बाबाओं और संतों
से जुड़े सवाल एकतरफा नहीं हैं। या तो हम इन्हें सिरे से खारिज करते हैं या गुणगान
की अति करते हैं। यह हमारे अर्ध-आधुनिक समाज की समस्या है, जो केवल बाबाओं-संतों तक
सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में है। एक ओर आस्था और अंधविश्वास हैं और
दूसरी ओर जीवन को अतार्किक मशीनी तरीके से देखने वाली ‘प्रगतिशीलता’ का विद्रूप
है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से यह विसंगति पल्लवित हुई और मीडिया ने इसे पुष्पित
होने का मौका दिया। दोनों मनुष्य के विकास की देन हैं।
अध्यात्म, सत्संग, प्रवचन और अंधविश्वास के
सालाना कारोबार का हिसाब लगाएं तो हमारे देश से गरीबी कई बार खत्म की जा सकती है।
यह कारोबार कई लाख करोड़ का है। भारत सरकार के बजट से भी ज्यादा। यह इतनी गहराई तक
जीवन में मौजूद है कि इसकी केवल भर्त्सना करने से काम नहीं होगा। इसे समझने की
कोशिश होनी चाहिए और इसकी सकारात्मक भूमिका की पहचान भी करनी होगी। परम्परागत
धर्मानुरागी समाज केवल भारत में ही निवास नहीं करता। यूरोपीय और अमेरिकी समाज का
बड़ा तबका आज भी परम्परा-प्रिय है। फिर भी उस समाज ने तमाम आधुनिक विचारों को
पनपने का अवसर दिया और पाखंडों से खुद को मुक्त किया।
अनुपस्थित आधुनिक
राज-समाज
संत रामपाल या
दूसरे संतों के भक्त कौन हैं और वे उनके पास क्यों जाते हैं? ऐसे तमाम संतों और बाबाओं
के आश्रम, डेरे, मठ वगैरह चलते हैं। इनके
समांतर खाप, पंचायतें और जन जातीय समूह हैं। ग्रामीण समाज में तमाम काम सामुदायिक
स्वीकृतियों, सहमतियों और
सहायता से होते हैं। लोग अपनी समस्याओं के समाधान के लिए पंचायतों और सामुदायिक समूहों
में आते हैं या फिर इन आश्रमों की शरण लेते हैं। यहाँ उनके व्यक्तिगत विवाद निपटाए
जाते हैं, समझौते होते हैं।
यह काम आधुनिक राज और न्याय-व्यवस्था का था। पर इस परम्परागत काम के विपरीत इन
मठों में सोशल नेटवर्किंग विकसित होने लगी। हथियारों के अंतरराष्ट्रीय सौदे पटाए
जाने लगे। संत-महंतों की दैवीय शक्तियों का दानवी इस्तेमाल होने लगा। सत्ता के
गलियारों में संत-समागम होने लगे।
सपनों की इस
तिजारत का यह लोकतांत्रिक रूप है। उसके साथ उद्योग-व्यापार, नौकरशाही, अपराध और राजनीति की
डोरें जुड़ीं। दूसरी और रामराज्य परिषद से लेकर ‘जयगुरुदेव, सतयुग आएगा’ तक इस बाबा
संस्कृति ने राजनीति में सीधे प्रवेश भी किया था। अंततः यह पहल मुख्यधारा की
राजनीति में विलीन हो गई। इसी तरह धीरेन्द्र ब्रह्मचारी और चन्द्रास्वामी के नाम
हमें भूलने नहीं चाहिए। संतों को सत्ता की स्टेपनी बनने में मज़ा आने लगा। और अब
मुख्यधारा की राजनीति इन मठों, आश्रमों और डेरों के साथ मेलजोल रखती है।
मूढ़ मध्य-वर्ग
दूसरी ओर
टेलीविजन पर प्रकट होने वाले अनेक बाबा हैं जो ‘किरपा’ की खेती करते हैं। किरपा
चाहने वाले लोग गरीब-अनपढ़ नहीं, मध्यवर्गीय अंधविश्वासी हैं। दो दशक पहले रूसी
