इससे पहले कोर्ट ने कहा था कि 70 से ज्यादा याचिकाओं में से केवल पाँच पर सुनवाई होगी। गत 2 मई को फिर कहा कि इस मुद्दे पर कोई और नई याचिका पर विचार नहीं किया जाएगा। मुख्य न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता मोहम्मद सुल्तान के वकील से कहा, 'यदि आपके पास कुछ अतिरिक्त आधार हैं, तो आप हस्तक्षेप आवेदन दायर कर सकते हैं।' इससे पहले 29 अप्रैल को पीठ ने अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली 13 याचिकाओं पर विचार करने से इनकार कर दिया था।
पीठ ने कहा, 'हम अब याचिकाओं की संख्या नहीं बढ़ाने जा रहे हैं। यह बढ़ती रहेंगी और इन्हें संभालना मुश्किल हो जाएगा।' 17 अप्रैल को पीठ ने अपने समक्ष प्रस्तुत याचिकाओं में से केवल पाँच पर सुनवाई करने का फैसला किया और मामले का टाइटल रखा 'वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 के संबंध में।'
तब केंद्र ने पीठ को आश्वासन दिया कि वह 5 मई तक 'वक्फ के यूजर्स सहित वक्फ संपत्तियों को न तो गैर-अधिसूचित करेगा और न ही केंद्रीय वक्फ परिषद और बोर्डों में कोई नियुक्ति करेगा। कानून के खिलाफ 72 याचिकाएँ दायर की गईं। इनमें एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी), जमीयत उलमा-ए-हिंद, द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) और कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी और मोहम्मद जावेद की याचिकाएं शामिल थीं। तीन वकीलों को नोडल वकील नियुक्त करते हुए पीठ ने वकीलों से कहा कि वे आपस में तय करें कि कौन बहस करने जा रहा है। पीठ ने कहा, 'हम स्पष्ट करते हैं कि अगली सुनवाई (5 मई) प्रारंभिक आपत्तियों और अंतरिम आदेश के लिए होगी।'
एक अध्याय पूरा
इसके पहले राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शनिवार 5 अप्रैल को वक़्फ़ (संशोधन) अधिनियम , 2025 को अपनी मंजूरी दे दी, और इस प्रकार इस कहानी का एक अध्याय पूरा हो गया। अब इसे कानून चुनौतियों का दूसरा अध्याय शुरू हो रहा है, जिसमें इसके निहितार्थ देखने को मिलेंगे। राष्ट्रपति के दस्तखत होने के एक दिन पहले शुक्रवार 4 अप्रैल की सुबह संसद के दोनों सदनों से वक़्फ (संशोधन) विधेयक-2025 को मंज़ूर करने की औपचारिकता पूरी हो गई। पहले यह विधेयक लोकसभा से और फिर राज्यसभा से पास हो गया।
दोनों सदनों में सरकार ने विपक्ष को यह बताने का प्रयास किया कि यह कानून मुसलमानों के खिलाफ नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य केवल वक़्फ संपत्तियों के प्रशासन में पारदर्शिता लाना है। सरकार मानती है कि भ्रष्टाचार, मुकदमेबाजी और कुप्रबंधन के कारण इन संपत्तियों की क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पाया है। इन संपत्तियों का उचित प्रबंधन किया जाए तो इनसे बहुत अधिक राजस्व प्राप्त किया जा सकता है। अतिरिक्त धनराशि का उपयोग समुदाय, विशेषकर महिलाओं के लाभ के लिए किया जा सकता है।
कई मामलों में, वक़्फ़ बोर्ड के अंतर्गत आने वाली संपत्तियों को सदस्यों की मिलीभगत से किराए पर या पट्टे पर दे दिया गया। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरन रिजिजू ने संसद में बताया कि वक़्फ़ संपत्तियों से होने वाली आय उनकी संभावित राजस्व आय के दसवें हिस्से से भी कम है।
देश में सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण की उठती-गिरती लहरों के बीच इस कानून के निहितार्थ और उपयोगिता को समझना और समझाना बेहद मुश्किल काम है। शाहबानो-प्रकरण, राम जन्मभूमि, काशी, मथुरा और संभल और तीन तलाक जैसे कानूनी मसलों से एक नैरेटिव लगातार बन रहा है कि देश में मुसलमानों को ‘दूसरे दर्जे का नागरिक’ बनाया जा रहा है। मुसलमानों की आज़ादी खतरे में है वगैरह।
