‘इस्लामी जम्हूरिया-ए-पाकिस्तान’ नाम से लगता है कि पाकिस्तानी राजव्यवस्था लोकतांत्रिक है. वहाँ चुनाव भी होने लगे हैं, संसद, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उच्चतम न्यायालय भी है. इसलिए मान लिया जाता है कि वहाँ असैनिक-शासन है.
बावज़ूद इन बातों के देश में पिछले 78 साल से
सेना की घोषित-अघोषित भूमिका चली आ रही है, जिसे पनपाने, बढ़ावा देने और मजबूत
करने में असैनिक-राजनीति की भी भूमिका है.
पाकिस्तान के नेता गर्व से इसे ‘हाइब्रिड सिस्टम’ कहते हैं. इस साल वहाँ की संसद ने इस सिस्टम को
सांविधानिक-दर्जा भी प्रदान कर दिया गया है.
पाकिस्तानी सेना और अमेरिका की ‘लोकतांत्रिक’ सरकार के बीच अनोखा रिश्ता है, जो इस साल राष्ट्रपति ट्रंप और आसिम मुनीर
के लंच से स्पष्ट हो गया था. कहा जाता है कि दूसरे देशों के पास अपनी सेना होती
है, पाकिस्तान की सेना के पास एक देश है.
सेना की भूमिका
देश में 1973 में बनाए गए संविधान के अनुच्छेद
243 के अनुसार संघीय सरकार का सशस्त्र बलों पर नियंत्रण और कमान होती है. देश के राष्ट्रपति
सशस्त्र बलों के सर्वोच्च कमांडर होते हैं. प्रधानमंत्री की सलाह पर सशस्त्र बलों
के प्रमुखों (चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ, आदि) की नियुक्ति राष्ट्रपति
करते हैं.
2025 के 27वें संशोधन से इसमें महत्वपूर्ण बदलाव
आया है. सेना प्रमुख (आर्मी चीफ) को चीफ ऑफ डिफेंस फोर्सेस (सीडीएफ) का पद दिया गया है, जिससे वह तीनों सेनाओं (आर्मी,
नेवी और एयर फोर्स) पर पूर्ण कमान रखता है.
यह पद थलसेना प्रमुख के साथ जुड़ा हुआ है,
और फाइव-स्टार रैंक (जैसे फील्ड मार्शल) वाले अधिकारी को आजीवन
विशेषाधिकार और मुकदमे से छूट मिलेगी.
राष्ट्रपति
अब भी सिद्धांततः तीनों सेनाओं के कमांडर हैं, पर जब वे सेवा निवृत्त होंगे, तब
उन्हें कानूनी-संरक्षण मिलना बंद हो जाएगा, जबकि वहाँ के फील्ड मार्शल को आजीवन
संरक्षण मिलेगा, जो अब तीनों सेनाओं के वास्तविक कमांडर भी हैं.
समझा जा सकता है कि शासन किसका है और किसका नहीं है. हालाँकि अदालतों ने देश में तीन बार हुए फौजी तख्ता पलट के विरुद्ध कोई टिप्पणी नहीं की और सेना के अधिकार बढ़ाने के हर कदम को स्वीकार कर लिया, फिर भी 27वें संशोधन ने वहाँ सुप्रीम कोर्ट के ऊपर एक और अदालत बना दी है. वहाँ नागरिकों पर मुकदमे सैनिक अदालतों में चलते हैं, जिनकी कार्यवाही सार्वजनिक नहीं होती.
जम्हूरी निज़ाम
78 साल में बमुश्किल 44
साल के आसपास चले जम्हूरी निज़ाम में शहबाज़ शरीफ देश के 24वें वज़ीरे आजम हैं. देश
में तकरीबन 33 साल प्रत्यक्ष फौजी शासन रहा. 1958 से 1971 तक अयूब खान/याह्या खान, 1977 से 1988 तक जिया-उल-हक
और 1999 से 2008 तक जनरल मुशर्रफ.
आठ कार्यवाहक
प्रधानमंत्रियों को भी शामिल करें तो संख्या 32 हो जाती है. 44 साल के नागरिक-शासन में ‘हाइब्रिड
सिस्टम’ की आड़ में फौजी भूमिका छिपी रही. पहले इसे दबे-छिपे
माना जाता था, अब खुले आम स्वीकार किया जाता है.
