प्रेस की आज़ादी का व्यावहारिक अर्थ है मीडिया के मालिक की आज़ादी। इसमें पत्रकार की जिम्मेदारी उन नैतिक दायित्वों की रक्षा करने की थी जो इस कर्म को जनोन्मुखी बनाते हैं। पर देर सबेर सम्पादक पद से पत्रकार हट गए, हटा दिए गए या निष्क्रिय कर दिए गए। या उनकी जगह तिकड़मियों और दलाल किस्म के लोगों ने ले ली। पर कोई मालिक खुद ऐसा क्यों करेगा, जिससे उसके मीडिया की साख गिरे? इसकी वजह कारोबारी ज़रूरतों का नैतिकताओं पर हावी होते जाना है। मीडिया जबर्दस्त कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। मीडिया कम्पनियाँ शेयर बाज़ार में उतर रही हैं और उन सब तिकड़मों को कर रही हैं, जो क्रोनी कैपीटलिज़्म में होती हैं। वे अपने ऊपर सदाशयता का आवरण भी ओढ़े रहती हैं। साख को वे कूड़दान में डाल चुकी हैं। उन्हें अपने पाठकों की नादानी और नासमझी पर भी पूरा यकीन है। इन अंतर्विरोधों के कारण गड़बड़झाला पैदा हो गया है। इसकी दूरगामी परिणति मीडिया -ओनरशिप को नए ढंग से परिभाषित करने में होगी। ऐसा आज हो या सौ साल बाद। जब मालिक की दिलचस्पी नैतिक मूल्यों में होगी तभी उनकी रक्षा होगी। मीडिया की उपादेयता खत्म हो सकती है, पत्रकारिता की नहीं। क्योंकि वह धंधा नहीं एक मूल्य है।
Monday, October 24, 2011
कारोबार और पत्रकारिता के बीच की दीवार कैसे टूटी?
Sunday, October 23, 2011
चुनाव व्यवस्था पर नए सिरे से सोचना चाहिए
चनाव-व्यवस्था-1
जरूरी है चुनावी व्यवस्था की समीक्षा
भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी व्यवस्था तब तक निरर्थक है जब तक राजनीतिक व्यवस्था में बुनियादी बदलाव न हो। राजनीतिक व्यवस्था की एक हिस्सा है चुनाव। चुनाव के बारे में व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए। शिशिर सिंह ने इस सिलसिले में मेरे पास लेख भेजा है। इस विषय पर आप कोई राय रखते हों तो कृपया भेजें। मुझे इस ब्लॉग पर प्रकाशित करने में खुशी होगी।
लोग केवल मजबूत लोकपाल नहीं चाहते वह चाहते हैं कि राइट टू रिजेक्ट को भी लागू किया जाए। हालांकि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की इस धारणा पर मिश्रित प्रतिक्रिया आई हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने इसे भारत के लिहाज से अव्यावहारिक बताया है। सही भी है ऐसे देश में जहाँ कानूनों के उपयोग से ज्यादा उनका दुरूप्रयोग होता हो, राइट टू रिजेक्ट अस्थिरता और प्रतिद्वंदिता निकालने की गंदी राजनीति का हथियार बन सकता है। लेकिन अगर व्यवस्थाओं में परिवर्तन चाहते हैं तो भरपूर दुरूप्रयोग हो चुकी चुनाव की मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन लाना ही पड़ेगा क्योंकि अच्छी व्यवस्था के लिए अच्छा जनप्रतिनिधि होना भी बेहद जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी चुनावी व्यवस्था की नए सिर से समीक्षा करें।
Friday, October 21, 2011
चुनाव सुधरेंगे तो सब सुधरेगा
पेड न्यूज़ के कारण उत्तर प्रदेश की बिसौली सीट से जीती प्रत्याशी की सदस्यता समाप्त होने के बाद सम्भावना बनी है कि यह मामला कुछ और खुलेगा। यह सिर्फ मीडिया का मामला नहीं है हमारी पूरी चुनाव व्यवस्था की कमज़ोर कड़ी है। आने वाले समय में व्यवस्थागत बदलाव के लिए चुनाव प्रणाली में सुधार की ज़रूरत होगी। यह बदलाव का समय है।चुनाव के गोमुख से निकलेगी सुधारों की गंगा।
अन्ना-आंदोलन शुरू होने पर सबसे पहले कहा गया कि चुनाव का रास्ता खुला है। आप उधर से आइए। चुनाव के रास्ते पर व्यवस्थित रूप से बैरियर लगे हैं जो सीधे-सरल और ईमानदार लोगों को रोक लेते हैं। चुनाव पावर गेम है। इसमें मसल और मनी मिलकर माइंड पर हावी रहते हैं। जनता का बड़ा तबका भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का समर्थन सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि उसे लगता है कि व्यवस्था पूरी तरह ठीक न भी हो, पर एक हद तक ढर्रे पर लाई जा सकती है।
अन्ना-आंदोलन शुरू होने पर सबसे पहले कहा गया कि चुनाव का रास्ता खुला है। आप उधर से आइए। चुनाव के रास्ते पर व्यवस्थित रूप से बैरियर लगे हैं जो सीधे-सरल और ईमानदार लोगों को रोक लेते हैं। चुनाव पावर गेम है। इसमें मसल और मनी मिलकर माइंड पर हावी रहते हैं। जनता का बड़ा तबका भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का समर्थन सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि उसे लगता है कि व्यवस्था पूरी तरह ठीक न भी हो, पर एक हद तक ढर्रे पर लाई जा सकती है।
Wednesday, October 19, 2011
Monday, October 17, 2011
स्मारकों से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्मृतियों का होना
शायद सन 1979 की बात है। प्रेमचंद के जन्मशती वर्ष की शुरूआत की जा रही थी। लखनऊ दूरदर्शन की एक परिचर्चा में मेरे एक सहचर्चाकार ने सुझाव दिया कि लमही और वाराणसी में प्रेमचंद के घरों को स्मारक बना दिया जाए। सुझाव अच्छा था, पर मेरी राय यह थी कि प्रेमचंद के साहित्य को पढना या पढ़ाया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है। जो समाज अपने लेखकों को पढ़ता नहीं, वह ईंट-पत्थर के स्मारकों का क्या करेगा? स्मारकों के साथ स्मृतियों का होना महत्वपूर्ण है। स्मृतियाँ हर तरह की होती हैं। मीठी भी कड़वी भी।
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