धारणा क्या है. उन्होंने कहा, जब मैं दिल्ली आया, तो मुझे गाइड करने के लिए मेरे पास प्रणब दा मौजूद थे. मेरे जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा कि मुझे प्रणब दा की उँगली पकड़ कर दिल्ली की जिंदगी में खुद को स्थापित करने का मौका मिला.’ ये सब बातें उनकी सॉफ्ट-राजनीति का हार्ड-पहलू है.

एनडीए की यात्रा

भारतीय जनता पार्टी ने मई 1996 की तेरह दिन की सरकार बनाने के बाद समझ लिया था कि गठबंधन के बिना काम नहीं चलेगा. और इसके लिए उसने राम मंदिर का अपना लक्ष्य छोड़ दिया. औपचारिक रूप से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस यानी एनडीए) का जन्म मई 1998 में हुआ.

1998 के चुनाव में एनडीए ने 37.2 फीसदी वोट हासिल किए. यह सरकार कुछ समय बाद केवल एक वोट से हारी तो जनता की हमदर्दी और बढ़ी. 1999 में फिर से बनी अटल-सरकार ने कांग्रेस की उस राष्ट्रीय-छवि को वस्तुतः छीन लिया, जिसे वह स्वतंत्रता संग्राम की अपनी विरासत मानकर चलती थी.

गठबंधन बनेंगे तो उनके गठन के सूत्र भी बनेंगे. एनडीए को अटल बिहारी वाजपेयी का कुशल नेतृत्व मिला, जिसकी वजह से न केवल भारतीय जनता पार्टी अपने सबसे खराब दौर से बाहर निकल कर आज देश की सबसे बड़ी पार्टी बनने में कामयाब हुई है.

अटल बिहारी के नेतृत्व में एनडीए ने समन्वय समिति की अवधारणा भी दी. गठबंधन की वैश्विक प्रवृत्तियों को देखें तो यह काम आसान नहीं था. 2010 में जब ब्रिटेन में लिबरल डेमोक्रेट और कंजर्वेटिव पार्टियों के बीच अचानक गठबंधन बनने की नौबत आई, तो दोनों पार्टियों ने पेपरवर्क करके उसे सलीके से औपचारिक रूप दिया.

गठबंधन-धर्म

भारत में अनेक किस्म के राजनीतिक समूह बनने का कारण है हमारी सामाजिक विविधता. आज हम कल्पना नहीं करते कि कभी कांग्रेस और भाजपा का गठबंधन बनेगा या दो विपरीत सामाजिक आधार वाली पार्टियाँ गठबंधन करेंगी. गठबंधन की बुनियाद ही अलग-अलग समूहों को प्रतिनिधित्व देने पर निर्भर करती है. जम्मू-कश्मीर में बीजेपी और महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के बीच एक बार ऐसा गठबंधन भी हो चुका है, जो सफल नहीं हुआ.

गठबंधन का मतलब है सभी भागीदारों को जोड़कर रखने का कौशल. एनडीए के पहले अध्यक्ष थे अटल बिहारी वाजपेयी. 1998 से 2004 तक उनके नेतृत्व में एनडीए की सरकार रही. गठबंधन-धर्म शब्द का आविष्कार भी उन्होंने ही किया, जिसका आशय भी स्पष्ट है.

गठबंधन को चलाने वाली समन्वय समिति की अवधारणा का श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी को जाता है. यूपीए-2 ने जुलाई 2012 के अंतिम सप्ताह में समन्वय समिति बनाई, वह भी कांग्रेस और एनसीपी के बीच विवाद को निपटाने के उद्देश्य से.

एनडीए सरकारों में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे अपनी पार्टी के दिग्गजों के अलावा जॉर्ज फर्नांडिस, ममता बनर्जी, शरद यादव, नीतीश कुमार और डीएमके के मंत्रियों ने भी काम किया.