नब्बे के दशक से, पाकिस्तान ने नए चुनाव कराने के लिए
कार्यवाहक सरकारों की एक प्रणाली स्थापित की है. इन कार्यवाहक सरकारों पर भी सेना
का हमेशा नियंत्रण रहा है.
भारत में इसके मुकाबले 15
प्रधानमंत्री हुए है, जिनमें गुलजारी लाल नंदा शामिल हैं. कुछ प्रधानमंत्री एक से
ज्यादा कार्यकाल में इस पद पर रहे. महत्वपूर्ण यह है कि 15 अगस्त 1947 से अब तक देश
में नागरिक सरकार है.
11 साल में 7 प्रधानमंत्री
पाकिस्तान के पूरे लोकतांत्रिक इतिहास पर नज़र
डालें तो पाएँगे कि 15 अगस्त 1947 से 7 अक्तूबर 1958 तक 11 साल में सात
प्रधानमंत्री आए और चले गए. पहले प्रधानमंत्री की हत्या हुई. उसके बाद नाम के ही
प्रधानमंत्री हुए.
भारत का संविधान 1949 में तैयार होकर 1950 में
लागू भी हो गया, पर पहले पाकिस्तानी संविधान को लागू होने
में नौ साल लगे. 1956 में लागू होने के दो साल बाद इसके तहत बने देश के पहले राष्ट्रपति
इस्कंदर मिर्ज़ा ने देश में फौजी शासन लागू कर दिया.
यह दुनिया में अपने किस्म अनोखा कारनामा था.
नागरिक सरकार का राष्ट्रपति कह रहा था कि लोकतंत्र नहीं चलेगा. इस कारगुजारी का
इनाम तीन हफ्ते के भीतर जनरल अयूब खां ने इस्कंदर मिर्ज़ा को बर्खास्त करके दिया
और खुद राष्ट्रपति बन गए.
तीन संविधान
पाकिस्तान का पहला संविधान इसके बाद दो साल में
रफा-दफा हो गया. 1962 में दूसरा और फिर 1973 में तीसरा संविधान बनाया गया, जो आज
लागू है. इसमें ही जिसमें नवंबर के महीने में 27वाँ संशोधन हुआ है.
आज़ादी के बाद से भारत ने भूमि सुधार, ज़मींदारी उन्मूलन, स्थानीय निकायों का विकास,
स्त्री अधिकार, शिक्षा, भोजन और जानकारी पाने के अधिकारों के अलावा सामाजिक
न्याय के तमाम तरह के सुधार किए. इसके लिए लोकतांत्रिक प्रणाली और चुनाव को माध्यम
बनाया गया.
पाकिस्तान ने इसकी कोशिश नहीं की बल्कि लोकतंत्र
को बेहूदा चीज़ साबित करने की कोशिश की. फौजी शासन की बात नहीं भी करें, तब भी पाकिस्तान की ‘हाइब्रिड प्रणाली’ ने लोकतांत्रिक
तत्वों, यानी कि चुनाव और संसद को फौजी नियंत्रण के अधीन कर दिया है.
राजनीति की
भूमिका
यह काम फौज ने
नहीं असैनिक सरकारों ने किया है. वहाँ की विदेश-नीति, खासतौर से भारत के साथ
रिश्ते सीधे-सीधे सेना के अधीन हैं. ऐसे कुछ मौके आए, जब नागरिक सरकारों ने इस
मामले में अपनी राय देने की कोशिश की तो उन्हें दबा दिया गया.
वहाँ के प्रमुख
फैसलों में सेना 'वीटो पावर' के रूप में कार्य करती है, चुनावों को
प्रभावित करती है और नागरिक सरकारों के होते हुए नीतियों की दिशा निर्धारित करती
है.
पाकिस्तान में
सेना को ‘एस्टेब्लिशमेंट’ कहते हैं. पिछले दो दशकों से कहा जाने लगा है कि ‘सरकार और एस्टेब्लिशमेंट सेम पेज पर’ हैं. वर्तमान रक्षामंत्री ख्वाजा आसिफ जैसे नागरिक नेता इस प्रणाली को
खुले आम स्वीकार करते हुए कहते हैं, हमारी सरकार सेना
की सहमति से चलती है.
