Sunday, February 1, 2015

आक्रामक डिप्लोमेसी का दौर

मोदी सरकार के पहले नौ महीनों में सबसे ज्यादा गतिविधियाँ विदेश नीति के मोर्चे पर हुईं हैं। इसके दो लक्ष्य नजर आते हैं। एक, सामरिक और दूसरा आर्थिक। देश को जैसी आर्थिक गतिविधियों की जरूरत है वे उच्चस्तरीय तकनीक और विदेशी पूँजी निवेश पर निर्भर हैं। भारत को तेजी से अपने इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करना है जिसकी पटरियों पर आर्थिक गतिविधियों की गाड़ी चले। अमेरिका के साथ हुए न्यूक्लियर डील का निहितार्थ केवल नाभिकीय ऊर्जा की तकनीक हासिल करना ही नहीं था। असली बात है आने वाले वक्त की ऊर्जा आवश्यकताओं को समझना और उनके हल खोजना है।


अमेरिका और पश्चिमी देशों ने सन 1998 के एटमी विस्फोट के कारण भारत पर पाबंदियाँ लगा तो दीं, पर भारत की उपेक्षा करके वे अपने आर्थिक हितों को भी नुकसान पहुँचा रहे थे। दुनिया अब न तो साम्राज्यवादी दौर में है और न औपनिवेशिक युग में। वैश्वीकरण का यह दौर नया है और इसके मुहावरे नए हैं। भारत के सामने व्यावहारिक परिस्थितियाँ साफ हैं। सत्तर के दशक में चीन ने अपनी अर्थ-व्यवस्था को खोलना शुरू किया था, जिसकी परिणति है चीन की आर्थिक-सामरिक और राजनीतिक शक्ति का विकास। पर यह शक्ति एकतरफा नहीं हो सकती।

भारत फिलहाल न तो कोई गुट खड़ा करने की स्थिति में है और न किसी एक गुट के खड़ा होने की स्थिति में। आज हमारी विदेशमंत्री सुषमा स्वराज चीन में हैं। इस यात्रा की योजना ओबामा-यात्रा से उत्पन्न स्थितियों के कारण पैदा हुई है। भारत फिलहाल चीन के साथ रिश्ते बनाकर रखना चाहता है। हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में चीन की भूमिका है। हमें भी चीन का बाजार चाहिए। दूसरी ओर चीन के साथ कुछ बातें खुलकर भी होनी चाहिए। हमारे भी आर्थिक हित हैं। अगले कुछ साल में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हमारा व्यापार बढ़ेगा। जिस तरह चीन हिन्द महासागर में अपने आर्थिक हितों की रक्षा के बारे में सोच रहा है उसी तरह हमें भी अपने हितों की रक्षा करनी है।

ओबामा-यात्रा के बाद वैश्विक मंच पर भारत का रसूख बढ़ा है। आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए के लिए इस इलाके में शांति का माहौल भी चाहिए। इस यात्रा पर पाकिस्तान और चीन की मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आईं हैं। हमारी पहली कोशिश पाकिस्तान के साथ रिश्तों को भी सामान्य करने की होनी चाहिए। इसमें पाकिस्तान की भूमिका है और चीन की भी। जिस वक्त राष्ट्रपति ओबामा दिल्ली में थे और पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष चीन यात्रा पर गए थे, चीन के किसी नेता ने पाकिस्तान को पक्का और पुराना दोस्त बताया। दूसरी ओर चीन के सरकारी मीडिया ने कहा कि अमेरिका भारत को अपने फंदे में फँसा रहा है। एक टिप्पणी में भारत की महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा का मजाक भी उड़ाया गया।

ताज़ा खबर है कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति की 70 वीं वर्षगांठ के मौके पर चीन एक भव्य परेड की योजना बनाई है, जिसमें मुख्य अतिथि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन होंगे। इस मौके पर उत्तर कोरिया के शासनाध्यक्ष किम-जोंग उन भी होंगे। इसके पहले मई में रूस ऐसी ही एक परेड होने वाली है जिसमें चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग शिरकत करेंगे। क्या यह नए शीतयुद्ध की शुरुआत है? चीन यदि महाशक्ति बन रहा है तो उसे भी संयम रखना होगा।  

