पाकिस्तान के साथ 25 अगस्त को प्रस्तावित सचिव स्तर की बातचीत
अचानक रद्द होने के बाद पहला सवाल पैदा होता है कि अपने शपथ ग्रहण समारोह में पूरे
दक्षिण एशिया को निमंत्रित करने वाले नरेन्द्र मोदी बदले हैं या हालात में कोई बुनियादी
बदलाव आ गया है? क्या पाकिस्तान
सरकार दिखावा कर रही है? या कोई तीसरी ताकत नहीं चाहती कि
दक्षिण एशिया में हालात सुधरें। बैठक रद्द होने का फैसला जितनी तेजी से हुआ उससे
लगता है कि भारत ने जल्दबाज़ी की है। या फिर मोदी सरकार रिश्तों का कोई नया
बेंचमार्क कायम करना चाहती है।
पहली नज़र में लगता है कि 18 अगस्त को पाकिस्तानी
उच्चायुक्त के साथ शब्बीर शाह की बैठक के मामले को कांग्रेस ने उछाला। इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया ने इसे दिन भर दिखाया। सरकार घबरा गई। पाकिस्तानी राजनीति में चल रहे टकराव
को लेकर वह पहले ही असमंजस में थी। पर क्या भारत सरकार ने बगैर सोचे यह फैसला किया
होगा? भारत सरकार इसके पहले भी हुर्रियत नेताओं
के साथ पाकिस्तानी नेतृत्व की मुलाकातों की आलोचना करती रही है। हर बार औपचारिक
विरोध भी दर्ज कराती रही है, पर इस तरह पूर्व निर्धारित बैठकें रद्द नहीं हुईं।
लगता है कि मोदी सरकार पाकिस्तान को झटका देना चाहती है
ताकि वह कश्मीर को लेकर अपना रास्ता बदले। हम कितना भी विकास और आर्थिक सहयोग कहें
कश्मीर बीच में आना ही आना है। तब क्यों न पहले उसी पर बात करें? यानी कश्मीर को लेकर भारत सरकार और
पाकिस्तान सरकार दोनों को ही यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। भारत सरकार इन
दिनों कश्मीरी पंडितों को घाटी में वापस भेजने की योजना बना रही है। दूसरी ओर
कश्मीरी अलगाववादियों के उत्साह में भी कमी आ रही है। क्यों न हम इस समस्या का
स्थायी हल निकालने की कोशिश करें।
कश्मीर के अलगाववादी नेता मानने लगे हैं कि उनका आंदोलन
अंधी गली में प्रवेश कर गया है। यह आंदोलन केवल श्रीनगर की घाटी को लेकर नहीं है।
इसका वास्ता पूरे कश्मीर से है। सन 2011 में जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना खार
रब्बानी भारत आईं थीं तब सैयद अली शाह गिलानी ने उनसे मुलाकात की थी और कहा था कि
केवल कश्मीर के भारतीय क्षेत्र के आत्म निर्णय की बात नहीं है। इसमें पाकिस्तान
अधिकृत कश्मीर की बात भी होनी चाहिए। इसके बाद सन 2012 में हुर्रियत का शिष्टमंडल
पाकिस्तान गया जिसमें मीरवाइज़ उमर फारुक़. अब्दुल ग़नी भट और बिलाल लोन भी शामिल
थे। वहाँ उन्होंने कहा कि सन 1948 से अब तक हालात काफी बदल चुके हैं। जम्मू के
हिन्दू और लद्दाख के बौद्ध हमारे साथ नहीं हैं। घाटी में भी सबकी एक राय नहीं हैं।
हम समझ नहीं पा रहे हैं कि पाकिस्तान क्या करना चाहता है? असमंजस हर जगह है। समाधान या तो सम्बद्ध
पक्ष मिलकर करेंगे या फिर समय आने पर इतिहास करेगा।
नब्बे के दशक में जब तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री
बेनज़ीर भुट्टो बार-बार कह रहीं थीं कि कश्मीर का मसला विभाजन के बाद बचा अधूरा
काम है, भारत के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने कहा कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर
की भारत में वापसी ही अधूरा रह गया काम है। वह समय था जब कश्मीर में हिंसा
चरमोत्कर्ष पर थी। बढ़ती हुई आतंकवादी हिंसा के मद्देनज़र भारतीय संसद के दोनों
सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर
दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसलिए पाकिस्तान को अपने
कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा।
मार्च 1993 में हुर्रियत की स्थापना के बाद से पाकिस्तान
सरकार और हुर्रियत के बीच लगातार संवाद चलता रहा है। मई 1995 में पाकिस्तानी
राष्ट्रपति फारूक लेघारी जब दक्षेस बैठक के लिए दिल्ली आए तो इनसे मिले। सन 2001
में जब परवेज़ मुशर्रफ आगरा शिखर सम्मेलन के लिए आए तब मिले, अप्रैल 2005 में वे
फिर मिले। अप्रैल 2007 में दिल्ली आए पाक प्रधानमंत्री शौकत अज़ीज इनसे मिले। कई
मौकों पर इनकी पाकिस्तानी नेताओं से मुलाकात होती रहती है। हुर्रियत नेता 23 मार्च
को होने वाले पाकिस्तान दिवस में शामिल होने के लिए दिल्ली आते हैं। पर इन
मुलाकातों से कोई रास्ता भी तो नहीं निकला? क्या इसी बात को मोदी जी रेखांकित करना चाहते हैं?