ऑपरेशन सिंदूर
के बाद आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल बनाते वक्त साफ था कि इस फैसले पर सेना ने नागरिक
शासन का अँगूठा लगवाया. देश में कम से कम तीन बार फौज ने तख्ता पलटा, पर सुप्रीम
कोर्ट ने एकबार भी उसे गैर-कानूनी नहीं बताया.
चुनाव के
खेल
यह तय है कि
सेना ही किसी को चुनाव जिताती या हराती है. देश में विदेशी
पूँजी निवेश और दूसरे बड़े आर्थिक मसलों पर फैसले करने के लिए एक स्पेशल
इनवेस्टमेंट फैसिलिटेशन कौंसिल (एसआईएफसी) है, जिसमें सर्वोच्च स्तर पर
प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष होते हैं.
2024 के चुनावों में इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान
तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) को सेना की मदद से हराया गया. चुनाव से एक सप्ताह पहले इमरान
को जेल में डाल दिया गया.
चुनाव से लगभग
पाँच सप्ताह पहले, चुनाव आयोग ने फैसला किया कि इमरान की
पार्टी अंदरूनी चुनाव कराने में विफल रही थी, इसलिए वह अपने चुनाव चिह्न क्रिकेट बैट का इस्तेमाल नहीं कर सकती.
इन्हीं इमरान
खान को 2018 में सत्ता में लाने का काम सेना ने किया
था. उसके पहले इमरान ने ही सेना से सत्ता अपने हाथ में लेने की अपील की थी.
खतरे में
पाकिस्तान
1947 में अपनी स्थापना के बाद से, देश के सत्ता-प्रतिष्ठान ने पाकिस्तान को ऐसे
राज्य के रूप में परिभाषित किया, जिसका अस्तित्व खतरे में है. यह खतरा भारत से है.
खतरे को दिखाकर
सेना ने भारत के साथ रिश्तों को लगातार बिगाड़ा है. इससे उसका स्थायी स्वार्थ
सिद्ध होता है और जनता उससे कोई सवाल नहीं पूछती. सुरक्षा-केंद्रित इस ढाँचे में
सेना की भूमिका अपने आप बनती चली गई.
जनरल
जिया-उल-हक (1977-1988) का शासन वैचारिक अधिनायकवाद के शिखर पर
था. उन्होंने अपना आधार मजबूत करने के लिए पाकिस्तान में ‘निज़ाम-ए-मुस्तफा’ (पैगंबर का शासन) लागू करने का दावा किया.
उनके शासन के
दौरान ही अस्सी के दशक में लोकतंत्र बहाली आंदोलन ने जन्म लिया. इसके बाद भी सेना
के वर्चस्व को कम करने और नागरिक सरकार की स्वतंत्रता बढ़ाने के लिए समय-समय पर
उभरे लोकतांत्रिक आंदोलन उभरे हैं, लेकिन वे सफल नहीं
हुए हैं.
देश की पराधीन-न्यायपालिका
फौजी अभिजात वर्ग के हितों की सेवा करती है. वह दोहरी भूमिका निभाती है; असहमत लोगों को ख़त्म करने के उपकरण के रूप में
और कभी-कभी हाइब्रिड सिस्टम को वैधता प्रदान करने में
हालाँकि देश
में सिविल सोसायटी, सोशल मीडिया और शहरी मध्यम वर्ग का भी उदय हो चुका है, पर वे
बहुत ताकतवर नहीं हैं.
सामाजिक
स्थिति
फौज की
राजनीतिक और वैधानिक स्थिति स्पष्ट है. वहाँ फौज में शामिल होने का मतलब है, समाज
के सबसे ऊँचे तबके में शामिल होना. पाकिस्तान बुनियादी तौर पर सामंती-समाज है,
जिसमें विषमताओं की भरमार है. अमीरों और गरीबों के बीच बड़ा अंतर है.
इस पारंपरिक
सामंती समाज में फौजी अफसर और नौकरशाहों का एक नया वर्ग उभर कर आया है, जो पश्चिमी
परिधान पहनते हैं, अंग्रेजी बोलते हैं और अपने बच्चों को पढ़ने के लिए अमेरिका और
यूरोप भेजते हैं, पर जनता को पिछड़ा बनाकर रखना चाहते हैं. यहाँ भारत की तरह
भूमि-सुधार नहीं हुए, जिसके कारण ज़मींदारी कायम है.