टीवी पर किसी गॉडमैन का टीवी शो लोकप्रिय हुआ था। वह हाथ फेरकर लोगों की समस्याओं
के समाधान करता था। दुनिया भर में फेथ हीलर्स लोकप्रिय हैं जो बीमारियों का इलाज
करते हैं। हर धर्म के फेथ हीलर्स लोकप्रिय हैं। रूहानी ताकत पर भरोसा सिर्फ हमारे
यहाँ नहीं है, पर जिस कदर हमारे
यहाँ है वह अटपटा है।
आधुनिकता केवल
पतलून पहनने, अंग्रेजी बोलने
या दंत मंजन की जगह टूथपेस्ट इस्तेमाल करने से नहीं आती। वह शिक्षा, वैज्ञानिकता और व्यापक
सामाजिक समझ से जुड़ी है। बाहरी संरचना में हम तेजी से बदले हैं, पर भीतरी बनावट इससे मेल
नहीं खाती। नई पीढ़ी और खासतौर से लड़कियों के पहनावे, मोबाइल फोन के इस्तेमाल
और शादी-विवाह को लेकर खाप और पंचायतों जैसी परम्परागत संस्थाएं टकराव की मुद्रा
में हैं। वे अपनी पहचान को खतरे में पड़ता देख रही हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि
हम जिस आधुनिकता के पीछे भाग रहे हैं वह वास्तविक नहीं, उसका विद्रूप है। हमारा
परम्परागत समाज असमंजस के चौराहे पर है। उसे सामाजिक बदलाव की संतुलित राह चाहिए। यह
बदलाव भीतर से ही आएगा। दूसरी ओर मीडिया इस संकट को समझाने के बजाय भटकाव और टकराव
पर चटखारे ले रहा है।
सार्थक
संत-परम्परा भी है
बाजार दो तरीके
से काम करता है। एक सप्लाई साइड से और दूसरा डिमांड साइड से। डिमांड का बाजार असली
है। यानी जरूरत तैयार
होना। संत हजारों साल से हमारे बीच हैं बगैर मार्केटिंग के। सम्मानित संत वही थे, जो जनता के करीब थे।
उत्तर से लेकर दक्षिण तक जबर्दस्त संत परम्परा रही है। कबीर, रैदास, दादू दयाल, मलूकदास, गुरुनानक, अमीर खुसरो, संत पलटू, बुल्लेशाह, संत तिरुवल्लुवर, संत औवैयार, नामदेव, ज्ञानेश्वर, ज्योतिबा फुले, गुरु गोरखनाथ, और सिख पंथ के सभी गुरुओं
की समाज के साथ गहरा जुड़ाव था। राज-व्यवस्था को लोग नहीं जानते थे। अपने नेताओं
को जानते थे। यह परम्परा आधुनिक बदलाव के साथ अपना स्वरूप बदलती गई।
सन 1857 से लेकर 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन के
साथ तमाम सामाजिक आंदोलन इन परम्परागत संस्थाओं-संगठनों की मदद से ही चले। अलीगढ़
मुस्लिम विवि, काशी हिन्दू विवि, डीएवी कॉलेज, आर्य कन्या पाठशालाएं और
खालसा कॉलेज धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलनों की देन हैं। महात्मा गांधी की अपील
धार्मिक और सांस्कृतिक रंग से रंगी थी। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा
का इस्तेमाल राष्ट्रीय आंदोलन में हुआ। भारत में ही नहीं वियतनाम में हो ची मिन्ह
जैसे कम्युनिस्ट नेता ने अपने आंदोलन में धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का सहारा
लिया। प्रश्न बदलाव के आधुनिक मुहावरों का है। ये मुहावरे अपनी लोक-परम्पराओं में से
खोजे जाएंगे तो आसानी होगी। पर इसके लिए विचार-मंथन की जरूरत है।
गांधी की धार्मिक
शब्दावली