कानून पर संसद में हुई बहस के दौरान इंडिया गठबंधन से जुड़े दलों के वक्ताओं ने विधेयक के ‘आशय और उसकी विषयवस्तु’ दोनों पर सवाल उठाए। विरोधी दलों का कहना है कि भाजपा अपने विभाजनकारी एजेंडे को आगे बढ़ाने और अपने हिंदुत्व समर्थकों को खुश करने के लिए इस कानून में संशोधन किया है। मुस्लिम संगठनों को इसके पीछे भयावह योजना नज़र आ रही है। वह है वक़्फ़ संपत्तियों पर कब्ज़ा करना और भविष्य में मिलने वाले दान की आपूर्ति को रोकना।
वक़्फ़ और कानून
वक़्फ़ अरबी शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ख़ैरात अर्थात दान के रूप में लाभ या धन या भवन आदि साधारण लोगों के लाभ के लिए देना। इस्लामी कानून में, वक़्फ़ का मतलब धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए ईश्वर के नाम पर समर्पित संपत्ति से है। ऐसी संपत्तियों से प्राप्त आय का उपयोग आम तौर पर मस्जिदों को बनाए रखने, शैक्षणिक संस्थानों को निधि देने या गरीबों की सहायता करने के लिए किया जाता है। एक बार वक़्फ़ के रूप में नामित होने के बाद, संपत्ति अविभाज्य हो जाती है- इसे बेचा, विरासत में या उपहार में नहीं दिया जा सकता है।
सिद्धांततः इन संपत्तियों का एकमात्र स्वामी अल्लाह है, लेकिन, इसका प्रबंधन मुतवल्ली करते हैं। यह धार्मिक कार्य है, पर भारत में वक़्फ़ और उससे जुड़ी संपत्तियों के संचालन और प्रबंधन के लिए कानूनी व्यवस्थाएँ हैं। धर्मार्थ और धार्मिक संस्थान संविधान की समवर्ती सूची में आते हैं। इसलिए, संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों के पास इस विषय पर कानून बनाने का अधिकार है। भारत में वक़्फ़ का निर्माण और प्रबंधन वक़्फ़ अधिनियम, 1995 द्वारा शासित है। इस अधिनियम से पहले 1913, 1923 और 1954 में कानून बनाए गए थे। उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे राज्यों ने भी वक़्फ़ को नियंत्रित करने वाले अलग-अलग कानून पारित किए थे। इन्हें 1995 के अधिनियम ने निरस्त कर दिया था। वक़्फ़ अधिनियम, 1995 और इसके 2013 संशोधनों ने वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन के लिए कानूनी ढाँचा बनाया और राज्य वक़्फ़ बोर्डों की स्थापना की।देश के कानून के अनुसार ये सभी संपत्तियाँ राज्य स्तर पर वक़्फ़ बोर्ड के अधीन हैं। बोर्ड, बदले में, अपनी जिम्मेदारी के दायरे में संपत्तियों का प्रबंधन करने के लिए जिला-स्तरीय समितियों की नियुक्ति करता है।
उमीद एक्ट
अब नए कानून ने 1995 के अधिनियम में संशोधन किया है, जिसका नाम अब ‘यूनिफाइड वक़्फ़ मैनेजमेंट, एंपावरमेंट, एफीशिएंसी एंड डेवलपमेंट एक्ट’ या अंग्रेजी के संक्षिप्ताक्षरों में ‘उमीद’ कहा गया है। इसमें व्यापक सुधारों का प्रस्ताव है जो ऐसी संपत्तियों को विनियमित करने और उनसे संबंधित विवादों का निपटारा करने में सरकार की भूमिका का विस्तार करते हैं। सरकार इन संशोधनों को पारदर्शिता के लिए आवश्यक बताती है। दूसरी तरफ उसके आलोचकों और विरोधियों का तर्क है कि वे मुस्लिम समुदाय की धार्मिक स्वायत्तता का अतिक्रमण करते हैं।
अब तक के कानून के तहत, कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, वक़्फ़ के रूप में संपत्ति समर्पित कर सकता था। नए कानून ने इस अधिकार को केवल उन लोगों तक सीमित कर दिया है जिन्होंने कम से कम पाँच वर्षों तक इस्लाम का पालन किया है। 2025 के अधिनियम के अनुसार अब व्यक्तियों को वक़्फ़ स्थापित करने के लिए इस अवधि के लिए इस्लाम का पालन दिखाना या प्रदर्शित करना होगा। इसका अर्थ है कि पाँच वर्ष से कम समय पहले धर्म परिवर्तन करने वालों को धार्मिक उद्देश्यों के लिए संपत्ति दान करने का धिकार नहीं मिलेगा।
