Wednesday, October 13, 2021

क्या हम पीओके वापस ले सकते हैं?


दो साल पहले 5 अगस्त, 2019 को भारत ने कश्मीर पर अनुच्छेद 370 और 35 को निष्प्रभावी करके लम्बे समय से चले आ रहे एक अवरोध को समाप्त कर दिया। राज्य का पुनर्गठन भी हुआ है और लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया है। पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मामला अब भी अधूरा है। कश्मीर हमारे देश का अटूट अंग है, तो हमें उस हिस्से को भी वापस लेने की कोशिश करनी चाहिए, जो पाकिस्तान के कब्जे में है। क्या यह सम्भव है? कैसे हो सकता है यह काम?

गृह मंत्री अमित शाह ने नवम्बर 2019 में एक कार्यक्रम में कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के लिए हम जान भी दे सकते हैं और देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिनके मन में यही भावना है। साथ ही यह भी कहा कि इस सिलसिले में सरकार का जो भी ‘प्लान ऑफ एक्शन’ है, उसे टीवी डिबेट में घोषित नहीं किया जा सकता। ये सब देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन्हें ठीक वैसे ही करना चाहिए, जैसे अनुच्छेद 370 को हटाया गया। इसके समय की बात मत पूछिए तो अच्छा है।

इसके पहले संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए भी उन्होंने कहा था कि पीओके के लिए हम जान दे सकते हैं। गृहमंत्री के इस बयान के पहले विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सितम्बर 2019 में एक मीडिया कॉन्फ्रेंस में कहा ता कि पाकिस्तान के कब्जे में जो कश्मीर है, वह भारत का हिस्सा है और हमें उम्मीद है कि एक दिन इस पर हमारा अधिकार हो जाएगा।

इन दोनों बयानों के बाद जनवरी 2020 में भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने सेना दिवस के पहले एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि यदि देश की संसद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को वापस लेने का आदेश देगी तो हम कारवाई कर सकते है। ‌उन्होंने कहा, संसद इस बारे में प्रस्ताव पास कर चुकी है कि पीओके भारत का अभिन्न अंग है‌‌। इन बयानों के पीछे क्या कोई संजीदा सोच-विचार था? क्या भविष्य में हम कश्मीर को भारत के अटूट अंग के रूप में देख पाएंगे?

संसद का प्रस्ताव

इस सिलसिले में भारतीय संसद के एक प्रस्ताव का उल्लेख करना भी जरूरी है। हमारी संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा संकल्प में कहा गया, जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग रहा है, और रहेगा तथा उसे देश के बाकी हिस्सों से अलग करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक साधन के द्वारा विरोध किया जाएगा। प्रस्ताव में कहा गया कि पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए हुए भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर क्षेत्रों को खाली करे।

Tuesday, October 12, 2021

चीन पर मंडरा रहा है आर्थिक और राजनीतिक संकट से घिरने का खतरा

गोल्डमैन सैक्स के अनुसार चीनी अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर इस साल तीसरी तिमाही में शून्य हो जाएगी। वित्तीय संस्थाओं का पूर्वानुमान है कि चीनी अर्थव्यवस्था में ब्रेक लग रहे हैं। कार्बन-उत्सर्जन और कोविड-19 को लेकर किए गए सख्त फैसलों की वजह से कोयले और गैस की सप्लाई में कमी आ गई है। इसके कारण बिजली-संकट पैदा हो गया है। कारखानों में उत्पादन गिरने लगा है। यह संकट शायद बहुत लम्बा नहीं चले, पर दीर्घकालीन खतरे दूसरे हैं।

प्रॉपर्टी कारोबार

हाल में चीन की सबसे बड़ी रियलिटी फर्म एवरग्रैंड के दफ़्तरों के बाहर नाराज़ निवेशकों की भीड़ जमा हो गई। प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़पें भी हुईं। जनता का विरोध? एवरग्रैंड, चीन में सबसे ज़्यादा देनदारियों के बोझ से दबी संस्था बन गई है। कम्पनी पर 300 अरब अमेरिकी डॉलर की देनदारी है। कर्ज़ के बोझ ने कम्पनी की क्रेडिट रेटिंग और शेयर भाव ने उसे रसातल पर पहुँचा दिया। तमाम निर्माणाधीन इमारतों का काम अधूरा है। करीब 10 लाख लोगों ने मकान खरीदने के लिए इस कम्पनी को आंशिक-भुगतान कर दिया था।

एक यही कम्पनी नहीं है। प्रॉपर्टी डेवलपरों के ऊपर 2.8 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज है। चीनी समाज में पैसे के निवेश के ज्यादा रास्ते नहीं हैं। काफी लोगों के मन में अच्छे से घर का सपना होता है। इस झटके से उन्हें धक्का लगा है। चीनी अर्थव्यवस्था के तेज विकास के पीछे तेज शहरीकरण का हाथ भी है।