उच्चायुक्त का अलगाववादियों से मिलना उतना विस्मयकारी नहीं है
जितना विस्मयकारी है बैठक का रद्द होना। तब यह माना जा सकता है कि भारत सरकार ने
जल्दबाज़ी में फैसला नहीं किया है, बल्कि नई लक्ष्मण रेखा खींची है।
अलगाववादियों के मुलाकात करने या न करने से इस मसले में कोई
बुनियादी फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क तब पड़ेगा जब हम अपने प्रकट सिद्धांत से हटें। भारत
सरकार 1972 के शिमला समझौते की भावना के अनुरूप ही अब कश्मीर पर कोई समझौता करना
चाहती है। सन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की यात्रा के बाद जारी लाहौर घोषणापत्र
में यह बात कही गई है। सन 2001 और 2005 में परवेज़ मुशर्रफ के साथ बातचीत के बाद
दोनों देश इस दिशा में काफी आगे बढ़ गए थे। पर 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई में हुए
हमले ने तमाम शांति प्रक्रियाओं पर विराम लगा दिया। इन रिश्तों की अब एक बड़ी शर्त
यह है कि मुम्बई पर हमले के दोषियों को जल्द से जल्द सज़ा मिले।
अपने शपथ ग्रहण समारोह को दक्षिण एशिया सम्मेलन में तब्दील
करके नरेन्द्र मोदी ने जो शुरुआत की थी उसकी तार्किक परिणति 25 अगस्त की बैठक थी,
जो भावी बैठकों की तैयारी की योजना बनाने के लिए थी। यह बैठक भारत की पहल पर हो
रही थी। सुजाता सिंह ने अपनी तरफ से बातचीत का कार्यक्रम बनाया था। नवाज शरीफ की
यात्रा से बातचीत के दरवाज़े खुले थे। अब दरवाजे बंद होते नज़र आ रहे हैं। खासकर ऐसे
समय में जब नवाज़ शरीफ़ आंतरिक राजनीति में घिरे हैं। पाकिस्तान में कोई भी
राजनीतिक नेता खुले आम यह कहने की हिम्मत नहीं रखता कि हुर्रियत नेताओं से संवाद
नहीं करेंगे।
नवाज़ शरीफ मई में जब भारत आए तो उन्होंने न तो कश्मीर का
मुद्दा उठाया था और न ही वे हुर्रियत नेताओं से मिले। पाकिस्तान में उनकी आलोचना
भी हुई। हाफिज़ सईद ने खुले आम कहा कि नवाज शरीफ को भारत नहीं जाना चाहिए। कहा जाता
है कि पाकिस्तान की सेना नागरिक सरकार पर हावी है। हमें उनके अंतर्विरोधों को
समझना होगा। पर उसके पहले हमें यह तय करना होगा कि दोनों देशों के रिश्ते सुधारने
हैं या कश्मीरी मसले को सुलझाना है।
सन 2003 में दोनों देशों के समझौते के कारण नियंत्रण रेखा
पर गोलाबारी बंद हो गई थी। पर पिछले दो साल से गोलाबारी फिर शुरू हो गई है। इसका
क्या मतलब है? कोई है जो नहीं
चाहता कि रास्ता निकले। बातचीत की सम्भावनाएं बनना और फिर उनपर पानी फिर जाना भी
एक प्रकार का अनुभव है। पर आखिरकार हमें जाना बातचीत के रास्ते पर ही है। फिलहाल
तार्किक परिणति का इंतज़ार कीजिए। अलबत्ता यह भी समझना होगा कि कौन है जो हालत को
सुधारना नहीं चाहता और क्यों?
हरिभूमि में प्रकाशित
When last year a civil civil gov. handed over the power to newly democratically elected gov headed by Sharif, the world witnessed a 'democratic transition' which would help in formation of a stable Pakistan which is must for the growth of all other states in the region. But the recent unrest over there has not only raised questions over the stability of Pakistan but has also raised eyebrows of other nations as Pakistan being a nuclear state and is already on offensive with Taliban and other so called Jihadi separatists. From the Past 67 years Pakistan has never been stable and today it is so much torn internally that its getting hard for India to continue with any peace dialogues.
ReplyDelete