Saturday, December 13, 2014

‘आदर्श’ राजनीति के इंतज़ार में गाँव

बदलाव लाने का एक तरीका होता है चेंज लीडर्स तैयार करो। ऐसे व्यक्तियों और संस्थाओं को बनाओ, जो दूसरों को प्रेरित करें। इस सिद्धांत पर हमारे देश में आदर्शों के ढेर लग गए हैं। आदर्श विद्यालय, आदर्श चिकित्सालय, आदर्श रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन से लेकर आदर्श ग्राम तक। सैद्धांतिक रूप से यह उपयोगी धारणा है, बशर्ते इसे लागू करने का कोई आदर्श सिद्धांत हो। विकास की वास्तविक समस्या अच्छी नीतियों को खोजने की नहीं, राजनीतिक प्रक्रिया को खोजने की है। राजनीति सही है, तो सही नीतियाँ अपने आप बनेंगी। खराब संस्थाओं के दुष्चक्र को तोड़ने का एक रास्ता है आदर्श संस्थाओं को तैयार करना। कुछ दशक पहले अमेरिकी अर्थशास्त्री पॉल रोमर ने व्यवस्थाओं को ठीक करने का एक समाधान सुझाया यदि आप अपना देश नहीं चला सकते तो उसे किसी दूसरे को सब कॉण्ट्रैक्ट कर दीजिए। उन्होंने अपनी अवधारणा को नाम दिया चार्टर सिटीज़। देश अपने यहाँ खाली ज़मीन विदेशी ताकत को सौंप दें, जो नया शहर बसाए और अच्छी संस्थाएं बनाए। एकदम बुनियाद से शुरू करने पर अच्छे ग्राउंड रूल भी बनेंगे।

हमें आदर्श गाँव और आदर्श विद्यालय क्यों चाहिए? क्योंकि सामान्य तरीके से गाँवों का विकास नहीं होता। वे डराने लगे हैं। पहले यह देखना होगा कि क्या गाँव डराते हैं? नरेंद्र मोदी की सरकार ने पहले 100 स्मार्ट सिटीज़ की अवधारणा दी और अब आदर्श ग्राम योजना दी है। बदलाव लाने का आइडिया अच्छा है बशर्ते वह लागू हो। इस साल जुलाई में आंध्र प्रदेश से खबर मिली थी कि शामीरपेट पुलिस ने एक मुर्गी फार्म पर छापा मारकर रेव पार्टी का भंडाफोड किया है। मुर्गी फार्म पर मुर्गियाँ नहीं थीं। अलबत्ता कुछ  नौजवानों के सामने औरतें उरियाँ (नग्न) रक़्स कर रही थीं। इस रेव पार्टी से पुलिस ने 14 नौजवानों को गिरफ्तार किया। शामीरपेट हैदराबाद और सिकंदराबाद के जुड़वाँ शहरों से 25 किमी दूर बसा शहर है। यह शहर कभी गाँव होता था। समाजशास्त्री और साहित्यकार श्यामाचरण दुबे ने इस गाँव में पचास के दशक में उस्मानिया विवि के तत्वावधान में एक सामाजिक अध्ययन किया था। उसके आधार पर उन्होंने अपनी मशहूर पुस्तक इंडियन विलेज लिखी थी। उस किताब के अंतिम वाक्यों में उन्होंने लिखा, कहा नहीं जा सकता कि शताब्दी के अंत तक शामीरपेट की नियति क्या होगी। संभव है वह विकराल गति से बढ़ते महानगर का अर्ध-ग्रामीण अंतः क्षेत्र बन जाए...। सन 2014 में उनकी बात सच लगती है।

