सन 2014 कांग्रेस के लिए खौफनाक यादें छोड़ कर जा
रहा है। इस साल पार्टी ने केवल लोकसभा चुनाव में ही भारी हार का सामना नहीं किया,
बल्कि आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, हरियाणा, महाराष्ट्र, सिक्किम के बाद अब जम्मू-कश्मीर
और झारखंड विधान सभाओं में पिटाई झेली है। यह सिलसिला पिछले साल से जारी है। पिछले
साल के अंत में उसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ और दिल्ली में यह हार गले
पड़ी थी। हाल के वर्षों में उसे केवल कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में
सफलता मिली है। आंध्र के वोटर ने तो उसे बहुत बड़ी सज़ा दी। प्रदेश की विधान सभा
में उसका एक भी सदस्य नहीं है। चुनाव के ठीक पहले तक उसकी सरकार थी। कांग्रेस ने
सन 2004 में दिल्ली में सरकार बनाने की जल्दबाज़ी में तेलंगाना राज्य की स्थापना का
संकल्प ले लिया था। उसका दुष्परिणाम उसके सामने है।
नेतृत्व और विचारधारा का संकट
पार्टी के सामने नेतृत्व और विचारधारा दोनों का
संकट है। जनता के सामने किसका चेहरा और क्या संदेश लेकर जाए? हाल में हुए दो
राज्यों के चुनाव में उसकी दुर्दशा की पूरी आशा थी, बावजूद इसके उसने गठबंधनों की
कोशिश भी नहीं की। इन दोनों राज्यों में चुनाव के कुछ समय पहले तक वह सत्तारूढ़
गठबंधन में शामिल थी। दोनों जगह चुनाव के पहले उसके गठबंधन टूटे। दोनों राज्यों
में उसकी सीटें घटीं। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने 2008 के
विधानसभा चुनावों में खंडित जनादेश के बाद गठबंधन किया था। गठबंधन सरकार ने तकरीबन
छह साल का अपना कार्यकाल काफी पूरा कर लिया था, लेकिन आखिरी दौर में गठबंधन तोड़
लिया। इस साल लोकसभा चुनाव दोनों ने एक साथ लड़ा था। बहरहाल कांग्रेस यहाँ परिणाम
को संतोषजनक मान रही है, जबकि उसकी सीटें 17 से घटकर 12 रह गईं हैं।
झारखंड में हालत और भी खराब हुई। पार्टी
प्रवक्ता अजय कुमार ने माना कि सभी गैर-भाजपा दलों को एक मंच पर लाना ठीक होता।
इससे झारखंड के नतीजे हमारे लिए कहीं बेहतर होते। भाजपा को सिर्फ 30 फीसद वोट मिले
हैं जबकि गैर-भाजपा दलों को 70 फीसद वोट मिले हैं। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव
में पार्टी के प्रदर्शन पर उन्होंने कहा कि वहां हमने अपेक्षाकृत अच्छा किया है।
हमने पिछले चुनाव में मिली दो-तीन सीटें गवां दी हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में मिली
करारी हार के बाद इसका अंदेशा था। कांग्रेस को स बात पर संतोष है कि लोकसभा चुनाव
के मुकाबले स्थिति सुधरी है।
महाराष्ट्र और हरियाणा ने कांग्रेस को जो झटका
दिया था उसकी बची-खुची कसर झारखंड और जम्मू-कश्मीर में पूरी हो गई है। पार्टी देश
में साम्प्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए अपने दरवाजे खोलने का एलान कर चुकी है,
पर कोई उसकी तरफ तवज्जोह देने वाला नहीं है। उसके नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा है
कि हम जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन को तैयार हैं, पर क्या पीडीपी तैयार
है? आजाद इसके पहले पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर चुके हैं जो अमरनाथ
के मुद्दे पर गिर गई थी। झारखंड में पार्टी जिस 70 फीसदी गैर-भाजपा वोट की बात कर
रही है, क्या वह संगठित रूप से भाजपा विरोधी है? इस मुहिम में ज्यादातर ऐसी पार्टियाँ हैं जो
अतीत में गैर-कांग्रेसवाद की पक्षधर थीं और कांग्रेस विरोधी वोट को एक करने के
प्रयास में रहती थीं। इस कोशिश में इन सभी पार्टियों ने किसी न किसी रूप में भाजपा
को भी अपने साथ रखा था। बहरहाल कांग्रेस को हाल में एकमात्र सफलता राजस्थान,
गुजरात और बिहार के उपचुनावों में मिली। बिहार में उसने जेडीयू और आरजेडी के साथ
गठबंधन बनाया है, पर यह गठबंधन देश की राजनीति में किस तरह फिट होगा अभी कहना
मुश्किल है।
देश भर से सफाया
कांग्रेस
इसके पहले सन 1977, 1989 और 1996 में पराजय का मुख देख चुकी है, पर इसके
पहले ऐसे हालात कभी पैदा नहीं हुए। इस समय देश के दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र
शासित क्षेत्रों से पार्टी का कोई प्रतिनिधि लोकसभा में नहीं है। साल के शुरू में
पार्टी की केंद्र में सरकार थी और राज्यों की विधानसभाओं भाजपा के मुकाबले कहीं बेहतर
स्थिति थी। साल बीतते-बीतते उसकी विधान सभाओं की ताकत भी खत्म हो चुकी है। अब
कांग्रेस कर्नाटक, केरल, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम, अरुणाचल, मिजोरम, मणिपुर
और मेघालय में ही सत्तारूढ़ है। इन राज्यों का राजनीतिक महत्व कितना है? और यहाँ भी
कांग्रेस कब तक है?
