Saturday, July 24, 2010

हिंग्लिश, हिन्दी और हम


सारा संसार समय के साथ बदलता है। भाषाएं भी बदलतीं हैं। हिन्दी को भी बदलना है। पर क्या उसमें आ रहे बदलाव स्वाभाविक हैं? बदलाव से आशय है, उसमें प्रवेश कर रहे अंग्रेज़ी के शब्द। इसे लेकर हाल में बीबीसी रेडियो के हिन्दी कार्यक्रम में इस सवाल को लेकर एक रोचक कार्यक्रम पेश किया गया। इसमें हिन्दी भाषियों के विचार भी रखे गए। 


हिन्दी के अखबारों ने , खासतौर से नवभारत टाइम्स ने अंग्रेजी मिली-जुली हिन्दी का न सिर्फ धड़ल्ले से इस्तेमाल शुरू किया है, बल्कि उसे प्रगतिशील साबित भी किया है। अखबार के मास्टहैड के नीचे लाल रंग से मोटे अक्षरों में एनबीटी लिखा जाता है। मेरा ख्नयाल है कि नवभारत टाइम्स ने ऐसा विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिए किया है। विज्ञापनदाता का हिन्दी जीवन-संस्कृति और समाज से रिश्ता नहीं है। वे फैशन के लिए एक खास तबके को लुभाते हैं। यह तबका हमारे बीच है, यह भी सच है। पर यह हिन्दी की मुख्यधारा नहीं है। बिजनेस के दबाव में यह धारा फैसले करती है। 


बीबीसी के इस कार्यक्रम में शब्बीर खन्ना नाम के श्रोता ने बीबीसी की अपनी भाषा नीति पर हमला बोला। भाषा में बदलाव कितना होना चाहिए, कैसे होना चाहिए, यह बेहद महत्वपूर्ण सवाल है। क्या कोई भाषा शुद्ध हो सकती है? दाल में नमक या नमक में दाल? संज्ञाएं नहीं क्रियाएं बदली जा रहीं है। मजेदार बात यह है कि न तो  इस हिन्दी को चलाने वाले नवभारत टाइम्स ने और न किसी दूसरे अखबार ने कोई बहस चलाई। कोई सर्वे भी नहीं किया। बीबीसी ने यह चर्चा की अच्छी बात है। इस विषय पर चर्चा होनी चाहिए। 
  
बीबीसी कार्यक्रम को सुनें 

3 comments:

  1. दाल में नमक जैसी हिंग्लिश ही हिन्दीवालों को स्वीकार होना चाहिये। हिन्दी के हितैषी लोग इसे गम्भीरता से लें और अब ऐसे अखबारों का बहिष्कार करना आरम्भ करें जो रविवार को संडे, विद्यार्थी को स्टुडेन्ट, परीक्षा कि एक्झाम, माता-पिता को पैरेन्ट्स, शिक्षकों को टीचर्स आदि धड़ल्ले से लिखते हैं। हिन्दी के सरल और सहज (प्राकृतिक) शब्दों को अप्रयोग के चलते लुप्त होने का खतरा पैदा नहीं होने देना चाहिये।

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  2. हिंदी को हिंदी रहते हुए भी बहुत से अन्य भाषाओँ के शब्द स्वीकार हैं फिर हिंगलिश शब्द की क्या जरूरत पद गयी हाँ शुद्ध अशुद्ध का ज्ञान जरूरी है हिंदी में अन्य भाषा का शब्द जो बहुत प्रचलित है आराम से लिखा जाता है और खप भी रहा है फिर भी तथाकथित प्रगतिशील लोगों के पेट में दर्द होता है कि अभी और मिलावट जरूर होनी ही चाहिए

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  3. नदी और भाषा बांध कर नहीं रखे जा सकते। नदी को बांध बनाकर थोड़ी देर रोका जाए तो बिजली बना सकते हो, नहरें निकाल सकते हो। भाषा को भी कुछ देर रोका जाए तो साहित्य की एक शैली बना सकते हो। मगर बदलाव तो हर पीढ़ी के साथ होगा, इसे नहीं रोका जा सकता। भाषा लोगों की रोजमर्रा की चीज है, जिससे उनका काम चलेगा वही बोलेंगे। ऑल इज वेल उनकी जुबान पर चढ़ता है तो महंगाई डायन खाए जात है.. भी उसी तरह चढ़ता है। जो शब्द असर करेंगे, उनके पीछे ही बाजार भागेगा। जिधर बाजार भागेगा उधर देर सवेर मीडिया को भी खींच लेगा। इसके बाद तो कौन किसके रोके रुकेगा।

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