गाँव को लेकर हमारी धारणाओं पर अक्सर भावुकता का पानी चढ़ा रहता है। अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है जैसी बातें कवि सम्मेलनों में अच्छी लगती हैं। किसी गाँव में जाकर देखें तो कहानी दूसरी मिलेगी। गाँव माने असुविधा। महात्मा गांधी का कहना था, भारत का भविष्य गाँवों में छिपा है। क्या बदहाली और बेचारगी को भारत का भविष्य मान लें? गाँव केवल छोटी सी भौगोलिक इकाई नहीं है। हजारों साल की परम्परा से वह हमारे लोक-मत, लोक-जीवन और लोक-संस्कृति की बुनियाद है। सामाजिक विचार का सबसे प्रभावशाली मंच। पर ग्राम समुदाय स्थिर और परिवर्तन-शून्य नहीं है। वह उसमें हमारे सामाजिक अंतर्विरोध भी झलकते हैं। हमारा लोकतंत्र पश्चिम से आयातित है। अलबत्ता 73 वे संविधान संशोधन के बाद जिस पंचायत राज व्यवस्था को अपने ऊपर लागू करने का फैसला किया, उसमें परम्परागत सामाजिक परिकल्पना भी शामिल थी, जो व्यवहारतः लागू हो नहीं पाई है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से जब आदर्श ग्राम योजना का एलान किया तभी यह सवाल भी उठा कि आदर्श गाँव में क्या होगा? आदर्श गाँव की कुछ योजनाएं इससे पहले भी आईं और चली गईं। सामान्य समझ कहती है कि स्कूल हों, कॉलेज हों और रोज़गार के अवसर हों। अस्पताल, बिजली, सड़कें, परिवहन, संचार वगैरह-वगैरह वैसा ही हो जैसा शहरों में होता है। देश में छह लाख से ज्यादा गाँव हैं। सबको स्मार्ट सिटी बनाना संभव नहीं। मोदी ने योजना का शुभारंभ करते हुए कहा था, हम करीब 800 सांसद हैं। हरेक 2019 तक तीन-तीन आदर्श गांव बनाए और 2019 से 2024 तक 5-5 गाँव और बनाए। यानी दस साल के भीतर 6433 गांव आदर्श हो जाएं। साढ़े छह हजार ही सही इतने खुशहाल आदर्श गाँव हो जाएंगे तो मान लेते हैं कि हरेक के साथ सौ-सौ गाँव भी बदल जाएंगे।

आदर्श गाँव योजना लागू न की जाए तब क्या बदलाव नहीं होगा? असली सवाल यह है कि बदलाव क्या हो और कैसे हो? इसके पीछे विचार यह है कि हरेक आदर्श गाँव के साथ-साथ आसपास के दूसरे गाँव भी विकसित होंगे। बदलाव को तेजी से लाने की यह कोशिश है। दूसरी ओर तेजी से शहरीकरण हो रहा है। शहरों में रोज़गार हैं, पर वहाँ प्रदूषण है, झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं। अकेलापन है, सामाजिक विघटन है। अक्सर ऐसा देखा गया है कि गाँव से एक बार निकलने के बाद लोग वापस नहीं जाना चाहते। देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है। भारत आज भी कृषि प्रधान देश है। दोनों स्थितियों में अब तेजी से बदलाव आ रहा है। अगली दो पीढ़ियों में व्यक्ति के खेती के साथ रिश्ते बदल जाएंगे। खेती को अपनी जीवन शैली मानने वाली पीढ़ी का क्रमशः लोप होता जाएगा। और इसका प्रत्यक्ष प्रभाव तेजी से बढ़ते शहरीकरण में दिखाई पड़ेगा, बल्कि दिखाई पड़ रहा है। श्यामाचरण दुबे की किताब का हिंदी अनुवाद भारतीय ग्राम नाम से 1975 में प्रकाशित हुआ। इक्कीस साल बाद उसका दूसरा संस्करण 1996 में आया। इसमें लेखक ने परिशिष्ट में चार दशक बाद शीर्षक से बदलते शामीरपेट और महानगर से गाँव के बढ़ते संपर्क का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा, गाँव तो नगर की ओर जा ही रहा है, नगर भी गाँव में आ रहा है।