गगनभेदी इमारतों और शानदार राजमार्गों ने एकबारगी पूरी व्यवस्था को चमका दिया, पर इससे रियलिटी सेक्टर पर कर्जे का बोझ बढ़ता चला गया। अब राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस तेज बदलाव को थामने पर जोर दे रहे हैं। दूसरी तरफ उन्होंने प्रदूषण, असमानता और वित्तीय जोखिमों को दूर करने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है।

अमीरी की विसंगतियाँ

चीनी अर्थव्यवस्था के विस्तार ने कुछ और विसंगतियों को जन्म दिया है। देश में असमानता का स्तर बढ़ा है। एक तरफ तुलनात्मक गरीबी है, वहीं एक नया कारोबारी समुदाय तैयार हो गया है, जो सरकारी नीतियों के बरक्स दबाव-समूहों का काम करने लगा है। निजी कारोबार ने लोगों की आमदनी बढ़ाई है। ऐशो-आराम और मौज-मस्ती का हामी यह समूह कम्युनिस्ट-व्यवस्था से बेमेल है। जनवरी 2021 में पोलित ब्यूरो की बैठक में ‘पूँजी के बेतरतीब विस्तार को रोकने’ की बातें हुईं। शी चिनफिंग कम से कम पाँच मौकों पर इसे रोकने की बात कह चुके हैं।

Monday, October 11, 2021

बिजली-संकट पर क्या राजनीतिक रंग चढ़ेगा?

 


इसमें दो राय नहीं कि देश में कोयले का संकट है, जिसके कारण बिजली संकट पैदा होने का खतरा है, पर क्या यह बात वैसे ही राजनीतिक-विवाद का विषय बनेगी, जैसा इस साल अप्रेल-मई में मेडिकल-ऑक्सीजन की किल्लत के कारण पैदा हुआ था?  शायद उसकी खुशबू आते ही दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री ने केन्द्र सरकार के खिलाफ आवाज बुलन्द करनी शुरू कर दी है।

ऐसा लगता है कि दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार दोनों ने सम्भावित संकट को देखते हुए अभी से पेशबन्दी शुरू कर दी है। दिल्ली के उप-मुख्यमन्त्री मनीष सिसौदिया ने ऑक्सीजन का ही हवाला दिया। उसे देखते हुए केन्द्र सरकार ने फौरन जवाब दिया। सवाल है कि क्या बिजली-संकट पैदा होगा? या केन्द्र सरकार हालात पर काबू पा लेगी?

सारी आशंकाओं को केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री आरके सिंह ने 'निराधार' करार दिया है। उन्होंने रविवार को कहा कि संकट न तो कभी था, न आगे होगा। ऊर्जा मंत्री ने कहा कि 'हमारे पास आज के दिन में कोयले का चार दिन से ज़्यादा का औसतन स्टॉक है, हमारे पास प्रतिदिन स्टॉक आता है। कल जितनी खपत हुई, उतना कोयले का स्टॉक आया।…'हमें कोयले की अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ानी है हम इसके लिए कार्रवाई कर रहे हैं।'

कोयला मंत्रालय ने कहा कि गत 9 अक्तूबर को ताप बिजलीघरों के लिए 19 लाख 20 हजार टन कोयला भेजा गया है, जबकि कुल माँग 18 लाख 70 हजार टन की है। स्थिति बदल रही है और हम अपने भंडारों को फिर से बेहतर बना रहे हैं।

Sunday, October 10, 2021

कश्मीरी हिंसा के पीछे कौन?


पिछले कुछ दिनों में कश्मीर घाटी में हुई आतंकी-हिंसा में हिंदुओं और सिखों की हत्या के बाद जम्मू-कश्मीर का माहौल फिर से तनावपूर्ण हो गया है। स्थानीय लोगों के मन में कई सवाल पैदा हो रहे हैं, वहीं शेष भारत में सवाल पूछा जा रहा है कि राज्य के हालात क्या फिर से 90 के दशक जैसे होने वाले हैं? क्या घाटी से बचे-खुचे पंडितों और सिखों का पलायन शुरू हो जाएगा? क्या यह हिंसा पाकिस्तान-निर्देशित है? क्या आतंकवादियों की यह कोई रणनीति है? इस हिंसा के पीछे द रेसिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) नामक नई संस्था है, जिसके पीछे पाकिस्तान के लश्करे तैयबा का हाथ है। इस साल सितंबर तक जम्मू-कश्मीर में आतंकियों ने दो दर्जन लोगों की हत्याएं की थीं। अब अक्तूबर में पाँच दिन के भीतर सात लोगों के मारे जाने की खबरें हैं।

