पाकिस्तान सरकार ने सन 2008 में आतंकियों को फाँसी दने पर रोक लगा दी थी। पेशावर के हत्याकांड के बाद सरकार ने उस रोक को हटाने का फैसला किया है। यह एक महत्वपूर्ण कदम है। इसमें दो राय नहीं कि आत्मघाती हमले करने वाले लोग एक खास किस्म की मनोदशा में आते हैं। उनका ब्रेनवॉश होता है। उन्हें जुनूनी विचारधारा से लैस किया जाता है। फाँसी की सजा उन्हें कितना रोक पाएगी? अलबत्ता इस फैसले से सरकारी मंशा का पता लगता है। पेशावर हमले के बाद आज सुबह के भारतीय अखबारों में हाफिज सईद का बयान छपा है। उसने कहा है कि पेशावर हमला भारत की साजिश है। उसका यह बयान पाकिस्तानी चैनलों पर प्रसारित किया गया। देश के किसी नेता ने उसके बयान पर आपत्ति व्यक्त नहीं की है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भविष्य में पाकिस्तान की आतंकवाद से लड़ाई किस किस्म की होगी।
पेशावर में स्कूली बच्चों
की हत्या के बाद सवाल पैदा होता है कि क्या पाकिस्तान अब आतंकवादियों के खिलाफ कमर
कस कर उतरेगा? वहाँ की जनता कट्टरपंथियों को खारिज कर देगी? क्या
उन्हें 26/11 के मुम्बई हमले और इस हत्याकांड में समानता
नज़र आएगी? तमाम भावुक संदेशों और आँसू भरी कहानियों के बाद
भी लगता नहीं कि इस समस्या का समाधान होने वाला है। तहरीके तालिबान के खिलाफ सेना
अभियान चलाएगी। उसमें भी लोग मरेंगे, पर यह अभियान आतंकवाद के खिलाफ नहीं होगा। उन
लोगों के खिलाफ होगा जिन्हें व्यवस्था ने हथियारबंद किया, ट्रेनिंग दी और खूंरेज़ी
के लिए उकसाया। इस घटना के बाद पाकिस्तानी अख़बार ‘डॉन’
ने अपने सम्पादकीय में लिखा है, ‘ऐसी घटनाओं
के बाद लड़ने की इच्छा तो पैदा होगी, पर वह रणनीति सामने नहीं आएगी जो हमें चाहिए।
‘फाटा’ (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल
एरिया) में फौजी कार्रवाई और शहरों में आतंक-विरोधी ऑपरेशन तब तक मामूली
फायर-फाइटिंग से ज्यादा साबित नहीं होंगे, जब तक उग्रवादियों की वैचारिक बुनियाद
और उनकी सामाजिक पकड़ पर हमला न किया जाए।’
इस हत्याकांड के बाद पाकिस्तान
के राजनेताओं की प्रतिक्रियाएं रोचक हैं। अवामी नेशनल पार्टी के रहनुमा ग़ुलाम
अहमद बिलौर ने कहा, ये ना यहूदियों और ना ही हिंदुओं ने, बल्कि हमारे मुसलमान
अफ़राद ने किया। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सीनेटर फ़रहत उल्ला बाबर ने बीबीसी उर्दू
से कहा, इस बात का हमें बरमला एतराफ़ करना पड़ेगा कि पाकिस्तान का सब से बड़ा दुश्मन
सरहद के उस पार नहीं, सरहद के अंदर है। आप ही के मज़हब की पैरवी करता है, आप ही के ख़ुदा और रसूल का नाम लेता है, आप ही तरह है, हम सब की तरह है और वो हमारे अंदर है। शिद्दतपसंदों का नज़रिया और बयानिया बदकिस्मती
से रियासत की सतह पर सही तरीक़े से चैलेंज नहीं हुआ। शिद्दतपसंदों ने पाकिस्तानी
सियासत में दाख़िल होने के रास्ते बना लिए हैं।
पाकिस्तानी राज-व्यवस्था
इस मामले में डबल गेम खेलती रही है। यह डबल गेम 9/11 के बाद से शुरू
हुआ, जब परवेज मुशर्रफ ने अमेरिकी नाराज़गी से बचने के लिए पाकिस्तान को औपचारिक
रूप से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में शामिल कर लिया। जनरल ज़िया-उल-हक इस भस्मासुर
के लिए सैद्धांतिक ज़मीन तैयार कर गए थे। देश के पश्चिमी सीमा प्रांत की स्वात
घाटी सरकार के नियंत्रण के बाहर है, पर सरकारी संरक्षण प्राप्त जेहादी राजधानी