भारत में किसी ऐसे गाँव को नहीं खोजा जा सकता जिसे सारे देश का प्रतिनिधि कहा जा सके, किन्तु मध्य और प्रायद्वीपीय भारत के ग्राम समुदायों में आमतौर पर मिलने वाली ज्यादातर खासियतें शामीरपेट गाँव में पाई जाती हैं। मुर्गी फार्म पर पड़ा छापा भी इन खासियतों में शामिल है। बदलाव केवल खेत-खलिहानों और सड़कों-चौराहों की शक्लो-सूरत तक सीमित नहीं है। इसमें मनुष्य और उसके पर्यावरण से जुड़े तत्व ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। पर उसके पहले सवाल यह है कि हम इस अभियान को लेकर कितने संज़ीदा हैं। इन दिनों मीडिया में जिस तरह स्वच्छ भारत के तहत झाड़ू लगाते नेताओं-अभिनेताओं की तस्वीरें दिखाई पड़ रहीं हैं तकरीबन उसी अंदाज़ में यह खबरें छप रहीं हैं कि किस सांसद ने किस गाँव को गोद ले लिया। हमें जिस सामाजिक रूपांतरण की जरूरत है वह पिछले 67 साल में छिछले नारों तक सीमित रहा है। वास्तव में गाँव का ह्रास हमारे जीवन के ह्रास को दर्शाता है।


हरेक गाँव व्यापक सामाजिक प्रणाली और संगठित राजनीतिक समाज का अंग रहा है। व्यक्ति केवल गाँव समुदाय का सदस्य ही नहीं होता, वह जाति, जनजाति और धार्मिक समूह का भी सदस्य है जिसका क्षेत्र अधिक विस्तृत होता है और कई गाँवों तक फैला होता है। इन इकाइयों का अपना संगठन, सत्ता और अनुशास्तियाँ होती हैं। आदर्श ग्राम योजना के तहत गाँवों को केवल इन्फ्रास्ट्रक्चर के जरिए मॉडल गाँव बनाना नहीं है। आधारभूत संरचना का निर्माण, स्वच्छता एवं पर्यावरण, आजीविका, लैंगिक समानता, महिला सशक्तिकरण, महिलाओं की सुरक्षा, सामाजिक न्याय ऊर्जा, ग्राम स्तर पर उपलब्ध सेवाएं एवं सामाजिक सुरक्षा, सार्वजनिक जीवन में आपसी सहयोग, आत्मनिर्भरता, स्थानीय स्वशासन, पारदर्शिता और जवाबदेही भी सुनिश्चित करनी है। यह एक बड़ी प्रतिज्ञा और कड़ी परीक्षा है। इसमें केवल आदर्श ग्राम योजना की ही नहीं, ग्रामीण पंचायतों, ग्रामीण विकास योजनाओं और ग्रामीण विमर्श की भूमिका होगी। अच्छी अवधारणाएं ना-उम्मीदी के दुश्चक्र को खत्म भी कर सकती हैं। यदि व्यवस्था डिलीवर करने लगेगी तब लोग राजनीति को ज़्यादा संज़ीदगी से लेंगे और व्यवस्था को कोसना बंद करेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ तो?


राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

2 comments:

  1. आदरणीय जोशीजी, सादर नमस्कार।
    आपका ब्लॉग हमेशा देखता हूँ और मैं इंतजार कर रहा हूँ की आपके ब्लॉग पर कब adsense के विज्ञापन चालू हो परन्तु अभीतक चालू नहीं हुए हैं। कृपया adsense के लिया apply करें आपका ब्लॉग adsense के लिए फिट है। Google ने हिंदी ब्लॉगों पर adsense शुरू कर दिया है। दूसरी बात यह है कि आपके ब्लॉग की सामग्री के अनुसार visitor संख्या कम है। कृपया कुछ समय निकल कर सर्च सेटिंग सही करें अथवा प्रत्येक पोस्ट को एक एक कर के गूगल सर्च इंजिन पर रजिस्टर करें।

    अनुराग चौधरी

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    1. अनुराग जी धन्यवाद। आपकी सलाह मानकर मैने गूगल एडसेंस को अर्जी दी और वह स्वीकृत हो गई। पर मैं इसकी बारीकियाँ नहीं जानता और न अपने ब्लॉग को लोकप्रिय बनाने के तरीके जानता हूँ। आपने कहा है कि सर्च सेटिंग ठीक करें, पर कैसे?

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