Friday, July 15, 2011

न्यूयॉर्क, लंदन और मैड्रिड सुरक्षित हैं तो मुम्बई क्यों नहीं


मुम्बई में एक बार फिर से हुए धमाकों से घबराने या परेशान होकर बिफरने की ज़रूरत नहीं है। यह स्पष्ट भले न हो कि इसके पीछे किसका हाथ है, पर यह स्पष्ट है कि वह हाथ किधर से आता है। पहला शक इंडियन मुजाहिदीन पर है। सन 2007 में लखनऊ और वाराणसी में हुए धमाकों और 2008 में जयपुर और अहमदाबाद के धमाकों की शैली से ये धमाके मिलते-जुलते हैं। पर इन मुजाहिदीन की मुम्बई के निर्दोष लोगों से क्या दुश्मनी? दहशत के जिन थोक-व्यापारियों की यह शाखा है, उन तक हम नहीं पहुँच पाते हैं।

घूम-फिरकर संदेह का घेरा लश्करे तैयबा और तहरीके तालिबान पाकिस्तान वगैरह पर जाता है। अब यह जानना बहुत महत्वपूर्ण नहीं कि उनके पीछे कौन है। वे जो भी हैं पहचाने हुए हैं। और उनके इरादे साफ हैं। महत्वपूर्ण है उनका धमाके कराने में कामयाब होना। और धमाके रोक पाने में हमारी सुरक्षा व्यवस्था का विफल होना। यह भी सच है कि सुरक्षा एजेंसियाँ अक्सर धमाकों की योजना बनाने वालों की पकड़-धकड़ करती रहतीं है। ऐसा न होता तो न जाने कितने धमाके हो रहे होते। देखना यह भी चाहिए कि मुम्बई में ऐसा क्या खास है कि वह हर दूसरे तीसरे बरस ऐसी खूंरेजी का शिकार होता रहता है। क्या वजह है कि वहाँ का अपराध माफिया इतना पावरफुल है?

दक्षिण एशिया के इस दहशती कारोबार के दो या तीन अहम पहलू हैं। एक है भारत-पाकिस्तान रिश्ते, दूसरे हमारी सुरक्षा व्यवस्था और तीसरे जनता का मनोबल। जनता के मनोबल में कभी कमी नहीं रही है, पर ऐसे मौकों का उन्माद फैलाने के लिए इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। ऐसा गलत सूचनाओं से होता है। अजमल कसाब का जन्मदिन 13 जुलाई है या 13 सितम्बर अभी यह स्पष्ट नहीं है। पर भावनात्मक रूप से इन धमाकों से कसाब के जन्मदिन को जोड़ने का अर्थ अलग होता है। बहरहाल इन धमाकों का उसके जन्मदिन से रिश्ता है भी तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं। हमें देखना यह है कि मुम्बई की भीड़-भाड़ के बीच बमबारी का इतना खुला खतरा मौजूद क्यों है और इसका इलाज क्या है।   

राजनयिक दृष्टि से भारत और पाकिस्तान के बीच जो संवाद बढ़ा है उसका इस्तेमाल हालात को नियंत्रण में करने के लिए होना चाहिए। धमाका-पार्टी भारत से ज्यादा पाकिस्तान में सक्रिय है। हाल में दोनों देशों के विदेश सचिवों की बातचीत अपेक्षाकृत रचनात्मक रही। दुर्भाग्य है कि अभी तक दोनों देश खुफिया मामलों में उतना सहयोग नहीं कर रहे हैं, जितना होना चाहिए और जो सम्भव है। इसकी वजह बुनियादी राजनीति है। पाकिस्तान सरकार के ऊपर कई तरह के अंदरूनी दबाव हैं। कश्मीर के मामले में भारत सरकार की हाल की कोशिशों के परिणाम अच्छे मिले हैं। पिछले साल इन दिनों पूरा कश्मीर पत्थरबाज़ी से परेशान था। इस साल हालात बेहतर हैं।

