कांग्रेस के लिए
यह साल आसमान से जमीन पर गिरने का साल था। दस साल पहले कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनीं
जिनमें कांग्रेस पार्टी को न केवल सत्ता में आने का मौका मिला बल्कि नेहरू-गांधी
परिवार को फिर से पार्टी की बागडोर हाथ में लेने का पूरा मौका मिला। इस साल अचानक
सारी योजना फेल हो गई और अब पार्टी गहरे खड्ड की और बढ़ रही है। लोकसभा चुनाव में
कांग्रेस को सबसे बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा। उसके ठीक पहले और बाद में हुए
सभी विधानसभा चुनावों में भी उसकी हार हुई। इन दिनों हो रहे जम्मू-कश्मीर और
झारखंड विधानसभा चुनावों के परिणाम 23 दिसम्बर को आने के बाद पराभव का पहिया एक
कदम और आगे बढ़ जाएगा।
पार्टी के सामने
सबसे बड़ा संकट नेतृत्व का है। व्यक्तिगत रूप से सोनिया गांधी की सेहत का सवाल है।
दूसरा सवाल राहुल के संशय का है। दुर्भाग्य से वे गलत समय पर सामने आए हैं। उन्हें
कम से कम पाँच साल पहले आना चाहिए था। आज पार्टी हार रही है और वे चुनाव जिताने
वाले नेता के रूप में उभर नहीं पाए हैं। उनके खिलाफ दबे-छिपे नहीं बल्कि खुले आम
बयान आने लगे हैं। पार्टी का एक तबका प्रियंका गांधी के नाम की गुहार लगा रहा है।
प्रियंका गांधी का नेतृत्व भी पार्टी के ढलान में उतरते रथ को रोक नहीं पाएगा।
सवाल है इस उतार की तार्किक परिणति क्या है?
मई में पराजय के
बाद पार्टी को रणनीति के रूप में कुछ समझ में नहीं आया। उसने पहले दिन से ही मोदी
सरकार पर वादों को पूरा न कर पाने और महंगाई को बढ़ाने का आरोप लगाना शुरू कर
दिया। उसे बहुत जल्द अपनी रणनीति की कमियाँ समझ में आ गईं और कम से कम छह महीने तक
इंतज़ार करने का फैसला किया गया। इस दौरान उसने अपनी अंदरूनी संरचना में कोई बड़ा बदलाव
करने की योजना नहीं बनाई। पराजय के वास्तविक कारणों पर जाने के बजाय उसका निष्कर्ष
है कि इसके पीछे सोनिया या राहुल गांधी का नेतृत्व नहीं है। फिलहाल उन्हें मोदी
सरकार फेल होगी और कांग्रेस की वापसी होगी। पार्टी ने मोदी विरोधी ताकतों के साथ
एकजुट होने का काम भी किया है। नवम्बर में जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जयंती पर
अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के मार्फत पार्टी ने मोदी विरोधी ताकतों को एकजुट होने का
संकेत भी किया। पर बुनियादी बात है कि कांग्रेस को अपने आप भी एकजुट होना है।
मोदी सरकार के
ठीक 180 दिन पूरे होते ही 1 दिसम्बर को पार्टी ने एक बुकलेट जारी की। '6 महीने पार, यू टर्न सरकार' टाइटल वाली इस बुकलेट में विभिन्न मुद्दों पर बीजेपी सरकार
की 25 'पलटियों' या यू टर्न का जिक्र किया गया है। कांग्रेस
पार्टी के सामने अस्तित्व रक्षा का सवाल है। उसके पास हमले करने के अलावा कोई
हथियार नहीं है। मोदी विरोधियों को इंतज़ार है कि एक ऐसी घड़ी आएगी, जब उनका विजय रथ धीमा पड़ेगा। संसद के दो
सत्रों में शांति के साथ हिस्सा लेने के बाद कांग्रेस ने शीत सत्र में अपेक्षाकृत
आक्रामक रुख अपनाया है। इस रुख की जरूरत भी है, क्योंकि राजनीतिक मैदान में उतरी
कोई पार्टी अपने विरोधियों का समर्थन करके जीवित नहीं रह सकती। पर विरोध के आगे
क्या?