पार्टी अपने बुनियादी अंतर्विरोधों को हल कर
पाने की स्थिति में नहीं है। इसकी सारी ताकत एक परिवार पर केंद्रित है। अब जब
परिवार दबाव में है तब इससे जुड़े तमाम क्षत्रप अपनी-अपनी जागीर को लेकर बेचैन
हैं। पार्टी ने अपनी पराजय को लेकर आंतरिक रूप से चिंतन जरूर किया होगा, पर
सार्वजनिक रूप से उसने ऐसा इशारा नहीं किया कि वह विचार-विमर्श कर रही है। लोकसभा
के चुनाव परिणाम आने के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर
दिया था कि हार हुई तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमल नाथ ने तो
सीधे कहा कि वे सरकार में नहीं थे। कहीं गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है, जो अपने अच्छे कामों से जनता को परिचित नहीं
करा पाई। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर फोड़ा गया।
संगठनात्मक बदलाव का वादा
राहुल गांधी पार्टी संगठन में भारी बदलाव का
संकेत दे रहे हैं, पर समझ में नहीं आता कि बदलाव की दिशा क्या होगी। फिलहाल
संगठनात्मक चुनाव दो महीने के लिए टल गए हैं। अब यह चुनाव फरवरी 2015 के बाद होगा।
पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव जनार्दन द्विवेदी के मुताबिक छत्तीसगढ़ सहित कई
राज्यों से संगठन चुनाव को लेकर चल रहे सदस्यता अभियान को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव
था जिसके कारण यह फैसला किया गया है। यह सदस्यता अभियान 31 दिसंबर को ही खत्म हो
रहा था जिसे अब बढ़ाकर 28 फरवरी कर दिया गया है।
झारखंड में कांग्रेस, जेएमएम, राजद, जेडीयू और जेवीएम (पी) के महागठबंधन की एक
कोशिश हुई थी, पर ऐसा हो नहीं पाया। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने प्रदेश नेतृत्व
के आग्रह पर प्रदेश में अपने बूते चुनाव लड़ने का फैसला किया। प्रदेश नेतृत्व राज्य
में अकेले चुनाव लड़ कर बहुत अच्छा प्रदर्शन करने को लेकर आश्वस्त था। बहरहाल
परिणाम अच्छे नहीं रहे। अब राहुल गांधी ने पार्टी महासचिवों को आदेश दिया है कि
अगले दो महीने में वे अपने-अपने राज्यों का दौरा करें और वहां की समस्याओं को
पहचानें। बताया जा रहा है कि महासचिवों की रिपोर्टों को एआईसीसी की बैठक में रखा
जाएगा और आगे की रणनीति की तय की जाएगी। ऐसा कहा जा रहा है कि राहुल गांधी ने यह
भी कहा है कि अब पार्टी की हार की जिम्मेदारी तय की जाएगी और महासचिव सबसे पहले
उत्तरदायी होंगे।
भीतरी खींचतान
व्यावहारिक रूप से पार्टी संसद में केवल संख्या
में ही कमजोर नहीं है। उसके पास अच्छे वक्ताओं का भी अभाव है। दूर से किसी को भी
दिखाई पड़ रहा है कि राहुल गांधी खुद आगे नहीं आते। जनता परिवार से कांग्रेस की एकजुटता
बन भी जाए तब भी मुलायम सिंह, सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और एचडी देवेगौड़ा हैं। एक
रिपोर्ट के अनुसार कांग्रेस के अंदर खींचतान भी है। कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य
सिंधिया को मुख्य सचेतक बनाया है। दक्षिण के सांसद उनसे सहयोग नहीं करते। कैप्टेन
अमरिंदर सिंह उपनेता हैं, पर वे अकसर सदन में होते नहीं होते, बल्कि उनके कारण
पंजाब की स्थानीय राजनीति में विस्फोटक हालात पैदा होने वाले हैं। राहुल गांधी खुद
सदन में कम आते हैं। छत्तीसगढ़ में अजित जोगी नाराज हैं। उत्तर प्रदेश, पश्चिम
बंगाल और तमिलनाडु बर्तन खटकने की आवाजें सुनाई पड़ रही हैं।
इस हफ्ते टीएनएस इंडिया का एक सर्वे सामने आया
है, जिसके अनुसार पार्टी रिकवरी से काफी दूर खड़ी है। हालांकि यह सर्वे दिल्ली
विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र है, पर इसमें में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली यह
कि राहुल गांधी का नेतृत्व प्रेरणादायक नहीं है और निचले स्तर पर पार्टी का
पारंपरिक सामाजिक आधार खिसक रहा है। दूसरी और नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल
अपनी छवि का इस्तेमाल कर वोटरों के बीच समर्थन बढ़ाने में सफल रहे हैं। ज्यादातर कांग्रेसियों का मानना है राहुल के
प्रचार से पार्टी के हौसले बढ़ाने में मदद नहीं मिलेगी। विडंबना यह है कि कांग्रेस
अपने पुनरुद्धार की बात सोचने के बजाय मोदी की लोकप्रियता में आती कमी पर ज्यादा
जोर दे रही है।
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