अगले हफ्ते अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आ रहीं हैं। 19 जुलाई को इंडो-यूएस स्ट्रेटेटिक डायलॉग है। इसमें दोनों देश सुरक्षा-सम्बद्ध बातें करते हैं। इसका पहला सत्र आंतरिक सुरक्षा और खुफिया सूचनाओं के इर्द-गिर्द ही रहेगा। इसमें भारतीय खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों से अमेरिकी खुफिया अधिकारियों से भेट होगी। इस बैठक में मुम्बई के ताज़ा घटनाक्रम पर भी बात हो सकती है। दक्षिण एशिया की खूनी संस्कृति पर विराम लगाने के काम में अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसी महीने मुम्बई में भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत का अगला दौर होगा। ऐसे संवाद को रोकने की कामना के साथ भी बम धमाके किए जाते हैं। इसलिए इस प्रक्रिया को रोकने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि पाकिस्तान के उन तत्वों को इंगेज करने की ज़रूरत है जो तालिबान-विरोधी हैं।

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि नवम्बर 2008 में मुम्बई  पर हमले के बाद रुकी बातचीत को आगे बढ़ाने की कोशिशें शुरू होते ही यह हमला हुआ है। फरवरी में थिम्पू के सार्क सम्मेलन के बाद यह बातचीत फिर से आगे बढ़ी है। अप्रेल के आखिरी हफ्ते में दोनों देशों के व्यापार सचिवों की बातचीत से उम्मीदें जागी हैं। पाकिस्तान ने अब तक भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा नहीं दिया है। अब संकेत मिला है कि शायद पाकिस्तान यह दर्जा भारत को दे। भारत-पाकिस्तान के बीच वाघा-अटारी सीमा पर करीब डेढ़ सौ करोड़ रुपए की लागत से इंटीग्रेटेड चेकपोस्ट बनाई गई है। व्यापार शुरू हो तो इसका इस्तेमाल भी होगा।

इन संवादों के बावजूद सबसे बड़ी ज़रूरत इस बात की है कि हम चौकस रहें। हमारी सुरक्षा व्यवस्था चौकस रहे। मुम्बई धमाकों को कुछ लोग इंटेलीजेंस फेल्यर बता रहे हैं। यह अनुचित है। हमारी इंटेलीजेंस लगातार इस किस्म के धमाकों की सूचना देती रही है। तमाम मॉड्यूल ध्वस्त किए जाते हैं। इन धमाकों की योजना बनाने वाली मशीनरी का अपना तंत्र है। यों भी दहशत फैलाने के मुकाबले दहशत रोकना काफी मुश्किल काम है। दो-चार लोगों की साजिश से बड़े स्तर पर खून-खराबा हो जाता है। दहशतगर्दों की रणनीति ही यही है। फिर भी अमेरिकी सुरक्षा व्यवस्था को इस बात का श्रेय तो जाता ही है कि उसने 9/11 के बाद दूसरा ऐसा हादसा नहीं होने दिया। हमें भी ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए।

1962 के चीन-युद्ध के बाद देश में पहली बार सुरक्षा की ओर हमने ध्यान देना शुरू किया। सुरक्षा महानिदेशक की अवधारणा बनी। 1965 की लड़ाई के बाद रिसर्च एंड एनालिसिस विंग बना। करगिल युद्ध के बाद के सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में बनी कमेटी की रपट के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद, डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी और नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन बना। कई तरह की अड़चनों के कारण चीफ ऑफ डिफेस स्टाफ की नियुक्ति नहीं हो पा रही है। 26/11 के बाद नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी बनी। इतना होने के बाद भी सुरक्षा के काम में कोऑर्डिनेशन नहीं हो पा रहा है। इसकी झलक पाकिस्तान को सौंपी गई उन व्यक्तियों की सूची में हुई गड़बड़ियों में दिखाई दी, जिनकी हमें तलाश है। पुलिस फोर्स के आधुनिकीकरण के लिए हम नई तकनीक हासिल कर रहे हैं, पर पूरी व्यवस्था को कुशल और आधुनिक बनाने की ज़रूरत है। यह व्यवस्था अच्छी तरह समन्वित भी होनी चाहिए। राज्यों की पुलिस और केन्द्र के बीच ही समन्वय नहीं बन पा रहा है।

हाल में खबर आई कि सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के भविष्य के परिदृश्य को देखते हुए एक राष्ट्रीय कार्य दल बनाया है जिसकी अध्यक्षता पूर्व कैबिनेट सचिव नरेश चन्द्रा करेंगे। इस कार्य दल में देश की सुरक्षा व्यवस्था से जुड़े 14 सदस्य अनुभवी हैं। हमने कम्प्यूटर इमर्जेंसी रिस्पांस टीम बना ली। आने वाले समय में सायबर सुरक्षा और एटमी सुरक्षा के काम और ज्यादा महत्वपूर्ण होने वाले हैं। माओवादी हिंसा और पाकिस्तान केन्द्रित समूहों की हिंसा से निपटने की रणनीति इस वक्त की ज्यादा बड़ी ज़रूरत है। नक्सली हिंसा के राजनैतिक निहितार्थ हैं और उससे सावधानी के साथ निपटें तो वह मुश्किल काम नहीं है। नक्सली समूहों के बीच सीमा पार के दहशतगर्द घुसने की कोशिश करें तो हैरत की बात नहीं।

इसके पहले राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स सुझाव दे चुका है कि हमें अपनी सुरक्षा के काम की हर पाँच साल में समीक्षा करनी चाहिए। शायद इस समीक्षा को और कम अवधि में करने की ज़रूरत है, क्योंकि बदलते वक्त के साथ ज़रूरतें भी बदल रहीं हैं।

दो रोज़ पहले ही अफगानिस्तान में हामिद करज़ाई के भाई की हत्या कर दी गई। उसके कुछ दिन पहले काबुल के एक अंतरराष्ट्रीय होटल के बाहर फिदायी हमला हुआ। अमेरिका को अपनी फौजों की वापसी की फिक्र है। इस चक्कर में पाकिस्तानी सेना उससे और मदद झटक लेना चाहती है। अफगानिस्तान में सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों और रोजगारों की ज़रूरत है, पर इसे मुहैया कराने वाली व्यवस्था ही नहीं बन रही है। सरकार बुरी तरह भ्रष्ट है। अमेरिकी अधिकारी गुपचुप तालिबान के सम्पर्क में भी हैं ताकि कुछ को तोड़ा जा सके। वहाँ सफलता मिल भी जाए, पर पाकिस्तानी तालिबान पर नकेल डालना मुश्किल है। और जब तक वहाँ आग लगी है, चिंगारियाँ हम पर ही गिरेंगी। 

6 comments:

  1. कई महीनों से खुफिया एजेंसियां रामदेव और भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के पीछे लगा दी गई हैं. इससे निपटे तो बाकि काम हो.

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  2. सबसे पहले आपको नमस्कार। सोचा कई बार जिक्र भी बहुत बार हुआ मगर कमैंट पहली बार कर रही हूँ आपको।
    कितने सही तरीके से आपने अपनी बात कही है। हम सब कितने अच्छे तरीके से नई-नई बात खोज कर निकाल लेते हैं कि शायद इसलिये बम फ़ूटा, शायद उसने किया या इसने किया। दोषारोपण की यह आदत आज की नही है सदियों पुरानी हैं। और किसी भी वाक्य को कहानी के रूप में बनाना कोई बड़ी बात नही। बात आती है कैसे आतंक को खत्म किया जाये तो बस यही एक बात ऎसी है जिसपर सभी को मीडिया को आम आदमी को गम्भीरता से विचार करना ही होगा।
    सादर
    http://mereerachana.blogspot.com/