पार्टी को लगता
है जिस तरह से बीजेपी ने पिछले तीन-चार साल में लगातार कांग्रेस विरोधी माहौल
बनाकर सफलता प्राप्त की वही रणनीति उसे अपनानी चाहिए। एक हद तक बात सही है, पर
पार्टी को अपने आप को तैयार भी करना होगा। दूसरे बीजेपी ने 2009 के चुनाव के बाद
कांग्रेस पर हमले शुरू किए थे। यानी पहले पाँच साल पार्टी अपेक्षाकृत आराम से थी।
उस पर दबाव था भी तो अपने समर्थक वामपंथी दलों का था। फिलहाल कांग्रेस के सामने
चार चुनौतियाँ हैं:-
·
लगातार होती पराजय को रोकना
·
संगठन के भीतर बढ़ते लतिहाव पर काबू पाना और कार्यकर्ता का
मनोबल बढ़ाना
·
राहुल गांधी के नेतृत्व को मजबूत करना
·
पार्टी को नया वैचारिक आधार प्रदान करना
पार्टी के
संगठनात्मक चुनाव होने वाले हैं। अगले साल सोनिया गांधी का कार्यकाल पूरा होगा। क्या
राहुल गांधी उनकी जगह लेंगे? राहुल ने हाल में कहा था कि पार्टी के संगठनात्मक चुनावों
का इस्तेमाल पार्टी संगठन में नई ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जाना चाहिए। यह बात
उन्होंने अक्तूबर में तब कही थी जब महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में पार्टी
की हार हो चुकी थी। वे चाहते हैं कि जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं की बात ज्यादा से
ज्यादा सुनी जाए।
चुनावों के
पारदर्शी होने से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या पार्टी नेहरू-गांधी परिवार
की छाया से बाहर निकलेगी? पिछले दिनों पी चिदंबरम के एक वक्तव्य से कुछ लोगों ने
निष्कर्ष निकाला कि शायद पार्टी इस दिशा में आगे बढ़ेगी, पर यह बात सम्भव नहीं
लगती। सम्भव है भविष्य में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष
बन जाए। पर चिदंबरम का अनुरोध सोनिया और राहुल से था। उन्होंने यह अनुरोध भी किया
कि वे जनता और मीडिया से ज्यादा से ज्यादा मुखातिब हों। चिदंबरम ने ऐसा नहीं कहा
कि पार्टी परिवार की छत्रछाया से बाहर निकलेगी। उन्होंने सिर्फ माना कि शायद कभी
ऐसा हो। परिवार इस पार्टी की धुरी है और कमज़ोरी भी।
सोनिया गांधी
अपेक्षाकृत संतुलित नेता हैं, पर वे किसी करिश्मे के
कारण शिखर पर नहीं हैं, बल्कि परिवार के कारण
हैं। परिवार से बाहर का कोई नेता कभी पार्टी अध्यक्ष बना भी तब वह राम के इंतज़ार
में बैठे भरत जैसा होगा। सन 1969 के बाद से कांग्रेस इंदिरा कांग्रेस है। काफी समय
तक तो उसका नाम भी यही रहा था। सन 1977 की पराजय के बाद 1978 में इंदिरा गांधी
पाटी की अध्यक्ष बनीं थीं। फिर संजय और राजीव गांधी को राजनीति में लाया गया।
सिर्फ इसलिए कि विकल्प परिवार के भीतर से ही होगा। इंदिरा गांधी 1984 तक अध्यक्ष
रहीं और उनकी हत्या के बाद 1984 से 1991 तक राजीव गांधी। पीवी नरसिंह राव और
सीताराम केसरी का कार्यकाल पार्टी के भीतर की ऊहापोह का काल था। उस दौरान पार्टी
को खानदान से अलग करने की कोशिशें भी हुईं। जिस का खामियाजा पद से हटने के बाद
नरसिंहराव को और फिर केसरी को भुगतना पड़ा।
कांग्रेस अब
क्षेत्रीय पार्टी के रूप में भी नहीं बची है। जिस तरह उसका आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाडु और बंगाल से
सफाया हुआ है उसे देखते हुए लगता है कि पूर्वोत्तर के राज्यों में भी उसकी यही दशा
होगी। सच यह है कि कई राज्यों में पार्टी दूसरे नम्बर पर भी नहीं है। मोदी फेल भी
हुए और भाजपा हार भी गई तो क्या कांग्रेस की वापसी हो जाएगी? पार्टी अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से गुजर रही है। यह
संकट 2014 की देन है और लगता है कि अगले साल यह और मुखर होगा।
साढ़े चार साल तो मोदी सरकार कहीं जा नहीं रही, इतने इन्तजार के बाद इस सरकार के असफल होने की भी कामना करनी होगी , जो काफी जटिल कार्य है इसबीच खाली होते राज्यों के किलों को बचाना जरुरी होगा जो अभी भी संकट का कारण बना हुआ है , हर राज्य चुनाव में कोई न कोई गढ़ खाली होता जा रहा है , इसलिए पार्टी की राह दिन बी दिन कठिन होती जा रही है. राहुल बाबा के नेतृत्व में यह सब ठीक हो सकेगा यह भी संदेहास्पद ही है
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