अटल फैक्टर

भारतीय जनसंघ के भारतीय जनता पार्टी और फिर गठबंधन के रूप में एनडीए के विकास में अटल बिहारी वाजपेयी की सबसे बड़ी भूमिका है. नेहरू जैसे प्रखर वक्ता के मुकाबले वे न केवल खड़े रहे बल्कि उनकी प्रशंसा के पात्र भी बने.

उन्होंने नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, नरसिंहराव, देवेगौडा और गुजराल के प्रधानमंत्रित्व में विरोध की कुर्सियों से अपने विचार व्यक्त किए, जिनके सहारे आज बीजेपी इस मुकाम तक पहुँची है.  

1996 में बीजेपी की 13 दिन की सरकार की विफलता के कुछ सबक साफ थे. बीजेपी का ‘हिंदुत्व’ उसे पैन-इंडिया पार्टी बनने में आड़े आ रहा था. अटल के नेतृत्व में पार्टी ने इसके तोड़ के लिए देश अलग-अलग इलाकों में अपने सहयोगियों की तलाश शुरू की.

वाजपेयी ने यह साबित किया कि बीजेपी भी देश पर राज कर सकती है. उसे स्थायी विपक्ष के स्थान पर सत्ता-पक्ष बनाने का श्रेय उन्हें जाता है. उन्होंने वह सूत्र पकड़ा, जिसके कारण कांग्रेस देश की एकछत्र पार्टी थी.

1984 में पार्टी के केवल दो सांसद जीतकर आए थे, जिनकी संख्या 1989 में 85 हुई, फिर 1991 में 120, 1996 में 161 और 1998 में 182. तूफान से घिरी पार्टी की किश्ती को न केवल उन्होंने बाहर निकाला, बल्कि सिंहासन बैठा दिया. राजनीति की जटिलताओं को वे अपने लंबी खामोशी से सुलझाते थे.

बीजेपी का उदार-मुख

ऐसे कई मौके आए, जब अटलजी ने उदार होकर फैसले किए. मौका आया तो धारा के खिलाफ फैसला किया. 2004 में भारतीय क्रिकेट टीम के पाकिस्तान दौरे के ठीक पहले पेच फँस गया था. शिवसेना का विरोध तो था ही आडवाणी जी का गृह मंत्रालय भी इस दौरे के पक्ष में नहीं था. लेकिन वाजपेयी ने दौरे की अनुमति दे दी. वह दौरा बेहद सफल रहा और भारतीय क्रिकेट के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित हो गया.

गठबंधन बनाने के अलावा 1996 में 13 दिन की सरकार गिरने और उसके बाद 1998 में एक वोट से हारने के बावजूद वे संसद में अपने भाषणों से देश का ध्यान इस तरफ खींचने में कामयाब हुए थे कि हमारे साथ अन्याय हुआ है. 1996 में पहली बार महत्वपूर्ण संसदीय बहस का सीधा राजनीतिक प्रसारण हुआ. इसका पूरा लाभ अटल बिहारी वाजपेयी ने उठाया.

अटल के भाषणों को जनता अवाक् सुनती रही. भविष्य के चुनावों पर उस भाषण का गहरा असर पड़ा. बीजेपी की स्वीकार्यता बढ़ी. 28 मई 1996 के भाषण के अंत में उन्होंने कहा, ‘हम संख्याबल के सामने सिर झुकाते हैं.’

इसके पहले उन्होंने कहा, आज मेरी सरकार के प्रति अविश्वास प्रकट करने के लिए जो दल एक हो रहे हैं, वे एक-दूसरे के खिलाफ गंभीर आरोप लगाते हुए लड़े थे. उन्होंने अपने विरोधियों के अंतर्विरोधों को वोटर के सामने रखने में काफी समझदारी बरती. इस तरह उनका गठबंधन-चातुर्य और राजनीतिक परिपक्वता अंततः रंग लाई.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment