प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने साक्षी महाराज के बयान पर एतराज जताया है। साथ ही अपने सहयोगियों
को सलाह दी है कि ऐसा बयान नहीं दें जिससे विवाद पैदा हो और विपक्ष को बैठे-बिठाए
बड़ा मुद्दा मिल जाए। संसद का शीतकालीन सत्र माफीनामों का इतिहास बना रहा है।
पिछले दसेक दिन में कम से कम दो बार प्रधानमंत्री ने संयम बरतने की अपील की है। इस
दौरान तीन सांसद माफी मांग चुके हैं। नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताने वाले साक्षी
महाराज के दो बार खेद जताने के बाद ही शुक्रवार को संसद सामान्य हो पाई। इससे पहले
केंद्रीय राज्य मंत्री निरंजन ज्योति और तृणमूल कांग्रेस के कल्याण बनर्जी को भी
माफी मांगनी पड़ी थी।
मोदी को
कट्टरपंथी माना जाता है, पर चुनाव अभियान में उन्होंने मंदिर की बात कभी नहीं की
और न कोई हिन्दू-मुसलिम विवाद उठाया। लोकसभा चुनाव के आखिरी दौर में कुछ मसले उठे,
पर उन्होंने उन्हें तूल नहीं दिया। अप्रैल में गिरिराज सिंह और विहिप के नेता
प्रवीण तोगड़िया के बयान को लेकर पैदा हुए विवाद के बीच मोदी ने कहा कि मैं इस तरह
के ग़ैर ज़िम्मेदार बयानों से सहमत नहीं हूँ। उन्होंने ट्वीट किया, इस तरह के
संकीर्ण बयान देकर ख़ुद को भाजपा का शुभचिंतक साबित करने वाले लोग वास्तव में
अभियान को विकास और अच्छे प्रशासन के मुद्दे से भटकाना चाहते हैं। मई में उन्होंने
एक चैनल से कहा, ‘ मैं देश में
हिंदू-मुसलमान नहीं होने दूंगा, चाहे चुनाव हार जाएं।’
केंद्र में नई सरकार
आने के बाद कुछ महीनों तक हिन्दुत्व को लेकर शांति रही। इधर कुछ समय से ऐसी घटनाएं
हो रहीं हैं, जिनसे माहौल बिगड़ने का डर है। संघ के अनुषंगी संगठनों से जुड़े कुछ
नेता विवादित मुद्दों को हवा दे रहे हैं. मसलन भाजपा की जीत से अभिभूत विहिप नेता
अशोक सिंघल ने दावा किया कि दिल्ली में 800 साल बाद 'गौरवशाली हिंदू' शासन करने आए
हैं। साध्वी निरंजन ज्योति और योगी आदित्यनाथ के तीखे तेवरों के बीच साक्षी महाराज
का नाथूराम गोडसे के महिमा-मंडन बयान आया। बयान बाद में वापस ले लिया गया, पर तीर
तो चल चुका था। इधर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक ने कहा कि अयोध्या में राम
मंदिर जल्द से जल्द बनना चाहिए। ‘धर्म जागरण’ और ‘घर वापसी’ जैसी बातें पार्टी की नई राजनीति से मेल नहीं खातीं। सवाल
यह है कि ये वक्तव्य कौन देता है और क्यों देता है?