बराक ओबामा के पहले पिछले साल जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे गणतंत्र परेड में मुख्य अतिथि थे। सन 2002 के बाद से भारत, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय सामरिक संवाद चल रहा है। सन 2007 में शिंजो एबे की पहल पर अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच क्वाड्रिलेटरल डायलॉग शुरू हुआ। जिस वक्त यह संवाद शुरू हुआ ऑस्ट्रेलिया में जॉन हावर्थ प्रधानमंत्री थे। उनके बाद प्रधानमंत्री बने केविन रड, जिनके कार्यकाल में सामरिक चतुष्कोणीय संवाद की पहल धीमी पड़ गई। लगता है अब चतुष्कोणीय संवाद फिर से शुरू होगा।

चीनी उभार को लेकर अमेरिका और जापान चिंतित हैं। एशिया-प्रशांत क्षेत्र आने वाले समय में शीतयुद्ध का केंद्र बने तो आश्चर्य नहीं होगा। सागर मार्गों की सुरक्षा एक पहलू है। दूसरा पहलू है भविष्य की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना। दक्षिण चीन सागर में पेट्रोलियम की प्रचुर संभावनाएं हैं। पर चीन और उसके पड़ोसी देशों के बीच सीमा को लेकर विवाद हैं। वियतनाम ने भारत को इस इलाके में तेल खोज का काम सौंपा है। इस इलाके में वियतनाम भी हमारे महत्वपूर्ण मित्र देश के रूप में उभरा है।

बराक ओबामा और नरेंद्र मोदी की वार्ता के बाद जारी संयुक्त बयान में दक्षिण एशिया से लेकर मध्य एशिया तक सहयोग का माहौल बनाने की बात कही गई है। यह सहयोग तभी सम्भव है जब भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य हों। वक्तव्य में यह भी कहा गया है कि दक्षिण चीन सागर में विवादों का समाधान अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों की रोशनी में होना चाहिए। किसी पक्ष को ताकत के इस्तेमाल की धमकी नहीं देनी चाहिए। प्रकारांतर से यह चीन को चेतावनी है। हमारी विदेश नीति सामरिक गठबंधनों से अलग रहने की रही है। पहली बार भारतीय विदेश नीति में आक्रामकता का पुट शामिल हुआ है।

ओबामा की यात्रा के एक महीने पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत यात्रा पर आए थे। यूक्रेन और क्राइमिया से जुड़ी नीतियों के कारण रूस इन दिनों अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है। भारत ने रूस के साथ न केवल शस्त्र परियोजनाओं को जारी रखने की घोषणा की है, बल्कि आर्कटिक क्षेत्र में रूस के साथ मिलकर तेल और प्राकृतिक गैस की खोज का काम करने का समझौता भी किया है। लगभग इसी प्रकार का सहयोग चीन के साथ रखने की मंशा भारत ने जाहिर की है।

नवम्बर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत यात्रा के दौरान कहा था कि अमेरिका कोशिश करेगा कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के लिए समर्थन जुटाया जाए। इस बार भी उन्होंने इसी आशय की बात की है। इस प्रयास में रूस, ब्रिटेन और फ्रांस का समर्थन मिलेगा, पर शायद चीन अड़ंगा लगाएगा। भारत के साथ जापान को भी सुरक्षा परिषद में सीट देने का प्रयास अमेरिका करेगा। इसका भी चीन विरोध करेगा। इन सारी विसंगतियों की छाया में आने वाले समय की अंतरराष्ट्रीय राजनीति चलेगी। अमेरिका भारत को चार अंतरराष्ट्रीय समूहों में प्रवेश दिलाने का प्रयास कर रहा है। ये हैं न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41 देशों का वासेनार अरेंजमेंट और चौथा है ऑस्ट्रेलिया ग्रुप। ये चारों समूह सामरिक तकनीकी विशेषज्ञता के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं। फिलहाल हमें सामरिक दृष्टि के अलावा अपने आर्थिक लक्ष्यों पर भी नजर रखनी होगी। उम्मीद है यह साल अनेक बड़े फैसलों का साल होगा।

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