वक़्फ़ बाय यूजर
पिछले साल जब विधेयक पेश किया गया था, उसमें 'वक़्फ़ बाय यूजर' (उपयोगकर्ता द्वारा वक़्फ़) की अवधारणा को समाप्त कर दिया गया था। यह सिद्धांत, इस्लामी कानूनी परंपराओं में निहित है, जिसके तहत औपचारिक दस्तावेज के अभाव में भी, उनके निर्बाध सामुदायिक उपयोग के आधार पर संपत्तियों को धार्मिक या धर्मार्थ बंदोबस्ती के रूप में मान्यता दी जाती है। ऐतिहासिक रूप से, कई मस्जिदों, कब्रिस्तानों, तीर्थस्थलों और अन्य धार्मिक स्थलों की स्थापना मौखिक घोषणाओं या प्रथागत प्रथाओं के माध्यम से की गई थी, जिनकी वक़्फ़ स्थिति पीढ़ियों से निरंतर सार्वजनिक उपयोग द्वारा वैध है।
विधेयक पर विचार के लिए बनी जेपीसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा, इस सिद्धांत को खत्म करने से ऐसी संपत्तियों की कानूनी स्थिति अस्थिर हो सकती है, जिनमें से कई को स्थानीय समुदायों द्वारा दशकों से अनौपचारिक रूप से प्रबंधित किया गया है। बहरहाल संसद से पास अधिनियम में स्पष्ट किया गया है कि कानून के अधिनियमन पर या उससे पहले पंजीकृत सभी मौजूदा ‘उपयोगकर्ता द्वारा वक़्फ़’ संपत्तियां तब तक अपनी स्थिति बनाए रखेंगी जब तक कि वे सरकारी भूमि के रूप में विवादित नहीं हों।
सर्वेक्षण का अधिकार
2024 के विधेयक में वक़्फ़ संपत्तियों के सर्वेक्षण की जिम्मेदारी समर्पित सर्वेक्षण आयुक्तों से लेकर जिला कलेक्टरों को सौंपने की व्यवस्था की गई थी। इसने 1995 के अधिनियम की धारा 40 को भी निरस्त कर दिया, जिसने वक़्फ़ बोर्डों को बिना आधिकारिक दस्तावेज के भी यह निर्धारित करने के लिए स्वप्रेरणा से जांच शुरू करने का अधिकार दिया था कि कोई संपत्ति वक़्फ़ के योग्य है या नहीं।
जेपीसी ने सिफारिश की कि ऐसे सर्वेक्षण वरिष्ठ राज्य अधिकारियों द्वारा किए जाने चाहिए। अब संसद से पास कानून में कहा गया है कि कलेक्टर के पद से ऊपर का कोई अधिकारी उन संपत्तियों का सर्वेक्षण करे जहाँ सरकारी स्वामित्व विवादित है। ऐसा नहीं है कि अभी तक सरकार की कोई निगरानी नहीं थी। नए मौजूदा कानून पहले से ही सरकार को वक़्फ़ बोर्डों को निर्देश जारी करने, सदस्यों को नामित करने और यहां तक कि उन्हें हटाने का अधिकार था।
कानून के सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से एक प्रमुख वक़्फ़ संस्थाओं में गैर-मुस्लिमों को शामिल करना है। यह अनिवार्य करता है कि केंद्रीय वक़्फ़ परिषद और राज्य वक़्फ़ बोर्ड दोनों में कम से कम दो गैर-मुस्लिम सदस्य होने चाहिए। इसके अलावा इस आवश्यकता को भी हटा दिया गया है कि वक़्फ़ बोर्ड का मुख्य कार्यकारी अधिकारी मुस्लिम होना चाहिए। जेपीसी की सिफारिश के अनुरूप, 2025 अधिनियम यह निर्धारित करता है कि वक़्फ़ बोर्ड में राज्य सरकार का प्रतिनिधि संयुक्त सचिव स्तर का अधिकारी होना चाहिए जो विशेष रूप से वक़्फ़ मामलों की देखरेख करे।
विरोधी दलों का तर्क है कि ये बदलाव समुदाय के धार्मिक मामलों के प्रबंधन के लिए संविधान-प्रदत्त अधिकार का उल्लंघन करते हैं। हालांकि, निष्पक्ष विशेषज्ञ मानते हैं कि देश की विविधता इसकी सभी संस्थाओं में दिखाई देनी चाहिए, जिसमें वक़्फ़ बोर्ड भी शामिल हैं, जो वैधानिक निकाय हैं। महिलाओं, गैर-मुस्लिमों और अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों को शामिल करना एक सकारात्मक कदम है। असली सवाल यह है कि क्या मंदिर बोर्डों में भी इसी तरह के सुधार पेश किए जाएंगे?
