महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल के शंकरनारायणन के
बाद केरल की राज्यपाल शीला दीक्षित ने भी इस्तीफा देकर मोदी सरकार के काम को आसान
कर दिया है, पर राज्यपालों की बर्खास्तगी और नियुक्ति को लेकर राष्ट्रीय विमर्श का
समय आ गया है. सरकारिया आयोग ने सुझाव दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 155 में
संशोधन करके राज्यपालों की योग्यता और नियुक्ति प्रक्रिया को तय किया जाना चाहिए.
यह भी तय किया जाना चाहिए कि राज्यपाल का पद क्या इस हद तक राजनीतिक है कि सरकार
बदलते ही उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए या उनका कार्यकाल गारंटीड हो जैसी कि
सरकारिया आयोग की सलाह थी. सन 2004 में जब यूपीए ने एनडीए के राज्यपाल हटाए थे तब
भाजपा के जो तर्क थे, वे आज कांग्रेसी ज़ुबान पर हैं.
सोलहवीं लोकसभा का पहला बजट सत्र पिछले चार साल का सबसे सकारात्मक सत्र रहा. लोकसभा ही नहीं, संसद के दोनों सदनों ने कम व्यवधान और ज्यादा काम का रिकॉर्ड बनाया.
पन्द्रहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र में जितनी क्लिक करेंगहमा-गहमी और शोरगुल देखने को मिली थी, उसके मुकाबले इस बार का सत्र अपेक्षाकृत शांति और सद्भाव के माहौल में गुजरे हैं.
संसदीय कार्यवाही का बेहतर माहौल में चलना क्या संकेत दे रहा है? क्या इससे भविष्य की राजनीति को लेकर कोई संकेत दिख रहा है? क्या लंबे समय से लंबित विधेयकों को सरकार पास कराने की कोशिश करेगी?
इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने.
पढ़िए विस्तार से
संसद की बैठकें शुरू होने के पहले आशंका व्यक्त की जा रही थी कि बहुमत के चलते कहीं ऐसा न हो कि सरकार विमर्श के बगैर ही अपने फ़ैसले करके उन्हें पास कराने की औपचारिकता भर पूरी करे. फिलहाल ऐसा नहीं लगता. अच्छी बात यह है कि सदन में पहली बार आए सदस्यों में भारी उत्साह नज़र आया और प्रश्नोत्तर काल में भी सुधार हुआ.
हंगामों की विदाई
लोकसभा ने 27 बैठकों में 167 घंटे और राज्यसभा में 142 घंटे काम हुआ. व्यवधान में लोकसभा ने तकरीबन 14 घंटे गंवाए जिसकी भरपाई 28 घंटे से ज़्यादा समय अलग से बैठकर की गई.
क्लिक करेंराज्यसभा में हंगामे के कारण 34 घंटे काम काज नहीं हो सका, लेकिन उसने 38 घंटे अतिरिक्त काम करके उसकी भरपाई की. इसकी तुलना पन्द्रहवीं लोकसभा से करें तो सन 2010 का पूरा शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया था और 2013 के बजट सत्र के दौरान सिर्फ 19 घंटे 36 मिनट काम हुआ था.
इस सत्र में दोनों सदनों ने न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक और उससे जुड़े संविधान विधेयक को तकरीबन आम सहमति से पास किया, वहीं बीमा विधेयक को राज्यसभा ने प्रवर समिति को सौंप कर गहरी राजनीतिक असहमति का अहसास भी कराया है.
संसद के इस सत्र के शांति-सद्भाव और सहमति-असहमति से जुड़े कुछ सवाल भी उठे हैं, जिनके जवाबों मे भविष्य की राजनीति और प्रशासन की दिशा छिपी है. एक ओर संसदीय सद्भाव वापस हुआ है, वहीं राजनीति में टकराव के कुछ नए मोर्चे खुलते दिखाई पड़ रहे हैं.
आर्थिक उदारीकरण पर टकराव
इंश्योरेंस कानून में संशोधन को लेकर यूपीए और एनडीए के बीच टकराव व्यावहारिक राजनीति का है. सिद्धांततः दोनों पक्ष इंश्योरेंस में विदेशी निवेश को बढ़ाकर 49 फीसदी करना चाहते हैं. यह विधेयक यूपीए सरकार ने ही पेश किया था और पन्द्रहवीं लोकसभा ने इसे पास कर दिया था.
अभी श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर राजनीतिक विरोध होगा. यूपीए सरकार भी इन कानूनों को पास कराना चाहती थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में कहा कि दुनिया के देशों से कहें ‘कम एंड मेक इन इंडिया.’
मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में विदेशी निवेश के लिए देश के श्रम कानूनों में बदलाव की बड़ी शर्त है. इससे जुड़े बदलावों को लाने के पहले सरकार को अलोकप्रियता का सामना करने को तैयार होना होगा.
खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के यूपीए सरकार के फ़ैसले को हालांकि मोदी सरकार ने वापस नहीं किया है, पर यह साफ कर दिया है कि इसे हम लागू नहीं करेंगे. डब्ल्यूटीओ में टीएफए करार पर हाथ खींचकर भी सरकार ने कमोबेश ऐसा ही काम किया है.
कांग्रेस का अंदरूनी संकट
कांग्रेस पार्टी अभी तक नेतृत्व के संकट से उबर नहीं पाई है. लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व करने वाले राहुल गांधी सदन में पीठे की सीट पर बैठते हैं. इधर 6 अगस्त को अचानक सदन में उन्होंने आक्रामक रुख अपना लिया.
सांप्रदायिक हिंसा पर बहस की मांग को लेकर उन्होंने न सिर्फ अपना रोष प्रकट किया, बल्कि अन्य सांसदों के साथ अध्यक्ष के आसन के क़रीब तक पहुंच गए. उन्होंने अध्यक्ष पर पक्षपात के आरोप भी लगाए.
यह आक्रामकता केवल एक दिन तक सीमित थी. अगले दिन से वे फिर खामोश हो गए. ऐसा माना जा रहा है कि इंश्योरेंस कानून पर पार्टी के भीतर दो राय हैं. लोकसभा में पार्टी यों भी संख्या के लिहाज़ से कमज़ोर है. नेतृत्व का असमंजस उसे और कमज़ोर कर रहा है.