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  3. सवाल जायज हैं लेकिन तर्क से असहमत हूँ, अगर इंटेलिजेंस फेल्योर नही है तो हमले क्यूँ होते हैं? माना कि वह अपना काम कर रही है लेकिन सुरक्षा एजेंसियों मे ताल मेल की कमी क्यूँ होती है? इसी मुंबई हमले मे राज्य की फोरेंसिक टीम अलग जाँच कर रही थी और केन्द्र की अलग ज़ाहिर है दोनों के रिपोर्ट भिन्न होंगे| ऐसा क्यूँ? कभी कभी सरकार को बीच बचाओ के लिए भी आना पड़ता है| दहशत फ़ैलाने के मुकाबले रोकन ज़रूर ही मुश्किल काम है लेकिन हम अपनी असफलताओं को नजरअंदाज क्यों कर रहे हैं? आम आदमी की सुरक्षा ज़रुरी सुनिश्चित होनी चाहिए और इस बात से कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता कि इन मुट्ठीभर दहशतगर्दों से लड़ाई जीती नहीं जा सके| लेकिन क्या हमारे अंदर ये इच्छाशक्ति है? हम क्यूँ आतंक के आकाओं पर पैसा बहा रहे हैं? ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जिससे आतंकी वारदात को अंजाम देने से पहले एक बार सोचें| फिर राजनेताओं की समझ भी जगजाहिर है| आम जनता के खून से आखिर सियासत की रोटी कब तक सोची जायेगी? माफ करेंगे लेकिन जहाँ आलोचना होनी चाहिए वहाँ बचाव नजर आ रहा है|सवाल है क्या सरकार और प्रशासन इन विस्फोटों के लिए जिम्मेदार नही है| राजनीतिक रोटी सेंकने वाले और सरकार की उपलब्धि गिनाने वाले तो दीखते हैं लेकिन हमले मे मारे गए लोगों के प्रति वास्तविक संवेदना किस-किस के दिलों मे हैं| इस देश का एक बच्चा भी ऐसी घटनाओं के बाद के भविष्य को तय कर सकता है| तमाम दावों और किस्सों के बीच इस हकीकत से साक्षात् करने का सहस हम कब जुटाएंगे?

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  4. मेरे लेख का विषय इंटेलिजेंस की मदद करने का नहीं था। बहरहाल जब यह लेख लिखा था, तबसे मेरी राय वही नहीं है। फेल्यर तो कहीं न कहीं है। सुरक्षा व्यवस्था के विफल होने की बात तो मैने शुरू में ही लिखी है।

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  5. आलोचना सरकार और सरकारी तंत्रों की भी होनी चाहिए, इंटेलिजेंस तो सिर्फ एक संस्था है| ये आश्चर्य है कि नेताओं के उल जलूल बयान आते हैं और मीडिया भी बजाये आलोचना के उसे पहली खबर बनाता है ऐसे मे यह और भी ज़रुरी हो जाता है कि सही विश्लेषण किया जाए ताकि लोग समझ सकें|

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  6. हमारे देश के नेताओं की हरकतें भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। हमारे नेतागण अपराधियों की सजा का फैसला अपने वोटबैंक पर पड़ने वाले प्रभावों को देखते हुए करते हैं और यह सबसे कारण है अपराधियों के हौसले को बढ़ाने का। हमारे देश के प्रतिनिधि हर बार आंतकवादी कार्यवाही होने के बाद ऐलान करते हैं कि आगे से पाकिस्तान से तब तक बातचीत नहीं होगी जबतक कि वह इसके लिए जिम्मेदार तत्वों को पकड़ता नहीं और फिर कुछ दिनों के बाद हमारे देश के दोगले प्रतिनिधि कहना ज्यादा मुफीद होगा अमेरिका के दबाव में पाकिस्तान को वार्ता की मेज पर निमंत्रित करते हैं और फिर तब तक एक और आतंकवादी हमले की नींव डाल दी जाती है। बीच में जब हम पाकिस्तान के साथ संबंध सामान्य होने का दावा करते हैं तो वह इस समय में अपनी तैयारियों में लगा होता है। आए दिन सीमा पार से होने वाली घुसपैठ और गोलीबारी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। क्या कभी इस देश के जनप्रतिनिधियों को इस पर सोचने के लिए समय मिलेगा। क्यों अभी तक हम 1992 मुंबई बम विस्फोट कांड के मुख्य अभियुक्त दाउद इब्राहिम का प्रत्यार्पण नहीं करा सके। क्यों हम हर आतंकवादी घटना के बाद अमेरिका को सबूत सौंपते हैं। इससे हमारे देश की रही-सही इज्जत मिट्टी में मिल जाती है।

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