पंजीकरण
कानून में वित्तीय निगरानी बढ़ाने के लिए वक़्फ़ संपत्तियों के लिए एक केंद्रीकृत पंजीकरण प्रणाली शुरू की गई है। मुतवल्ली (वक़्फ़ के संरक्षक) को कानून लागू होने के छह महीने के भीतर संपत्ति का विवरण अपलोड करना होगा, और भविष्य के सभी पंजीकरण विशेष रूप से इस पोर्टल के माध्यम से संबंधित वक़्फ़ बोर्डों को भेजने होंगे।
कानून में केंद्रीकृत पंजीकरण प्रणाली स्थापित करने के प्रावधान बरकरार रखे गए हैं। इस प्रणाली के तहत, वक़्फ़ संपत्तियों से संबंधित सभी जानकारी कानून के लागू होने के छह महीने के भीतर एक निर्दिष्ट पोर्टल पर अपलोड की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, किसी भी नए वक़्फ़ संपत्ति पंजीकरण को विशेष रूप से इस पोर्टल के माध्यम से संबंधित वक़्फ़ बोर्डों को प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
इस कानून में वक़्फ़ अधिनियम, 1995 की धारा 107 को निरस्त करने की भी व्यवस्था है, जिसने वक़्फ़ संपत्तियों को सीमा अधिनियम, 1963 के दायरे से छूट दी थी। इस छूट ने वक़्फ़ बोर्डों को अधिनियम की 12 साल की सीमा अवधि से बँधे बिना अतिक्रमित भूमि को पुनः प्राप्त करने में सक्षम बनाया था। हालांकि, आलोचकों का तर्क है कि इसे हटाने से अतिक्रमणकारियों को प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से स्वामित्व का दावा करने की अनुमति मिल जाएगी, जिससे वक़्फ़ भूमि पर अवैध कब्जे वैध हो जाएंगे।
राजनीतिक-माइलेज
विरोधी दलों ने बड़ी संख्या में इसमें संशोधन पेश किए, जिनके कारण दोनों सदनों में इस विधेयक को पास होने में देरी हुई और सदन की बैठकें मध्यरात्रि के बाद तक चलती रहीं। इससे पता चलता है कि विपक्ष को इस कानून में काफी ‘राजनीतिक-माइलेज’ दिखाई पड़ा है, जिसका लाभ इसके बाद, खासतौर से इस साल के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव में उठाने की कोशिश की जाएगी। राज्यसभा में विपक्ष के कुछ सांसद काले कपड़े पहन कर आए थे।
राज्यसभा में कांग्रेस सांसद सैयद नसीर हुसैन ने इसे “मुस्लिम समुदाय के खिलाफ लक्षित कानून” बताया और कहा कि इसका उद्देश्य मुसलमानों को देश में दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना है। उन्होंने आरोप लगाया कि सत्तारूढ़ पार्टी 2024 में अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए यह कानून लेकर आई है क्योंकि वह लोकसभा चुनाव में केवल 240 सीटें ही जीत पाई थी। उन्होंने कहा कि हर कोई जानता है कि कौन सी राजनीतिक पार्टी एक समुदाय को खलनायक के रूप में चित्रित करने और उसके खिलाफ एक कहानी बनाने की कोशिश करती है। उन्होंने वक़्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिमों को शामिल करने की ओर इशारा करते हुए पूछा, “क्या आप मुझे हिंदू मंदिर ट्रस्ट का हिस्सा बनने की अनुमति देंगे?”
गांधी परिवार?
