कांग्रेस ने मोदी सरकार के 6 महीने के कार्यकाल के दौरान विभिन्न मुद्दों पर यू-टर्न लेने का आरोप लगाते हुए एक बुकलेट जारी की है। इस बुकलेट में बताया गया है कि सत्ता में आने से पहले बीजेपी ने क्या-क्या वादे किए थे और सत्ता में आने के बाद कैसे वह उनसे पलट गई। '6 महीने पार, यू टर्न सरकार' टाइटल वाली इस बुकलेट में विभिन्न मुद्दों पर बीजेपी सरकार की 22 'पलटियों' का जिक्र किया गया है। कांग्रेस पार्टी के सामने अस्तित्व रक्षा का सवाल है। उसके पास हमले करने के अलावा कोई हथियार नहीं है। प्रश्न मोदी सरकार के कौशल का है। भाजपा के बाहर और भीतर मोदी विरोधियों को इंतज़ार है कि एक ऐसी घड़ी आएगी, जब मोदी का विजय रथ धीमा पड़ेगा। दूसरी ओर मोदी सरकार के सामने तेजी से फैसले करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि उसने सत्ता हासिल करने के प्रयास में शत्रुओं पर जो प्रहार किए थे, उनका जवाब भी मिलना है। सवाल है कि क्या मोदी पर प्रहार का सही वक्त आ गया है? या इस वक्त के तीर उल्टे विरोधियों पर ही पड़ेंगे?
राहुल गांधी से
लेकर सीताराम येचुरी तक और शायद भाजपा के भीतर बैठे विरोधियों तक को आशा है कि
मोदी का हनीमून कभी न कभी तो खत्म होगा। इस उम्मीद के पीछे रोशनी की किरणें हैं
महंगाई, काला धन और बेरोज़गारी वगैरह। सरकारी कर्मचारियों ने दुःख व्यक्त करना
शुरू कर दिया है। अब दफ्तर में ज्यादा काम करना पड़ता है। सरकार शायद रिटायरमेंट
की उम्र कम करने वाली है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कर्मचारियों को लुभाने के लिए यूपीए
सरकार ने सातवें वेतन आयोग के गठन को मंजूरी दी थी। उसे व्यवहारिक रूप देने की
जिम्मेदारी सरकार की है। उस वक्त नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और
उन्होंने आयोग के गठन का विरोध इस आधार पर किया था कि इससे राज्य सरकार पर भी
अनावश्यक दबाव पड़ेगा। मोदी के अंतर्विरोधों के खुलने का उनके विरोधियों को
इंतज़ार है। आर्थिक उदारीकरण के लिहाज से संसद का यह सत्र जितना महत्वपूर्ण है
उतना ही महत्वपूर्ण विपक्षी एकता के लिहाज़ से भी है। संसदीय कर्म के प्रति
राजनीति की प्रतिबद्धता का परिचय भी इस सत्र में देखने को मिल रहा है।
सरकार पर दबाव है
कि वह अपने सुधार एजेंडा को जल्द से जल्द पूरा करे, पर राजनीतिक हालात उसमें फच्चर
फँसा रहे हैं। रक्षा क्षेत्र में विदेशी पूँजी के दरवाजे खुले हैं। बिजली मंत्री
पीयूष गोयल का कहना है कि पिछले चालीस दिन में हमने जो कर दिया उसने पिछले चालीस
साल की कहानी बदल दी है। सशस्त्र सेनाओं के लिए शस्त्र खरीद के एक के बाद एक तीन
बड़े फैसले किए गए हैं। मनोहर पर्रिकर के रूप में कर्मठ प्रशासक को नियुक्त करके
मोदी सरकार ने संकेत दिया है कि वह काम को तार्किक परिणति तक पहुँचाएगी। पर तार्किक
परिणति क्या है? हमें उदारीकरण चाहिए या नहीं? उदारीकरण समस्या है या समाधान?