लाहौर के पास मुरीद्के में है। लश्करे तैयबा का मुख्यालय। सन 1990 में जब लश्कर का
जन्म हो रहा था नवाज़ शरीफ प्रधानमंत्री बन गए थे। और उन्होंने लश्कर को हर तरह की
मदद दी। वे खुद उसके मुख्यालय में गए। देश वहाबी विचारधारा का केंद्र बन गया है। किसी
की ताकत उन्हें रोक पाने की नहीं है। सन 2007 में लाल मस्जिद पर कार्रवाई का
ख़ामियाज़ा परवेज़ मुशर्रफ को आज तक भुगतना पड़ रहा है। उन्हें ही नहीं उस से
जुड़े मसलों के कारण सन 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी
को पद से हटने को मजबूर कर दिया।
पाकिस्तानी व्यवस्था के
अंतर्विरोधों की झलक प्रधानमंत्री के सलाहकार सरताज अजीज के बयान में मिलती है जो
उन्होंने पिछले महीने बीबीसी उर्दू को दिया था। उन्होंने कहा कि हम उन
शिद्दतपसंदों को क्यों निशाना बनाएं जो पाकिस्तान की सलामती के लिए ख़तरा नहीं हैं? जो अमेरिका के दुश्मन हैं वो ख़्वामख़्वाह हमारे
दुश्मन कैसे हो गए? उन्होंने हक्कानी नेटवर्क
के बारे में कहा कि जब अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया तो उन तमाम लोगों को,
जिन्हें हमने मुसल्लह (सशस्त्र) किया था और तर्बीयत दी थी, उन्हें हमारी तरफ़ धकेल दिया गया। इनमें से कुछ हमारे
लिए ख़तरा हैं और कुछ नहीं हैं। तो हम सब को क्यों दुश्मन बनाएं?
वे अमेरिका की हित-रक्षा
से घबराते हैं, भारत की तो बात ही दूसरी है। मई 2011 में हमारे देश में कोई नहीं
मानता था कि बिन लादेन के बाद अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद खत्म हो जाएगा। अल-कायदा का
जो भी हो, लश्करे तैयबा, जैशे मोहम्मद, तहरीके तालिबान और
हक्कानी नेटवर्क जैसे थे वैसे ही रहेंगे। दाऊद इब्राहीम, हाफिज़ सईद और
मौलाना मसूद अज़हर को हम उस तरह पकड़कर नहीं ला पाएंगे जैसे बिन लादेन को
अमेरिकी फौजी मारकर वापस आ गए। लादेन का सुराग देने वाले डॉक्टर को पाकिस्तानी
न्याय-व्यवस्था ने सज़ा दी। लादेन की मौत के बाद लाहौर में हुई नमाज़ का नेतृत्व हाफिज़
सईद ने किया था। मुम्बई पर हमले के सिलसिले में उनके संगठन का हाथ होने के साफ
सबूतों के बावजूद पाकिस्तानी अदालतों ने उनपर कोई कार्रवाई नहीं होने दी। अमेरिका
ने हाफिज़ सईद पर एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा है, पर सरकार ने उसे पकड़ने की कभी कोई कोशिश नहीं की। वहाँ
की न्यायपालिका भी उनके साथ है।
अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की
दो तिहाई मशीनरी पाकिस्तान में है। पाकिस्तानी सरकार अमेरिका के साथ बेहतर रिश्ते
बनाकर रखना चाहती है क्योंकि उसे देश चलाने के लिए पैसा अमेरिका से मिलता है। पर कट्टरपंथी समूहों के साथ वह बिगाड़ नहीं कर सकती। दिफा-ए-पाकिस्तान
काउंसिल नाम से 14 कट्टरपंथी संगठनों का समूह अमेरिकी झंडे जलाकर अपने इरादे
ज़ाहिर कर चुका है। सीरिया से लेकर इराक तक हर जगह पाकिस्तानी लड़ाके शामिल हैं। लंदन
से इंडोनेशिया तक की कार्रवाइयों के सूत्रधार वहीं विराजते हैं।
पाकिस्तान का आतंकी
नेटवर्क कई टुकड़ों में बँटा है। अमेरिकी विश्लेषक एशले जे टैलिस ने इन्हें पाँच
वर्गों में बाँटा है। 1.साम्प्रदायिक: सुन्नी संगठन सिपह-ए-सहाबा,
लश्कर-ए-झंगवी और शिया तहरीक-ए-ज़फरिया। 2.भारत-विरोधी:
कश्मीर को आधार बनाकर सक्रिय गिरोह जिन्हें पाकिस्तानी सेना की खुफिया शाखा आईएसआई