हमेशा की तरह, विरोधी दल इस मामले में भी भाजपा के नैरेटिव का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने में विफल रहे। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे ज्यादातर बड़े नेता बहस से अनुपस्थित रहे और भाजपा के हमलों का सामना करने का काम मुख्यतः असम, पश्चिम बंगाल, आंध्र-तेलंगाना, केरल और बिहार के नेताओं पर छोड़ दिया गया, जहाँ मुस्लिम मतदाताओं की तादाद बड़ी है। बहस के अंत में डिवीज़न पर जोर देने का मुख्य उद्देश्य जनता दल (यूनाइटेड) और तेलुगु देशम पार्टी के अंतर्विरोधों को उजागर करना था। विरोधियों को उम्मीद है कि मुसलमान वोटर, जिनका समर्थन जेडी(यू) और टीडीपी दोनों के लिए महत्वपूर्ण है, उन्हें भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे के विस्तार के रूप में देखेंगे और उनका साथ छोड़ेंगे।
गठबंधन के अंतर्विरोध
इस विधेयक के पास होने के साथ संसद का बजट सत्र का, शुक्रवार को ही हंगामे के साथ समापन हो गया। समापन होते-होते, जिसमें लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद सोनिया गांधी को उनकी टिप्पणी के लिए फटकार लगाई कि सरकार ने वक़्फ़ कानून को ‘बुलडोजर से पारित’ किया है। संसदीय कार्य मंत्री किरन रिजिजू द्वारा मुद्दा उठाए जाने और अध्यक्ष से इस पर अपना फैसला सुनाने के लिए कहने के बाद बिरला ने सोनिया का नाम लिए बिना, जो राज्यसभा की सदस्य हैं, उनकी टिप्पणियों पर कड़ा रुख अपनाया।
उसके पहले गुरुवार को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए सोनिया ने कहा था, लोकसभा में वक़्फ़ संशोधन विधेयक, 2024 को जबरन पारित किया गया। हमारी पार्टी की स्थिति स्पष्ट है। यह विधेयक संविधान पर एक बेशर्म हमला है। यह हमारे समाज को स्थायी ध्रुवीकरण की स्थिति में रखने की भाजपा की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। राहुल गांधी, जो सत्र के पहले भाग में सक्रिय रहे, दूसरे चरण के दौरान ज्यादातर अनुपस्थित रहे। प्रियंका गांधी भी वक़्फ विधेयक पर चर्चा के दौरान उपस्थित नहीं थीं।
राज्यसभा में हुए मतदान से राष्ट्रीय-राजनीति की दिशा भी स्पष्ट हुई। दो गैर-गठबंधन दलों, वाईएसआरसीपी और बीआरएस ने विधेयक के खिलाफ मतदान किया, जबकि बीजू जनता दल के सांसदों ने अपनी अंतरात्मा के अनुसार मतदान किया। हालांकि बीजेडी की ओर से कोई बयान नहीं आया, लेकिन कुछ सूत्रों ने दावा किया कि उसके सात में से तीन सांसदों ने विधेयक के खिलाफ वोट दिया, तीन ने समर्थन किया और एक ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। वहीं वाईएसआरसीपी के सात सांसदों में से एक ने पार्टी से अलग होकर विधेयक के खिलाफ वोट नहीं दिया। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह रही कि अन्नाद्रमुक के सदस्यों ने विधेयक के खिलाफ मतदान किया, जबकि पार्टी तमिलनाडु विधानसभा के अगले वर्ष होने वाले चुनावों के लिए भाजपा के साथ संभावित गठबंधन के लिए तैयार है। दो निर्दलीय कपिल सिब्बल और अजीत कुमार भुइयां ने भी विधेयक के खिलाफ वोट दिया। ‘आप’ के दो सांसद हरभजन सिंह और संजीव अरोड़ा सदन में आए ही नहीं। बजट सत्र के दूसरे चरण में सरकार के खिलाफ विपक्ष एकजुट रहा। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने, जो उच्च सदन में विपक्ष के नेता हैं, हर सुबह इंडिया गठबंधन के नेताओं की बैठक आयोजित करना बंद कर दिया है, क्योंकि तृणमूल कांग्रेस जैसे सहयोगी दल इसमें शामिल नहीं हो रहे हैं।
अदालत का दरवाज़ा
यह विधेयक मुसलमानों के खिलाफ है या नहीं है, इसकी बहस अभी चल ही रही है। इस कानून पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हुए भी नहीं थे कि शुक्रवार को दिन में एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी और कांग्रेस सांसद मुहम्मद जावेद ने इस संशोधन विधेयक की वैधता को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा दिया। उसके बाद कुछ याचिकाएँ सामने आईं हैं, इनमें कांग्रेस पार्टी भी औपचारिक रूप से या तो अब तक शामिल हो चुकी होगी और नहीं हुई है, तो हो जाएगी। बहरहाल इससे जुड़ी राजनीति चलती रहेगी, पर अदालत में इसकी संवैधानिकता पर विचार होगा।
भारत वार्ता में प्रकाशित
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