पिछले हफ्ते राष्ट्रपति
प्रणब मुखर्जी ने वाराणसी में कहा कि भारत जल्द आठ से नौ प्रतिशत की सालाना विकास
दर हासिल कर लेगा और यह तीन खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला देश हो जाएगा। उन्होंने
यह भी कहा कि विकास के वास्तविक अर्थ को
लेकर स्पष्टता होनी चाहिए। क्या इसका अर्थ सिर्फ जीडीपी विकास है या इसमें सकल
राष्ट्रीय खुशी (ग्रॉस नेशनल हैपीनेस) जैसे तत्व भी शामिल हैं? भूटान ने ‘ग्रॉस नेशनल हैपीनेस’ की परिकल्पना को
1970 के दशक में
स्वीकार किया था। उसने प्रगति को मापने के एकमात्र तरीके जीडीपी को खारिज किया था।
भारतीय संविधान ने समग्र
न्याय-सामाजिक, आर्थिक एवं
राजनीतिक को समाहित किया है। एक को पूरा करने के क्रम में दूसरे पहलू की अनदेखी
नहीं कर सकते। उधर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकार के सुधारवादी कदमों को लेकर
कायम संशय को साफ किया है। उन्होंने कहा कि सरकार सुधारों की प्रक्रिया को तेज
करेगी और इसे आगे बढ़ाएगी। वे जिन कदमों को उठाने की बात कर रहे हैं वे यूपीए
सरकार के समय में शुरू हुए हैं और आज कांग्रेस ही इनका विरोध कर रही है।
संसद के शीत सत्र
में बीमा विधेयक को पास कराने के अलावा जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) को पेश करने, भूमि अधिग्रहण कानून में
बदलाव, गैर कोयला खनिजों
की नीलामी, सब्सिडी के दायरे
से गैर जरूरी क्षेत्रों को हटाने जैसी जिम्मेदारियाँ सरकार पर हैं। सरकार की सफलता
के तीन कारक सबसे महत्वपूर्ण हैं। एक, बड़े स्तर पर निवेश। सरकार विदेश में अपनी छवि सुधारना
चाहती है ताकि निवेशक भारत में निवेश को सुरक्षित मानें। देश का विदेशी मुद्रा
भंडार बेहतर हुआ है, पेट्रोलियम की
अंतरराष्ट्रीय कीमतें कम हुईं हैं, जिससे रुपए की कीमत बढ़ी है। विदेशी कम्पनियों पर टैक्स के
मामले में सरकार का रुख नरम हुआ है। पर सरकार के सामने राह आसान नहीं है। इस साल
जुलाई से सितंबर की तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 5.3 फ़ीसदी रही है, जो कि उससे पहले की
तिमाही में 5.7 प्रतिशत थी। यह
कोई बड़ी चेतावनी नहीं है,
पर विनिर्माण क्षेत्र
में गति बढ़ाए बगैर काम नहीं होगा। मुद्रास्फीति को लेकर चिंताएं हैं। इसपर काबू
पाया जा सका तो ब्याज की दरें गिरेंगी और आर्थिक गतिविधियों में तेजी दिखाई
पड़ेगी।
मोदी की एक
पसंदीदा योजना है 100 स्मार्ट सिटी।
एक प्रकार से यह नए भारत का निर्माण है। सरकार का अंदाज़ा है कि इस परियोजना में
हर साल 35,000 करोड़ रुपये का
खर्च आएगा। इस योजना की सफलता भी विदेशी निवेश पर निर्भर करती है। विशेषज्ञ कहते
हैं कि बिजली और पीने के साफ पानी जैसे बुनियादी ढाँचे की कमी के कारण इसमें
बाधाएं आएंगी। मोदी ने 'सन 2019 तक डिजिटल इंडिया' का विज़न दिया है। इस
योजना में ई-गवर्नेंस, सब के लिए
ब्रॉडबैंड, आईटी की शिक्षा
और दूसरे क्षेत्रों में
मोदी सरकार यूपीए
के आधार कार्यक्रम को आगे बढ़ा रही है। यह दिखाई पड़ने वाला काम नहीं। पर इसका असर
गहराई तक पड़ेगा। सरकार के सामने एफएसएलआरसी यानी फाइनेंशियल सेक्टर लेजिस्लेटिव
रिफॉर्म्स कमीशन की संस्तुतियों को लागू करने की मुख्य चुनौती है। एफएसएलआरसी
रिपोर्ट जस्टिस श्रीकृष्ण कमेटी ने तैयार की थी। यह रिपोर्ट यूपीए सरकार के समय
मार्च 2013 में सौंपी गई थी। इसमें कई वित्तीय कानून बदलने की बात कही गई है। चार
अलग-अलग समूह रपट का अध्ययन कर रहे हैं। इनके कार्यान्वयन में भारी स्तर पर विधायी
