Friday, July 23, 2010

पत्रकारिता का मृत्युलेख

रामनाथ गोयनका पत्रकारिता  पुरस्कार समारोह के दौरान पेड न्यूज़ को लेकर परिचर्चा भी हुई। ऐसी परिचर्चा पिछले साल के समारोह में भी हो सकती थी। हालांकि उस वक्त तक यह मामला उठ चुका था। यों पिछले साल जब हिन्दू में पी साईनाथ के लेख प्रकाशित हुए तब इस मामले पर बात शुरू हुई। वर्ना मान लिया गया था कि इस सवाल पर मीडिया मौन धारण करे रहेगा।


गुरुवार के समारोह में अभिषेक मनु सिंघवी ने ठीक सवाल उठाया कि मीडिया तमाम सवालों पर विचार करता है, इसपर क्यों नहीं करता। इस समारोह में मौज़ूद कुमारी शैलजा, सचिन पायलट और दीपेन्द्र हुड्डा ने बताया कि उनके पास मीडिया के लोग आए थे। बात इतनी साफ है तो क्यों नहीं हम इस मामले पर आगे जाकर पता लगाएं कि कौन पैसा माँगने आया था। किसने किसको कितना पैसा दिया। वह पैसा कहाँ गया वगैरह का पता तो लगे।


पेज3 की पेड न्यूज़ और चुनाव की पेड न्यूज़ में फर्क नहीं करना चाहिए। यह सब अपनी साख को तबाह करना है। इस समारोह मे हालांकि ज्यादातर वे लोग शामिल थे, जो इन बातों से ज्यादा नहीं जुड़े रहे हैं, पर उनमे से ज्यादातर के मासूम सवाल जनता के सवाल हैं। मसलन रविशंकर प्रसाद का यह सवाल कि क्या पत्रकारिता सीधे-सीधे ट्रेड और बिजनेस है? क्या ऐसा है? ऐसा है कहने के बाद पूरी व्यवस्था धड़ाम से ज़मीन पर आकर गिरती है। अरुणा रॉय कहती हैं कि डैमोक्रेसी में मीडिया का रोल है। मीडिया को प्रॉफिट-लॉस का कारोबार नहीं बनना चाहिए।


अच्छी बात है कि हम मीडिया की भूमिका पर बात कर रहे हैं, पर हम क्यों उम्मीद करें कि मीडिया प्रॉफिट-लॉस के मोह-जाल से ऊपर उठकर काम करेगा। उसे निकालने के पीछे की मनोभावनाएं वही रहेंगी तो इसमें कोई बदलाव नहीं होगा। ज़रूरत इस बात की है कि हम मीडिया का मालिक कौन हो इस सवाल को उठाएं।  यह सब जनता के दरवार में तय होना है। जनता बहुत सी बातों से अपरिचित है। वह हमपर ही भरोसा करती थी, पर हम उसे बताना नहीं चाहते। इसलिए इस मीडिया के भीतर से साखदार मीडिया के उभरने की ज़रूरत है। यह बेहद मुश्किल काम है, क्योंकि दूध का जला हर दूध को जलाने वाला समझेगा।


मुझे लगता है पत्रकारिता को जिस तरह से राजनेताओं और सत्ता से जोड़ा गया है, उसे देखते हुए जल्द किसी बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। आखिरकार इंडियन एक्सप्रेस का यह समारोह भी पीआर एक्सरसाइड़ थी जिसमें अखबार की रपट के अनुसार शामिल होने वाले गणमान्य लोगों में गिनाने लायक नाम राजनेताओं के ही थे। एकाध पत्रकार भी था, तो वही पेज3 मार्का। पत्रकारिता का व्यवस्था के साथ 36 का रिश्ता होना चाहिए, पर यहाँ वैसा है नहीं। इसलिए सारी बातें ढोंग जैसी लगती हैं।


इंडियन एक्सप्रेस के पेज 2 पर इस गोष्ठी की बड़ी सी खबर है जिसका शीर्षक है 'पेड न्यूज़ कुड मार्क डैथ ऑफ जर्नलिज़्म'। यह खुशखबरी है या दुःस्वप्न?


कुछ महत्वपूर्ण लिंक


प्रेस काउंसिल रपट
काउंटरपंच में पी साइनाथ का लेख
हिन्दू में पी साइनाथ का लेख
इंडिया टुगैदर
सेमिनार
द हूट
न्यूज़ फॉर सेलः द हूट
सैलिंग कवरेजः द हूट
प्लीज़ डू नॉट सैल-विनोद मेहता 

10 comments:

  1. सर, सही कहा आपने कि यह दुःस्वपन ही है। अब दाव पर साख है।

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  2. Anonymous1:14 PM

    Good story. Forced this non-hindi reader to read this article in full. Good going sir.
    A Ravi Shankar

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  3. sir, ab dar lagtaa hai. hur koi samjhauta kar raha hai. bihar emin bawaal machaa hai. lekin koi patrkaar nahi likh raha ki maamlaa kyaa hai. kis liye court ne aadesh diya hai? humaare peshe ke saare log bik chuke hain. aapne sahi kaha ki naam poochhaa jana chaahiye ki kaun aaya tha..kis compnay se aaya tha...

