आंदोलन के दौरान अन्ना मंडली पर आरोप था कि वह असंसदीय तरीके से काम कर रही है। उसे अपनी बात कहनी है तो चुनाव लड़कर संसद में आए। इस लिहाज से उन्होंने सही कदम उठाया। जो कहना है वोटर से कहा। पर क्या यह नैतिक दृष्टि से ठीक काम हुआ? निराश लोगों का कहना है कि हमें उम्मीद थी कि अन्ना के तौर-तरीके स्वच्छ होंगे, पर वे तो सत्ता की राजनीति में शामिल नज़र आ रहे हैं। उधर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने नया शोशा छोड़ा है कि भाजपा ने अन्ना को राष्ट्रपति बनाने का आश्वासन दिया है।
सिर्फ सात महीने में भारतीय राजनीति में अन्ना-प्रभाव के तमाम रंग सामने आए हैं। एक तबके को यकीन है कि यह सब बीजेपी द्वारा प्रायोजित है। मंगलवार को आडवाणी जी ने रथयात्रा शुरू कर दी है। इस रथयात्रा के स्वर पिछली रथयात्रा की तुलना में बदले हुए हैं। प्रतीक रूप में यह यात्रा जय प्रकाश नारायण के गाँव से शुरू हुई है। इसका सूत्र वाक्य है ‘सुशासन और स्वच्छ राजनीति के लिए’, ‘जन चेतना यात्रा।‘ इसमें मंदिर का जिक्र नहीं है। आडवाणी जी के भाषण में जेपी आंदोलन का जिक्र था और यह संकेत भी कि वामदलों ने उस आंदोलन में हिस्सा न लेकर गलती की थी। अन्ना आंदोलन की तुलना शुरू से ही जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के साथ होने लगी है। पर इसमें तंज नहीं था।
वाम दल देश में कांग्रेस और भाजपा के बाद तीसरी संगठित राजनीतिक शक्ति हैं। उनकी कामना इस तीसरी शक्ति को सबसे बड़ी ताकत बनाने की है। फिलहाल यह सम्भव नहीं, पर परिस्थितियाँ हमेशा एक जैसी नहीं रहतीं। कांग्रेस या बीजेपी में से किसी एक के कमज़ोर होने पर नई स्पेस बन सकती है। जेपी आंदोलन में शामिल न होने के पीछे सीपीएम की दुविधा आरएसएस को लेकर थी। जेपी आंदोलन में आरएसएस कार्यकर्ता शामिल थे। 1977 में सरकार बनने के बाद जनता पार्टी टूटने की तमाम वजहों में से एक यह भी थी कि पूर्व जनसंघ से आए सदस्य आरएसएस का साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे। पर देश की पहली गैर-कांग्रेस सरकार को सीपीएम का बाहर से समर्थन हासिल था।
यूपीए-प्रथम के दौर में एक बार यह बात सामने आई कि कांग्रेस और बीजेपी वैचारिक और सामाजिक आधार पर काफी करीब की पार्टियाँ हैं। 2004 के चुनाव के पहले अरुण जेटली ने कहा था कि कांग्रेस खत्म हो रही है। उसकी जगह बीजेपी ने ले ली है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का स्वप्न भी कांग्रेस को समेट लेने का है। आज़ादी के फौरन बाद कांग्रेस ने संघ को अपना हिस्सा बनाने का विचार भी किया था। यूपीए-1 के कार्यकाल में मेघनाथ देसाई बार-बार सलाह दे रहे थे कि कांग्रेस और बीजेपी को आपसी समन्वय करना चाहिए। न्यूक्लियर डील पर जब देश भर में बहस चल रही थी, तब बीजेपी के समर्थन की बात भी हुई थी। आडवाणी जी के वक्तव्यों से ऐसा झलकने लगा था। तमाम आर्थिक प्रश्नों पर दोनों पार्टियों के विचार एक जैसे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार और पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकारों में क्या फर्क था? शायद वह सरकार ज्यादा लोकप्रिय थी। और उसके इंडिया शाइनिंग और मनमोहन सिंह के अतुल्य भारत में क्या फर्क है? कांग्रेस और बीजेपी में बुनियादी फर्क शायद पारिवारिक है। एक पर नेहरू परिवार का नियंत्रण है और दूसरे पर संघ परिवार का। बहरहाल।