और प्रशासनिक बदलाव करने होंगे। आयोग ने भारतीय वित्तीय संहिता (आईएफसी) लागू करने
के बारे में एक विधेयक का मसौदा भी सुझाया है। रिज़र्व बैंक समेत कुछ संबद्ध पक्ष
आईएफसी के मसौदे के कुछ प्रस्तावों के विरोध में हैं। आयोग ने सात एजेंसियों वाले वित्तीय क्षेत्र की
सिफारिश की है जिसमें भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई), एकीकृत वित्तीय एजेंसी (यूएफए), वित्तीय क्षेत्र अपीलीय ट्रायब्यूनल
(एफसैट), निपटान निगम
(आरसी), वित्तीय निपटान
एजेंसी (एफआरए), वित्तीय स्थिति
और विकास परिषद (एफएसडीसी) और सार्वजनिक ऋण प्रबंधन एजेंसी (पीडीएमए) की व्यवस्था
का सुझाव है।
वित्तीय नियमन के
अलावा देश के सामान्य कानूनों में बदलाव की जरूरत भी है। पिछले दिनों विधि आयोग ने
केंद्रीय मंत्रालयों और संबंधित विभागों से पूछा था कि सोलह साल पहले जिन ढाई सौ
अप्रासंगिक कानूनों को रद करने की सिफारिश की गई थी, उन्हें अब तक निरस्त क्यों नहीं किया गया है? डेढ़ दशक पहले विधि आयोग
ने अपनी तीन रिपोर्टो और पीसी जैन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कुल 253 अप्रचलित कानूनों को
निरस्त करने की सिफारिश की थी। इनमें से 250 की सिफारिश अकेले पीसी जैन कमीशन की थी। मोदी सरकार ने बदलाव
के कानूनी एजेंडे में इस काम को भी शामिल किया है। विधि आयोग ने कानूनों के अध्ययन
और पहचान के लिए लीगल इनेक्टमेंट्स सिंपलीफिकेशन एंड स्ट्रीम लाइनिंग प्रोजेक्ट (एलइएसएस)
शुरू किया है। इसमें पहला काम अप्रचलित कानूनों की पहचान कर उन्हें निरस्त करना।
पिछले हफ्ते संसद
ने श्रम कानूनों में एक बड़े बदलाव को स्वीकार किया जो विवाद का विषय बनने से बच
गया। लोकसभा में शुक्रवार को श्रम विधि संशोधन विधेयक 2014 के पारित होने के साथ ही
इसे संसद की मंजूरी मिल गई। हालांकि राज्यसभा में सरकार अल्पमत में है, पर वहाँ से
यह 25 नवंबर को पास हो
गया। इस विधेयक को 23 मार्च 2011 को राज्यसभा में ही पेश
किया गया था। आर्थिक विकास की दर को तेज करने तथा विनिर्माण क्षेत्र में पूँजी
निवेश के लिए देश में श्रम कानूनों में बदलाव की माँग की जाती रही है। श्रम
कानूनों में बदलाव की कोशिश कोई सरकार नहीं कर पाती है। यह बदलाव एक शुरुआत है। इस
मामले में बड़े बदलावों की जरूरत है। पर उसके पहले इन बदलावों की जरूरत को देश के
सामने रेखांकित भी किया जाना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों
में संसद के समय की बरबादी का मसला बार-बार उठता रहा है। बहरहाल शीत सत्र में पहला
हफ़्ता अपेक्षाकृत बेहतर रहा है। लोकसभा ने अपने निर्धारित समय के 86 प्रतिशत और
राज्यसभा ने 81 प्रतिशत समय का सदुपयोग किया। शोर-शराबे और व्यवधान के मौके नहीं
आए। सरकार के सामने फिलहाल बीमा विधेयक को पास कराने की राजनीतिक चुनौती है। दूसरी
बड़ी चुनौती भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की है। यूपीए सरकार ने जो कानून पास
किया था उसके कारण भूमि अधिग्रहण अब बेहद मुश्किल काम हो गया है। कुछ मौके
राजनीतिक विवादों के आएंगे। योजना आयोग को समाप्त करने, गुजरात दंगों पर नानावती
आयोग की रिपोर्ट, सीमा पर चीनी सेना की घुसपैठ, नौसेना के जहाजों
से जुड़ी दुर्घटनाएं वगैरह। सरकार पर सवाल उठेंगे, पर उदारीकरण के सिलसिले में उठाए
गए कदमों का असर भी दिखाई पड़ेगा। सब कुछ मीठा ही मीठा नहीं होने वाला, पर मीठे का
आनंद खट्टा चखने के बाद ही है।
bahut badhiyaan aalekh....
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