‘हार्डकोर हिन्दुत्व’ पर रोक नहीं लगी
तो वह मोदी सरकार के लिए मुसीबतें खड़ी कर देगा। खबर है कि केवल मोदी ही नहीं
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत चाहते हैं कि सरकार के सकारात्मक
कामों की और जनता का ध्यान खींचा जाए, न कि नकारात्मक बातों की और। जानकारी यह भी
मिली है कि संघ अपने कार्यकर्ताओं के लिए इस आशय का शिविर लगाने की योजना भी बना
रहा है। देश की धार्मिक और जातीय विविधता को देखते हुए उनकी सरकार के सामने यह
सबसे बड़ी चुनौती साबित होगी।
कोई वजह थी कि राष्ट्रीय
स्तर पर पार्टी ने मंदिर से किनारा किया। सन 1989 से 2009 तक बीस साल तक पार्टी
अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का वादा करती रही। पर मोदी के नेतृत्व में उतरी भाजपा
ने इस वादे को नरम करके पेश किया। चुनाव घोषणापत्र के बयालीस में से इकतालीसवें
पेज पर दो लाइनों में इसे निपटा दिया गया। मंदिर निर्माण की संभावनाएं तलाशने का
वादा. यह भी कि यह तलाश सांविधानिक दायरे में होगी। सही या गलत सामान्य वोटर तक
इसका अच्छा संदेश गया। पिछले कुछ महीने की घटनाओं के कारण सामान्य मुसलमान के मन
में भी मोदी सरकार को लेकर संदेह कम हुए हैं।
ऐसी परिस्थितियों
में ऐसे विवादास्पद बयान बखेड़ा पैदा कर रहे हैं। सवाल है कि क्या यह जानबूझकर है या
अनायास?
पार्टी अपने
अंतर्विरोधों से जूझ रही है। अटल बिहारी वाजपेयी की सफलता के बाद पार्टी को यह भी
समझ में आया कि उसे अपनी जनाधार बढ़ाना होगा। उसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की
छाया से भी अलग करना होगा। क्या यह कभी सम्भव है? जब 26 मई को
नरेंद्र मोदी की सरकार बनी थी तब उसे लेकर खड़े हुए तमाम संदेहों में एक यह भी था
कि क्या यह सरकार संघ के सीधे हस्तक्षेप से बच पाएगी? यह पार्टी संघ परिवार का हिस्सा है। फिर भी उसके भीतर एक
क्षीण रेखा गैर-संघी है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने हाथ बचाकर काम किया था। सन
1992 में वाजपेयी ने बाबरी विध्वंस पर खेद व्यक्त किया था। भले ही उसे नाटक माना
जाए।
मोदी सरकार ने भी
उसी तर्ज पर अपने जनाधार का विस्तार करने की कोशिश की है। उसने कांग्रेस के तीन
महत्वपूर्ण नेताओं में से दो को अंगीकार किया है। महात्मा गांधी और सरदार पटेल। उन्होंने
जय प्रकाश नारायण को भी पसंदीदा नेताओं में रखा है, जिनके जन्मदिन से अपनी ‘आदर्श ग्राम’ योजना को शुरू
किया है। पर वे नेहरू के प्रति उपेक्षा-भाव व्यक्त करने से नहीं चूकते। पर भाजपा
को हिन्दुत्व से जुड़े अपने अंतर्विरोधों को भी दूर करना होगा। गांधी की तारीफ
करने के बाद गांधी के हत्यारे की तारीफ कैसे की जा सकती है? व्यक्तिगत रूप से भी मोदी पटेल से प्रभावित हैं। सरदार
पटेल कानून के शासन और सभी समुदायों के साथ समान व्यवहार की नीति पर चलते थे।
सरदार पटेल ने
पाकिस्तान न जाकर भारत में ही रहने वाले मुसलमानों की भावनाओं को ठेस न पहुँचाने
की सलाह दी थी। नरेंद्र मोदी ने भी अपनी छवि ऐसी ही बनाने कोशिश की है, पर आए दिन
सामने आ रही भड़काऊ बातों से इस छवि को धक्का लगेगा। नवम्बर 2008 में मोदी की सरकार
ने अदालत के एक आदेश पर गुजरात के 90 से ज्यादा मंदिरों को गिराया तो विश्व हिन्दू
परिषद ने उनके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। मोदी को बाबर और औरंगजेब की उपाधि भी
मिली। अंततः मोदी का वह अभियान बंद हुआ। अब भी लगता है कि ऐसा लगता है कि वे कानून
का पालन करने वाले शासक की छवि बनाना चाहते हैं। इस छवि को उनके ही मित्रों के
कारण धक्का लगे तो इसे ‘नादान की दोस्ती जी का
जंजाल’ ही कहेंगे।
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