एक बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि राहुल गांधी भविष्य में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता होंगे। इसी विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि यह कब होगा और वे किस पद से इसकी शुरूआत करेंगे। पिछले दिनों जब श्रीमती सोनिया गांधी स्वास्थ्य-कारणों से विदेश गईं थीं, तब आधिकारिक रूप से राहुल गांधी को पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। अन्ना-आंदोलन के कारण वह समय राहुल को प्रोजेक्ट करने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सका। बल्कि उस दौरान अन्ना को गिरफ्तार करने से लेकर संसद में लोकपाल-प्रस्ताव रखने तक के सरकारी फैसलों में इतने उतार-चढ़ाव आए कि बजाय श्रेय मिलने के पार्टी की फज़ीहत हो गई। राहुल गांधी को शून्य-प्रहर में बोलने का मौका दिया गया और उन्होंने लोकपाल के लिए संवैधानिक पद की बात कहकर पूरी बहस को बुनियादी मोड़ देने की कोशिश की। पर उनका सुझाव को हवा में उड़ गया। बहरहाल अब आसार हैं कि राहुल गांधी को पार्टी कोई महत्वपूर्ण पद देगी। हवा में यह बात है कि 19 नवम्बर को श्रीमती इंदिरा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर वे कोई नई भूमिका ग्रहण करेंगे।
Friday, November 11, 2011
Wednesday, November 9, 2011
भारत-पाक कारोबारी रिश्तों के दाँव-पेच
भारत-पाकिस्तान रिश्तों में किस हद तक संशय रहते हैं, इसका पता पिछले हफ्ते भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने की घोषणा के बाद लगा। पाकिस्तान की सूचना प्रसारण मंत्री ने बाकायदा इसकी घोषणा की, पर बाद में पता लगा कि फैसला हो ज़रूर गया है पर घोषणा में कोई पेच था। घोषणा सही थी या गलत, भारत का दर्जा बदल गया है या बदल जाएगा। तरज़ीही देश या एमएफएन शब्द भ्रामक है। इसका अर्थ वही नहीं है, जो समझ में आता है। इसका अर्थ यह है कि पाकिस्तान अब हमें उन एक सौ से ज्यादा देशों के बराबर रखेगा जिन्हें एमएफएन का दर्जा दिया गया है। मतलब जिन देशों से व्यापार किया जाता है उन्हें बराबरी की सुविधाएं देना। उनमें भेदभाव नहीं करना।
Friday, November 4, 2011
भारत-पाक रिश्तों में कारोबारी बयार
Thursday, November 3, 2011
बयानबाज़ी के बजाय मीडिया आत्ममंथन करे
हर आज़ादी की सीमा होती है। पर हर सीमा की भी सीमा होती है। हमारे संविधान ने जब अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया था, तब सीमाओं का उल्लेख नहीं किया गया था। पर 1951 में संविधान के पहले संशोधन में इस स्वतंत्रता की युक्तियुक्त सीमाएं भी तय कर दी गईं। पिछले साठ वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों से इस स्वतंत्रता ने प्रेस की स्वतंत्रता की शक्ल ली। अन्यथा ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ शब्द संविधान में नहीं था और न है। उसकी ज़रूरत भी नहीं। पर अब प्रेस की जगह मीडिया शब्द आ गया है। ‘प्रेस’ शब्द ‘पत्रकारिता’ के लिए रूढ़ हो गया है। टीवी वालों की गाड़ियों पर भी मोटा-मोटा प्रेस लिखा होता है। अखबारों के मैनेजरों की गाड़ियों पर उससे भी ज्यादा मोटा प्रेस छपा रहता है।