महात्मा गांधी की
शब्दावली धार्मिक थी। उन्होंने चरखा कातने को यज्ञ की संज्ञा दी थी। वस्तुतः यह एक
प्रकार की सामूहिक पहल थी। जब करोड़ों लोग एकसाथ चरखा चलाएंगे तो उससे उत्पन्न
सामाजिक ऊर्जा हमें आगे ले जाएगी। आजादी के बाद हमारे परम्परागत समाज की दरारें भी
खुलीं। सन 1973 में आनंदपुर
साहब प्रस्ताव की परिणति एक राजनीतिक आंदोलन में हुई। अयोध्या में राम मंदिर का
आंदोलन खड़ा हुआ। उधर मंडल आंदोलन ने जातीय व्यवस्था की बुनियाद पर चोट की। गाँवों
का स्वरूप भी बदला, स्त्री शिक्षा और
रोजगार में लड़कियों की भूमिका बढ़ी। पर देश को सकारात्मक रास्ते पर ले जाने में
समर्थ सामाजिक आंदोलन खड़े नहीं हो पाए।
हाल में नरेंद्र
मोदी ने ‘स्वच्छ भारत’ का नारा दिया।
इसे पूरा करने के लिए भी गांधी-परम्परा के सामाजिक यज्ञ की जरूरत है। हाल में
दिल्ली में दिल्ली एक अभिनव प्रयोग हुआ। युनिसेफ की पहल पर नौ प्रमुख धर्मगुरुओं
ने एक मंच पर आकर भारत के लाखों बच्चों को बचाने के लिए वैश्विक पहल- जीवा-भारत, ग्लोबल इंटरफेथ वॉश
एलायंस (वॉश यानी पानी, सफाई व्यवस्था
तथा स्वच्छता के लिए वैश्विक अंतरधर्म संधि) की घोषणा की। इसी हफ्ते 29-30 नवंबर को ऋषिकेश में
‘वर्शिप टू वॉश समिट’ और ‘विमेन फॉर वॉश’ (वॉश के लिए महिलाएं) होने वाला है। यह
शिखर सम्मेलन पहली बार महिला धर्मगुरुओं को भी एक मंच पर लाएगा।
पोलियो निवारण में
भूमिका
हाल के वर्षों
में भारत की उपलब्धि पोलियो निवारण के रूप में रही है। देश के मीडिया और सामाजिक-धार्मिक
संस्थाओं को इसकी सफलता का श्रेय दिया जा सकता है। हाल में युनिसेफ ने नियमित टीकाकरण के काम में तेजी
लाने के उद्देश्य से क्षेत्रीय मीडिया के साथ कुछ वर्कशॉप किए। इनमें एक बात यह भी
निकल कर आई कि धार्मिक-सामाजिक नेताओं तथा खापों और पंचायतों की मदद लेनी चाहिए।
इससे खापों को अपनी बदली हुई सामाजिक भूमिका का अहसास भी होगा। यही काम शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और
पर्यावरण रक्षा के क्षेत्र में भी किया जा सकता है।
हमारा समाज राज्याश्रयी
संतों को पसंद नहीं करता। वे सामाजिक बदलाव में शामिल होते हैं तभी अच्छा लगता है।
इनकी उपयोगिता न होती तो ये काफी पहले अप्रासंगिक हो चुके होते। इन्हें सकारात्मक
कार्यों के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। कस्बों में महानगरीय संस्कृति का प्रभाव
बढ़ने के कारण विसंगतियाँ पैदा हुईं हैं जिन्हें दूर होने में कम से कम एक पीढ़ी
तो लगेगी। ढोगियों-पाखंडियों का पर्दाफाश होगा तो उनका असर भी कम होगा। पर यह
पाखंड केवल धर्म और अध्यात्म तक सीमित नहीं है। उसका दायरा बहुत बड़ा है।
गंभीर चिंतन .. ..आम लोग ही इस सबके लिए ज्यादा जिम्मेदार होते हैं ...और भुगतते भी वही है ....बाकी के लिए यह सब खेल है .....आड़ है पैसा कमाने का ..
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