क्या अन्ना आंदोलन पुराने गैर-कांग्रेसवाद का कोई नया रूप है? क्या यह जय प्रकाश आंदोलन से जुड़ी कामनाओं की अभिव्यक्ति है? क्या यह किसी नई गठबंधन राजनीति को जन्म दे सकेगा? ऐसे सवालों के जवाब देने का समय अभी नहीं है, पर जल्द ये सवाल सामने आएंगे और उनके जवाब भी मिलेंगे। देश में गैर-कांग्रेस गठबंधन की पिछली सबसे बड़ी कोशिश 1989 में हुई थी, जिसमें वीपी सिंह की सरकार बनी थी। वह सरकार भी वामपंथी दलों और भाजपा के अंतर्द्वंद के कारण टूटी। उसके बाद बीजेपी का साम्प्रदायिक एजेंडा खुलकर सामने आया, जिसने उसे देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बना दिया। बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति ने सीपीएम को कांग्रेस के करीब लाने में मदद की। उसका राजनीतिक सूत्र यह बना कि देश के सामने साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता दो बड़े मसले हैं। साम्प्रदायिकता को रोकने के लिए बीजेपी को रोकना होगा। पर न्यूक्लियर डील करे बाद सीपीएम का कांग्रेस-स्वप्न बुरी तरह टूट गया।
क्या सीपीएम बीजेपी के साथ आएगी? ऐसा फिलहाल सम्भव नहीं। पर अन्ना राजनीति के समानांतर भाजपा और वामदलों के बीच अनौपचारिक सहयोग नज़र आता है। सन 2014 के चुनावों के पहले देश में राजनीतिक अंतर्मंथन चलेगा। अन्ना आंदोलन उस अंतर्मंथन का हिस्सा है। इस आंदोलन को राजनीति में आना ही है। यह आंदोलन किसी योजना से प्रकट हुआ है या स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहा है, यह भी सामने आ जाएगा। सामाजिक आंदोलनों को राजनीतिक दृष्टिकोणों से अलग नहीं किया जा सकता। भ्रष्टाचार के तमाम स्वरूप हैं। इसे किसी अनशन या किसी एक लोकपाल की मदद से दूर नहीं किया जा सकता। उसे दूर करने की कामना किसी एक अन्ना या महात्मा गांधी के बस की बात नहीं। उसके लिए जिस जन-स्वीकृति की ज़रूरत है वह ऐसे ही आंदोलनों और किसी बड़े जनादेश से निकलेगी। 1977 के जनादेश के बाद जनता पार्टी और उसकी सरकार आई-गई हो गई पर देश में इमर्जेंसी लगाने की कामना हमेशा के लिए खत्म हो गई।
राजनीति हमारे यहां खराब शब्द है। पर बड़े बदलाव का एकमात्र रास्ता राजनीति से निकलता है। यह राजनीति जनता के पास से होकर गुजरती है। देश की स्वतंत्रता के आंदोलन इसी जनता की स्वीकृति से आंदोलन चला। राज्यों का पुनर्गठन बाद में हुआ, तेलुगू राज्य बनाने का आंदोलन पहले हुआ। वह आंदोलन आज भी जारी है। आजादी के बाद तेलंगाना में पहला सबसे ताकतवर कम्युनिस्ट आंदोलन हुआ और फिर नया राज्य बनाने का सबसे ताकतवर लोकतांत्रिक आंदोलन भी हुआ। यह धारणा गलत है कि जनता विचार नहीं करती। गोवा, सिक्किम, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड वगैरह जन-आकांक्षों के प्रतीक है। इन इलाकों की राजनीति ने जनता की कामनाओं को पूरा करने के बजाय अपने घर को भरने का काम किया। यह ज्यादा चलने वाला नहीं।
पर जनता का कोई भी आंदोलन खुद को अ-राजनीतिक नहीं कह सकता। जैसे ही राज-व्यवस्था और शासन की बात होगी राजनीति का सहारा लेना होगा। अभी हम जिस राजनीति को जाति-धर्म और क्षेत्र के नाम पर संगठित होते देख रहे हैं उसमें भी बदलाव आएगा। तीस साल पहले के राजनीतिक दलों को याद करें। 1977 में बड़े जनादेश के साथ सत्ता में आई जनता पार्टी को 1980 के चुनाव में कुल 31 सीटें मिलीं। 1984 के चुनाव में बीजेपी की कुल 4 सीटें थीं। जो 1989 में बढ़कर 85, 1991 में 120 और 1996 में 161 हो गईं। यह सब साम्प्रदायिक मुहावरों का सहारा लेने से हुआ। वही पार्टी अब मंदिर का नाम नहीं लेती। वक्त की उसकी समझ बदल गई है। राजनेता जनता का दिमाग टटोलते हैं और उसी के हिसाब से मुहावरे गढ़ते हैं। हम जिस बहुल-संस्कृति समाज में रहते हैं उसकी राजनीति को अभी तमाम पहलियों के जवाब देने हैं। यह न भूलें के ये जवाब देने में आपका योगदान है।
अन्ना-आंदोलन का चाहे जो-जो कोई समर्थन करे। परंतु देशभक्त विचरवान व्यक्ति कभी भी समर्थन नहीं कर पाएंगे।
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