इन दिनों हम पत्रकारिता को लेकर संशय में हैं। पिछले 400 वर्ष में पत्रकारिता एक मूल्य के रूप में विकसित हुई है। इस मूल्य(वैल्यू) की कीमत(प्राइस) या बोली लगा दी जाए लगा दी जाए तो क्या होगा? प्रेस काउंसिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू की कुछ बातों को लेकर मीडिया जगत में सनसनी है। जस्टिस काटजू ने मीडिया की गैर-ज़िम्मेदारियों की ओर इशारा किया है। वे प्रेस काउंसिल के दांत पैने करना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है। ताकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इसमें शामिल किया जा सके। वे चाहते हैं कि मीडिया के लाइसेंस की व्यवस्था भी होनी चाहिए। वे सरकारी विज्ञापनों पर भी नियंत्रण चाहते हैं। उनकी किसी बात से असहमति नहीं है। महत्वपूर्ण है मीडिया की साख को बनाए रखना। प्रेस काउंसिल की दोहरी भूमिका है। उसे प्रेस पर होने वाले हमलों से उसे बचाना है और साथ ही उसके आचरण पर भी नज़र रखनी होती है। प्रेस की आज़ादी वास्तव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, पर जब किसी न्यूज़ चैनल का हैड कहे कि दर्शक जो माँगेगा वह उसे दिखाएंगे, तब उसकी भूमिका पर नज़र कौन रखेगा? मीडिया काउंसिल का विचार पिछले कुछ साल से हवा में है। यह बने या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग काउंसिल बने, इसके बारे में अच्छी तरह विचार की ज़रूरत है।
इन दिनों हम पत्रकारिता को लेकर संशय में हैं। पिछले 400 वर्ष में पत्रकारिता एक मूल्य के रूप में विकसित हुई है। इस मूल्य(वैल्यू) की कीमत(प्राइस) या बोली लगा दी जाए लगा दी जाए तो क्या होगा? प्रेस काउंसिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू की कुछ बातों को लेकर मीडिया जगत में सनसनी है। जस्टिस काटजू ने मीडिया की गैर-ज़िम्मेदारियों की ओर इशारा किया है। वे प्रेस काउंसिल के दांत पैने करना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है। ताकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इसमें शामिल किया जा सके। वे चाहते हैं कि मीडिया के लाइसेंस की व्यवस्था भी होनी चाहिए। वे सरकारी विज्ञापनों पर भी नियंत्रण चाहते हैं। उनकी किसी बात से असहमति नहीं है। महत्वपूर्ण है मीडिया की साख को बनाए रखना। प्रेस काउंसिल की दोहरी भूमिका है। उसे प्रेस पर होने वाले हमलों से उसे बचाना है और साथ ही उसके आचरण पर भी नज़र रखनी होती है। प्रेस की आज़ादी वास्तव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, पर जब किसी न्यूज़ चैनल का हैड कहे कि दर्शक जो माँगेगा वह उसे दिखाएंगे, तब उसकी भूमिका पर नज़र कौन रखेगा? मीडिया काउंसिल का विचार पिछले कुछ साल से हवा में है। यह बने या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग काउंसिल बने, इसके बारे में अच्छी तरह विचार की ज़रूरत है।
Monday, October 31, 2011
फॉर्मूला रेस कुशलता की प्रतीक ज़रूर है, पर इसकी राष्ट्रीय प्रश्नों से विसंगति है
अक्सर स्पोर्ट्स चैनलों पर आपने देखी होंगी विशेष ट्रैकों पर दौड़ती एक सीट की कारें। ये कारें खासतौर से बनाई जाती हैं। दुनियाभर के अलग-अलग सर्किटों पर ये कार रेस होती हैं। इन्हें ग्रां-प्रि या अंग्रेज़ी में ग्रैंड प्राइज़ (जीपी) रेस कहते हैं। उनके रिज़ल्ट जोड़कर दो वार्षिक चैम्पियनशिप होती हैं। एक ड्राइवरों के लिए और दूसरी कंस्ट्रक्टर्स के लिए। कंस्ट्रक्टर यानी इंजन, पहिए, चैसिस वगैरह जोड़कर खास तरह की कार बनाने वाले। ये कारें 360 किलोमीटर प्रति घंटा तक की रफ्तार से दौड़ती हैं। इन रेसों को दुनियाभर में देखा जाता है। सन 2010 के सीज़न में 52 करोड़ 70 लाख दर्शकों ने टीवी पर इन रेसों को देखा।
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