Sunday, October 16, 2011

गठबंधन राजनीति के नए असमंजसों को जन्म देगा यूपी का चुनाव

उत्तर प्रदेश में गली-गली खुले वोट बैंक उसकी राजनीति को हमेशा असमंजस में रखेंगे। 1967 में पहली बार साझा सरकार बनने के बाद यहाँ साझा सरकारों की कई किस्में सामने आईं, पर एक भी साझा लम्बा नहीं खिंचा। 2007 के यूपी चुनाव परिणाम एक हद तक विस्मयकारी थे। उस विस्मय की ज़मीन प्रदेश की सामाजिक संरचना में थी।  पर वह स्थिति आज नहीं है। 

अंदेशा है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं देंगे। सन 2007 की चमत्कारिक सोशल इंजीनियरी ने बसपा को जिस तरह की सफलता दी थी उसकी सम्भावना इस बार नहीं है। उत्तर प्रदेश के चुनाव हवा में नहीं सामाजिक ज़मीन पर होते हैं। सामाजिक समीकरण पहले से बता देते हैं कि माहौल क्या है। इस बार का माहौल असमंजस वाला है। और हालात इसी तरह रहे तो 2014 के लोकसभा चुनाव तक यह असमंजस पूरे देश में होगा। अब महत्वपूर्ण हैं चुनाव के बाद के गठबंधन। पिछले साठ साल का उत्तर प्रदेश का चुनाव इतिहास गवाह है कि यहाँ बड़ी संख्या में निर्दलीय या छोटे दलों के सदस्य चुनकर आते हैं, जो गठबंधन की राजनीति को आकार देने में मददगार होते हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड और पंजाब में दो राजनीतिक शक्तियों के बीच सीधा टकराव होगा।

Friday, October 14, 2011

अन्ना-पहेली बनाम राष्ट्रीय राजनीति

हिन्दू में केशव का कार्टून 
अगस्त के आखिरी हफ्ते में जो लोग अन्ना हजारे के समर्थन या विरोध में थे, वे इस वक्त असमंजस में हैं। जो समर्थक थे, उनमें से एक बड़े वर्ग को लगता है कि राजनीति में किसी एक पार्टी का सीधा विरोध इस आंदोलन को एक हद तक मिली साफ-सुथरी को बिगाड़ेगा। साथ ही सत्ता-लोलुप संगठन होने का बिल्ला लगेगा। जो विरोध में थे, उन्हें लगता है कि अन्ना की छवि का जो होगा सो होगा, पर अपनी लुटिया डूब गई तो सब बेकार हो जाएगा। अन्ना हजारे की सीडी हिसार में बजाई गई। हिसार लोकसभा सीट के अलावा पाँच राज्यों की पाँच विधानसभा सीटों के उप चुनाव में मतदान कल हो गया। 17 अक्टूबर को पता लगेगा कि अन्ना का असर कितना था। जैसा कि लगता है कि कांग्रेस अब मुख्य मुकाबले में नहीं रह गई है। अन्ना मैदान में न होते तो होती या न होती पता नहीं। अलबत्ता मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का विषय था। अब कम से कम वे कह सकेंगे कि अन्ना मंडली ने खेल बिगाड़ दिया।

Monday, October 10, 2011

अन्ना की 'राजनीति' का फैसला वोटर करेगा, उसे फैसला करने दो





अन्ना हज़ारे के लिए बेहतर होगा कि वे अपने आंदोलन को किसी एक राजनीतिक दल के फायदे में जाने से बचाएं। पर इस बारे में क्या कभी किसी को संशय था कि उनका आंदोलन कांग्रेस विरोधी है? खासतौर से जून के आखिरी हफ्ते में जब यूपीए सरकार की ओर से कह दिया गया कि हम कैबिनेट में लोकपाल विधेयक कानून का अपना प्रारूप रखेंगे। सबको पता था कि इस प्रारूप में अन्ना आंदोलन की बुनियादी बातें शामिल नहीं होंगी। रामलीला मैदान में यह आंदोलन किस तरह चला, संसद में इसे लेकर किस प्रकार की बहस हुई और किसने इसे समर्थन दिया और किसने इसका विरोध किया, यह बताने की ज़रूरत नहीं। भाजपा ने इसका मुखर समर्थन किया और कांग्रेस ने दबी ज़ुबान में सीबीआई को इसके अधीन रखने, राज्यों के लिए भी कानून बनाने और सिटीज़ंस चार्टर पर सहमत होने की कोशिश करने का भरोसा दिलाया। भाजपा से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस आंदोलन का समर्थन करने की घोषणा कर दी थी। फिर भी सितम्बर के पहले हफ्ते तक आधिकारिक रूप से यह आंदोलन किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं था। और आज भी नहीं है। पर परोक्षतः यह भाजपा के पक्ष में जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि आंदोलन वोटर के सामने सीधे यह सवाल रख रहा है। चुनाव लड़ने के बजाय इस तरीके से चुनाव में हिस्सा लेने में क्या हर्ज़ है? इसका नफा-नुकसान आंदोलन का नेतृत्व समझे।

Friday, October 7, 2011

स्टीव जॉब्स

स्टीव जॉब्स को हम इतनी अच्छी तरह जानते थे यह मुझे पता नहीं था। पर मीडिया की कवरेज से पता लगता है कि दुनियाभर के लोग इनोवेशन, लगन और सादगी को पसंद करते हैं। आज के अखबारों पर नजर डालने के बाद और नेट पर खोज करने के बाद मुझे काफी सामग्री नजर आई। सब कुछ एक साथ देना सम्भव नहीं है। कुछ अखबारों के पहले सफे और कुछ कार्टून पेश हैं। चित्रों को बड़ा करने के लिए उन्हें क्लिक करें



एक और अंत का प्रारम्भ !!!


न्यूयॉर्क की वॉल स्ट्रीट अमेरिका के फाइनेंशियल मार्केट की प्रतीक है। न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज और नासदेक समेत अनेक स्टॉक एक्सचेंज इस इलाके में हैं। बीस दिन से अमेरिका में एक जन-आंदोलन चल रहा है। इसका नाम है ‘ऑक्यूपाई द वॉल स्ट्रीट।‘ यह आंदोलन न्यूयॉर्क तक सीमित नहीं है। वॉशिंगटन, लॉस एंजेलस, सैन फ्रांसिस्को, बोस्टन, शिकागो, अलबर्क, टैम्पा, शार्लेट, मिज़ूरी, डेनवर, पोर्टलैंड और मेन जैसे शहरों में इस आंदोलन का विस्तार हो चुका है। हालांकि इसमें शामिल लोगों की तादाद बहुत बड़ी नहीं है, पर धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। भारतीय मीडिया की नज़र अभी इस तरफ नहीं पड़ी है। पड़ी भी है तो उसे वह महत्व नहीं मिला जो इस किस्म की खबर को मिल सकता है। अमेरिकी मीडिया ने भी कुछ देर से इस तरफ ध्यान दिया है। पिछले हफ्ते न्यूयॉर्क के ब्रुकलिन ब्रिज पर आंदोलनकारियों और पुलिस के बीच भिड़ंत भी हुई और करीब 700 प्रदर्शनकारी पकड़े गए।