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तेलंगाना टुडे में सुरेंद्र का कार्टून |
काफी समय से चर्चा थी कि नीतीश कुमार एक बार
फिर पाला बदलेंगे, पर शायद उन्हें सही मौके और ऐसे ट्रिगर की तलाश थी, जिसे लेकर
वे अपना रास्ता बदलते। यों इसकी संभावना काफी पहले से व्यक्त की जा रही थी। जब जेडीयू
के अंदर आरसीपी सिंह पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा, तब इसकी पुष्टि होने लगी। उसके
पहले बिहार विधानसभा के शताब्दी समारोह के निमंत्रण पत्र में नीतीश कुमार का नाम नहीं
डाला गया, तब भी इस बात का इशारा मिला था कि टूटने की घड़ी करीब है।
बहरहाल बदलाव हो चुका है, इसलिए ज्यादा बड़ा
सवाल है कि राज्य की राजनीति अब किस दिशा में बढ़ेगी? क्या
तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी ज्यादा समझदार हुई है? कांग्रेस
की भूमिका क्या होगी? शेष छोटे दलों का व्यवहार कैसा रहेगा वगैरह?
पीएम मैटीरियल
क्या नीतीश कुमार 2024 में प्रधानमंत्री पद के
लिए विरोधी दलों के प्रत्याशी बनकर उभरना चाहते हैं?
राहुल गांधी, ममता बनर्जी, केसीआर और अरविंद
केजरीवाल की मनोकामना भी शायद यही है। बहरहाल आरसीपी सिंह ने दो ऐसी बातें कहीं जो नीतीश
के कट्टर विरोधी भी नहीं करते। उन्होंने कहा, "नीतीश
कुमार कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, सात जनम तक नहीं।"
यह भी कि, "जनता दल यूनाइटेड डूबता जहाज़ है। आप
लोग तैयार रहिए।" इन बातों से भी नीतीश कुमार को निजी तौर चोट लगी।
मंगलवार की शाम एक पत्रकार ने प्रधानमंत्री पद
के प्रत्याशी से जुड़ा सवाल किया, तो नीतीश ने कहा, नो कमेंट। 2014 से कहा जा रहा
है कि नीतीश कुमार में पीएम मैटीरियल है। जेडीयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र
कुशवाहा ने इस बार भी गठबंधन से अलग होने से पहले प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि
नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री बनने के तमाम गुण हैं।
नीतीश कुमार को नज़दीक से जानने वाले कई नेताओं
ने तसदीक की है कि प्रधानमंत्री पद की चर्चा होने पर नीतीश खुश होते हैं। आरसीपी
सिंह तो उनके बहुत क़रीब रहे हैं। वे उनके मनोभावों को समझते हैं। बीजेपी के राज्यसभा
सांसद सुशील मोदी ने ट्वीट किया, यह सरासर सफ़ेद झूठ है कि भाजपा ने
बिना नीतीश जी की सहमति के आरसीपी को मंत्री बनाया था। यह भी झूठ है कि जेडीयू को बीजेपी
तोड़ना चाहती थी। बल्कि जेडीयू ही तोड़ने का बहाना खोज रही थी।
क्षेत्रीय दलों का भविष्य
उधर 31 जुलाई को बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने
कहा कि आने वाले दिनों में सभी
क्षेत्रीय दल ख़त्म हो जाएंगे। फिर जिस तरह से महाराष्ट्र में बीजेपी ने
शिवसेना को तोड़ा, उसे लेकर भी नीतीश कुमार सशंकित थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में
जेडीयू को प्राप्त सीटों में भारी गिरावट भी एक इशारा था। ऊपर कही गई ज्यादातर
बातें निजी या पार्टी के हितों को लेकर हैं, जो वास्तविकता है। पर राजनीति पर
विचारधारा का कवच चढ़ा हुआ है, जिसका जिक्र अब हो रहा है। यूनिफॉर्म सिविल कोड और
तीन तलाक़ जैसे मुद्दों पर और हाल में अग्निवीर कार्यक्रम को लेकर भी उनका
दृष्टिकोण बीजेपी के नजरिए से अलग था। जातीय जनगणना को लेकर भी नीतीश कुमार का रास्ता
अलग था।
नई ऊर्जा
माना जा रहा है कि इस उलटफेर से विरोधी पार्टियों
में नई ऊर्जा देखने को मिलेगी। करीब-करीब ऐसी ही बात 2015 में जब पहली बार महागठबंधन
बना तब कही गई थी। हालांकि उस ऊर्जा की हवा नीतीश कुमार ने ही 2017 में निकाल दी।
उसके बाद 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी और अखिलेश यादव की
जोड़ी भी विफल रही। पर 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद जेडीएस और कांग्रेस
की सरकार बन गई, तब एकबार फिर ऊर्जा नजर आने लगी। पर वह ऊर्जा ज्यादा देर चली
नहीं। सवाल है कि क्या अब लालू
और नीतीश की जोड़ी सफल होगी? इसका जवाब नई सरकार
के पहले छह महीनों में मिलेगा। महागठबंधन लंबे समय तक बना रहा और उसके भीतर टकराव
नहीं हुआ, तो बिहार की राजनीति में बदलाव होगा। पर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया भी
होगी।
मित्र-विहीन
भाजपा
तेजस्वी यादव ने कहा है कि हिंदी पट्टी वाले
राज्यों में बीजेपी का अब कोई भी अलायंस पार्टनर नहीं बचा। उन्होंने कहा, बीजेपी किसी भी राज्य में अपने विस्तार के लिए क्षेत्रीय पार्टियों
का इस्तेमाल करती है, फिर उन्हीं पार्टियों को ख़त्म करने के
मिशन में जुट जाती है। बिहार में भी यही करने की कोशिश हो रही थी। राजनीति में ऐसा
ही होता है। बीजेपी का विस्तार होगा तो किसकी कीमत पर? उत्तर
प्रदेश में मुलायम सिंह ने सपा का विस्तार किया तो गायब कौन हुआ? कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी।
बिहार में भी दो दशक पहले बीजेपी की ताकत क्या
थी और आज क्या है? पार्टनर एक-दूसरे के करीब आते हैं, तो अपने हित
के लिए आते हैं। नीतीश कुमार और बीजेपी एक-दूसरे के करीब अपने हितों के लिए आए थे।
और आज नीतीश कुमार राजद के पास गए हैं, तो इसलिए कि वे 2024 और उससे आगे की
राजनीति में खड़े रह सकें।
ताकत बढ़ी
बीजेपी के समर्थक मानते हैं कि फौरी तौर पर
राज्य में धक्का जरूर लगा है, पर दीर्घकालीन दृष्टि से बीजेपी के लिए यह फ़ायदे की
बात है। बीजेपी खेमे में 2020 के चुनाव परिणाम को लेकर नाराज़गी थी
कि जेडीयू को 122 सीटें नहीं दी गई होती, तो बीजेपी अकेले दम पर सरकार बना सकती थी। देखना यह है कि बिहार की
जातीय संरचना में अब बीजेपी क्या करती है। नीतीश कुमार के कारण कुर्मी वोट का एक
आधार उसके साथ था। इसके अलावा अति-पिछड़े वोटर भी एनडीए के साथ थे। क्या पार्टी
बिहार के जातीय-समूहों के बीच से नए नेतृत्व को खोज पाएगी? इसका
जवाब मिलने में भी कम से कम छह महीने लगेंगे।