सर्वशक्तिमान
पाकिस्तानी सेना ने अधिकारों की एक नई संस्कृति तैयार की है. संसाधनों पर सेना का
अधिकार है, जिसके कारण एक अलग किस्म की संस्कृति तैयार हो गई है.
सबसे बड़े भूस्वामी
पाकिस्तानी
सेना का एक करोड़ एकड़ ज़मीन से ज्यादा पर कब्ज़ा है, जो देश की 12 प्रतिशत भूमि
है. पाकिस्तानी सेना को देश के किसी भी क्षेत्र में 10 प्रतिशत भूमि का अधिग्रहण
करने का अधिकार है.
यह ज़मीन रिटायर्ड
फौजी अफसरों को दी जाती है. इस प्रकार करीब 68 लाख एकड़ भूमि सैन्यकर्मियों के
स्वामित्व में है. इस प्रक्रिया का प्रबंधन आर्मी हैडक्वार्टर्स करता है. सैनिक फार्म खेती करते हैं.
मेजर जनरल और
उससे ऊपर के रैंक धारकों को 240 एकड़ जमीन मिलती है. ब्रिगेडियर और कर्नल, लेफ्टिनेंट कर्नल, लेफ्टिनेंट से लेकर मेजर, जेसीओ और एनसीओ क्रमशः
150, 124, 100, 64 और 32 एकड़ भूमि के हकदार हैं.
पाकिस्तान की
सैन्य विश्लेषक आयशा सिद्दीका का दावा है, जब तक कोई अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल के पद तक पहुँचता है, तब तक उसकी संचित संपत्ति का मूल्य औसतन पाकिस्तानी
रुपये में एक अरब से ज्यादा हो जाता है.
पाकिस्तान का रक्षा
आवास प्राधिकरण (डीएचए) अपने अधिकारियों को शानदार मुफ्त आवास से पुरस्कृत करता है, जिसने देश भर में आवासीय कॉलोनियों का एक विशाल
नेटवर्क स्थापित किया है. अब मध्य वर्ग के नागरिक बड़ी कीमत देकर इन मकानों को
खरीद सकते हैं.
फौजी
फाउंडेशन
देश का सबसे
बड़ा बिजनेस संस्थान सेना का फौजी फाउंडेशन है. इसकी स्थापना 1954 में पूर्व
सैनिकों और उनके परिवारों के कल्याण के लिए की गई थी. यह फाउंडेशन उर्वरक, सीमेंट, बिजली, खेती, फूड प्रोसेसिंग, गैस और वित्तीय सेवाओं जैसे विभिन्न क्षेत्रों में काम करता है.
सिद्धांततः इनसे
होने वाली आय का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य और
प्रशिक्षण जैसी कल्याणकारी गतिविधियों के लिए करता है, जिससे लाखों पूर्व सैनिकों और उनके आश्रितों को लाभ मिलता है.
इससे जुड़ी
सैकड़ों कंपनियाँ हैं, जो हर चीज बनाती और बेचती हैं. हाल में पाकिस्तान इंटरनेशनल
एयरलाइंस के निजीकरण की प्रक्रिया में जिस आरिफ हबीब कंसोर्शियम को सफलता मिली है,
उसमें फौजी फाउंडेशन से जुड़ी कंपनी फौजी फर्टिलाइजर भी शामिल हो गई है.
इन आर्थिक
फाउंडेशनों के नेटवर्क के माध्यम से, सेना सारे बिजनेस
कर रही है. इनमें ‘शॉपिंग मॉल, सिनेमा हॉल, विवाह हॉल,’फार्म, डेयरी और अन्य संस्थाएं शामिल हैं जो
पर्याप्त मुनाफा कमाती हैं.
इनका लाभ फौजी
अफसरों के बीच वितरित किया जाता है. इन अफसरों के अपने व्यापारिक संस्थान भी हैं. आमतौर
पर ज्यादातर अफसरों के बच्चे अमेरिका में पढ़ते हैं.
इस आर्थिक ताकत
की वजह से भी सेना आसानी से राजनीतिक दलों को काबू में रखती है, खासतौर से
पाकिस्तान जैसे गरीब देश में. उसके कार्यों में सुरक्षा के अलावा लोकमत की
इंजीनियरी और विदेश नीति का निर्धारण भी शामिल है.

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