का समर्थन प्राप्त है। इनमें लश्करे तैयबा, जैशे मोहम्मद, हरकत-उल-मुज़ाहिदीन और
हिज्ब-उल-मुज़ाहिदीन प्रमुख हैं। 3. अफगान तालिबान: मूल
तालिबान जिसका नेता मुल्ला मोहम्मद उमर है। माना जाता है कि इसका मुख्यालय क्वेटा
में है और इसकी ताकत कंधार के इलाके में है। 4.अल कायदा और उसके सहयोगी: ओसामा बिन लादेन का मूल संगठन जिसका नेता आयमान अल जवाहिरी है। 5.पाकिस्तानी
तालिबान: फाटा में सक्रिय गिरोहों का समूह, जिसका मुखिया
मुल्ला फज़लुल्ला है, जिसे मुल्ला रेडियो के नाम से भी जाना जाता है। इन समूहों के
अलावा हाल में इस्लामी स्टेट ने, जिसे उसके अरबी नाम ‘दैश’ से जाना है, पाकिस्तान में भरती शुरू कर दी हैं। (इसके अलावा पाकिस्तान का हक्कानी नेटवर्क है, जो मुल्ला उमर के साथ है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा के दोनों ओर के कबायली इलाकों को हक्कानी नेटवर्क का गढ़ माना जाता है। उत्तरी वजीरिस्तान कभी इसका मुख्य केंद्र हुआ करता था लेकिन अमेरिका और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के लगातार हो रहे ड्रोन हमलों के कारण इस आतंकवादी संगठन ने अन्य कबायली इलाकों को अपना पनाहगाह बना लिया है। इस संगठन का जनक मौलवी जलालुद्दीन हक्कानी है और उसी के नाम पर संगठन का नाम हक्कानी नेटवर्क रखा गया है। उसका बेटा सिराजुद्जदीन हक्कानी उसका मुख्य सहायक है। जलालुद्दीन हक्कानी कबायली जनजाति 'जदरान' से आता है। सोवियत रूस द्वारा अफगानिस्तान पर कब्जा जमाने के दौर में हक्कानी जिहाद से जुड़ा और 90 के दशक में वह अलकायदा के बेहद करीब आ गया। 1990 में मुल्ला उमर के नेतृत्व वाला तालिबान जब उभरा तो हक्कानी ने पहले तो उससे दूरी बनाई लेकिन बाद में उसने उसका दामन थाम लिया। वर्ष 2001 में अमेरिकी हमले के बाद जब मुल्ला उमर की सरकार का पतन हो गया तब हक्कानी फिर से उत्तरी वजीरिस्तान पहुंचा और उसने फिर से अपने लोगों को साथ जोड़ा और नाटो के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। अमेरिका ने सितम्बर 2012 में इस संगठन को आतंकवादी घोषित किया था और संयुक्त राष्ट्र ने भी इस पर पाबंदी लगा रखी है।)
एक छोटा सा मध्यवर्ग पाकिस्तान
को आधुनिकता के रास्ते पर ले जाना चाहता है। हमने टीवी से जो प्रतिक्रियाएं सुनीं
वे उसी छोटे से तबके की थीं। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत की मुख्य धारा का तो हमें कुछ
पता ही नहीं। हाल में मलाला युसुफज़ई के नोबेल पुरस्कार जीतने की खबर पर जीतने की
ख़बर पर मुख्यधारा के अखबारों में तारीफ के साथ विरोध के स्वर भी मुखर हुए थे। सोशल
मीडिया पर अपमानजनक और व्यंग्यात्मक लहजे वाली टिप्पणियां भी देखने को मिली थीं।'पाकिस्तान ऑब्ज़र्वर' अख़बार के संपादक तारिक़ खटाक़ ने इस फ़ैसले की
आलोचना करते हुए बीबीसी कहा,
"यह
एक राजनीतिक फ़ैसला है और एक साजिश है।" पश्चिमी लोकतंत्र पाकिस्तान के
मिज़ाज से कितना मेल खाता है, इसकी परीक्षा भविष्य करेगा। उम्मीद करनी चाहिए कि
पाकिस्तान इस सदमे से सीख लेगा। बच्चों की मौत बेहद दुखदायी है, पर पाकिस्तानी ने
जो बोया है उसे काटना भी पड़ेगा।
निर्दोष बच्चों को मारकर, कोई अपनेआप को बहुदुर कैसे साबित कर सकता है? क्या पता इन आतंकवादियों की आत्मा कब जागेगी? बढ़िया आलेख.
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