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  4. dinesh juyal3:13 PM

    apne apne chhadm hain. jo bolega apni pol kholega... phir bhi......

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  5. sir..baat ghar kar gayi!

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  6. सर, मेरी समझ से यह बाहर है कि आपने यह सब क्यों लिखा और अब आप क्या करना चाहते हैं। आप देश के सबसे बड़े अखबरों के संपादक रह चुके हैं...क्या आपसे कोई बात छिपी है। आप यह क्यों नहीं मान लेते कि तमाम मीडिया हाउस इस मामले में आपस में मिले हुए हैं और अगर सरकार पेड न्यूज या पेज 3 न्यूज के खिलाफ कोई कानून बनाएगी तो यह लोग मिलकर रोक देंगे।
    आपको तो मालूम ही है कि सरकार जब मीडिया में एफडीआई की सीमा बढ़ाने जा रही थी तो किस तरह सारे मीडिया हाउस एकजुट होकर सरकार के पास दबाव बनाने के लिए चले गए थे।
    मेरा मानना है कि अगर आपको किसी मीडिया हाउस में कोई जिम्मेदार भूमिका मिलती है तो उसे ईमानदारी और तमाम चीजों से ऊपर उठकर निभाकर निकल लेना चाहिए। मीडिया अब बाजार का है। बाजार पूंजी वालों के पास है, संचालित भी वही करेंगे।

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  7. मीडिया बाज़ार का है और बाज़ार पूँजी वालों के पास है और वही इसे संचालित करेंगे। ये एक नहीं दो बातें हैं। बाज़ार पूँजी वालों के पास नहीं है। बाज़ार तो सामान्य पाठक का है। उपभोक्ता का। साथ ही पूँजी वाले होने का मतलब नैतिकता की इतिश्री नहीं है। आखिर इन बातों से किसी पर दबाव बन रहा है या नहीं? कौन बना रहा है यह दबाव? यह भी तो बाज़ार है।

    मीडिया हाउस मिले हुए हैं और वे सरकार पर दबाव बनाने के लिए चले गए थे, जब आप कहते हैं, इसका मतलब है आपके पास कोई बात कहने के लिए है और आप कह रहे हैं। ऐसा कहने या लिखने पर कोई तो ध्यान देता है। यह लोकतांत्रिक तरीका है। जिस टिप्पणी पर आपने लिखा है वह कोई लेख नहीं है, सिर्फ एक घटना पर टिप्पणी है। मैने कुछ शुरूआती लेख लिखे हैं और आने वाले समय में लिखूँगा।
    हम अपने देश के लोकतंत्र को लेकर चिंता व्यक्त कर सकते हैं तो उस कर्म को लेकर क्यों नहीं व्यक्त कर सकते जिससे हम जुड़े रहे। साथ ही मैने बहुत मोटी और सामान्य बातें लिखीं हैं, कोई व्यक्तिगत आक्षेप या चरित्र हनन नहीं किया। वह मैं कर भी नहीं पाऊँगा, पर क्या मुझे लिखना भी नहीं चाहिए? हालांकि मैं जोक्स वगैरह भी लिखता हूँ, पर अपने कर्म पर लिख दिया तो किसी की अवमानना नहीं की। मैं भविष्य में भी लिखूँगा। अच्छा हो कि आपके पास कोई समाधान हो तो बताएं। मैं समाधान बताने की कोशिश करता हूँ। आने वाले समय में और करूँगा। आप यदि यह मानें कि कुछ नहीं हो सकता तो यह भी आपकी राय है, पर दुनिया मध्ययुग की ओर वापस नहीं लौटेगी। स्थितयाँ बेहतर होंगी, बदतर नहीं।

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  8. रवीश जी हमारे पेशे में आप भी हैं। सभी लोग नहीं बिके हैं। मैं आपका प्रशंसक हूँ। आप अपनी सीमा में रहकर राह बनाते हैं। इतना भी नहीं करेंगे तो कैसे काम चलेगा? व्यवस्था जटिल है। समाधान फौरन नहीं आते। काफी लोग फिक्रमंद हैं। हमें अपनी राय को रखना चाहिए। हमारा पाठक-दर्शक-श्रोता हमसे उम्मीद रखता है।

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  9. दिनेश जी पोल-वोल कुछ नहीं है। ये बड़े सवाल हैं, जो इतिहास तय करते हैं। अतीत में हमारे पूर्वज इससे बड़े सवालों से जूझ चुके हैं। हमें संतुलित होकर ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए।

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  10. सही बात है सर, दरअसल अक्सर ऐसा होता है मीडिया नेताओं की पोल खोलती है। इस कार्यक्रम में नेताओं को मौका मिला कि वे मीडिया से कुछ सवाल कर सकें तो आज सबके मन में तैर रहे हैं। मौका था दस्तूर भी सबने आड़े हाथों मीडिया को घेर लिया।
    गलती मीडिया की है कि हम पहले तो गलत हैं फिर किसी को दावत भी देते हैं तो कोई क्या सवाल करेगा ? मुझे लगता है हालात काफी खराब हो चुके हैं पर फिर भी बहुत कुछ बचा हुआ है। बड़े मीडिया हाउस नहीं सुधरे तो हर कोई मीडिया को गाली देता फिरेगा।

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