सॉफ्ट टार्गेट

नई बात यह है कि ये हमले मासूम नागरिकों पर हुए हैं। हाल के वर्षों में आतंकवादी ज्यादातर सुरक्षाबलों पर हमले कर रहे थे। हमलों के दौरान वे मारे भी जाते थे, क्योंकि सुरक्षाबल उन्हें जवाब देते थे, पर अब वे वृद्धों, स्त्रियों और गरीब कारोबारियों की हत्याएं कर रहे हैं, जो आत्मरक्षा नहीं कर सकते। ऐसा ही वे नब्बे के दशक में कर रहे थे, जिसके कारण घाटी से पंडितों का पलायन हुआ था। हालांकि छत्तीसिंहपुरा की हिंसा को छोड़ दें, तो सिखों पर अपेक्षाकृत कम हमले हुए हैं। 20 मार्च, 2000 की रात को छत्तीसिंहपुरा में 40-50 आतंकियों ने इस गाँव पर हमला करके 35 सिखों की हत्या की थी। महत्वपूर्ण यह है कि ये ‘टार्गेटेड किलिंग्स’ हैं। ऐसा नहीं है कि भीड़ को निशाना बनाया गया है, बल्कि सोच-समझकर हत्या की गई है। इसका मतलब है कि कोई सोच इसके पीछे काम कर रहा है।

क्या यह माना जाए कि आतंकवादी परास्त हो रहे हैं और अब वे अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए सॉफ्ट टार्गेट को निशाना बना रहे हैं, जिसमें जोखिम कम है और दहशत फैलाने की सम्भावनाएं ज्यादा हैं? जनता के बीच घुसकर कार्रवाई करने के लिए मामूली तमंचों और चाकुओं से काम चल जाता है। हत्यारे अपनी कार्रवाई करके भागने में सफल हो जाते हैं। यह रणनीति क्या है और इसके पीछे उद्देश्य क्या हैं, इसे समझने की भी जरूरत है। क्या वे दहशत फैलाना चाहते हैं, ताकि अल्पसंख्यक कश्मीर छोड़कर भागें और कानूनी-व्यवस्था में बदलाव के कारण जो नए लोग इस इलाके में बसना चाहें, तो वे अपना इरादा बदलें?

सम्पत्ति की बंदरबाँट

कश्मीर से पंडितों के पलायन के बाद उनकी सम्पत्ति पर कब्जे को लेकर बंदरबाँट भी एक कारण हो सकता है। हाल में सरकार ने कश्मीरी पंडितों की क़ब्ज़ा की गई अचल संपत्तियों पर उन्हें दोबारा अधिकार देने की कवायद शुरू की थी। अब तक ऐसे लगभग 1,000 मामलों का निपटारा करते हुए संपत्ति को वापस उनके असली मालिक के हवाले कर दिया गया। हिंसा के पीछे यह भी एक कारण हो सकता है। इन सब बातों के अलावा ये घटनाएं 'बड़ी सुरक्षा चूक' भी हैं। जहाँ-जहाँ वारदात हुई, वहाँ से कुछ ही मीटर की दूरी पर या तो सुरक्षा बलों के शिविर थे या एसएसपी का कार्यालय। सुरक्षा एजेंसियों ने 21 सितंबर को ही अलर्ट जारी किया था और बड़े हमले की आशंका जताई थी। हमारी खुफिया-व्यवस्था को अब ज्यादा जागरूक होकर काम करना होगा, क्योंकि हत्यारे छिपने के लिए जगह तलाशते हैं। यदि जनता के बीच पुलिस की पैठ हो, तो उनका पता लगाना आसान होता है।

सौहार्द पर निशाना

इन हत्याओं से केवल कश्मीर में ही नहीं, शेष भारत में भी साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ता है। इसीलिए लगता है कि इसके पीछे पाकिस्तान में बैठे आकाओं की कोई योजना काम कर रही है। टीआरएफ नाम के नए समूह का नाम अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद से ही सुनाई पड़ा है। टीआरएफ ने गत 2 अक्तूबर को हुई माजिद अहमद गोजरी और मोहम्मद शफी डार की हत्याओं की जिम्मेदारी भी ली थी। फिर मंगलवार 5 अक्तूबर को तीन अलग-अलग वारदातों में तीन लोगों की हत्या कर दी। पहले इकबाल पार्क क्षेत्र में श्रीनगर की प्रसिद्ध फार्मेसी के मालिक माखनलाल बिंदरू की, फिर लाल बाजार क्षेत्र में गोलगप्पे बेचने वाले वीरेंद्र पासवान की और इसके बाद बांदीपुरा के शाहगुंड इलाके में एक नागरिक मोहम्मद शफी लोन की हत्या की गई।

Saturday, October 9, 2021

एबीपी- सी-वोटर चुनाव-पूर्व सर्वे


एबीपी ने शुक्रवार की शाम उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा समेत पांच चुनावी राज्यों की सम्भावनाओं पर सी-वोटर के सर्वेक्षण को प्रसारित किया। सर्वेक्षण के अनुसार यूपी चुनाव में सबसे ज्यादा सीटों के साथ बीजेपी फिर सरकार बना सकती है। सी-वोटर का दावा है कि इस सर्वे में 98 हजार से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। सर्वे 4 सितंबर  से 4 अक्तूबर के बीच किया गया। इसमें मार्जिन ऑफ एरर प्लस माइनस तीन से प्लस माइनस पांच फीसदी है।

सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खाते में 241 से 249 सीटें जा सकती है। समाजवादी पार्टी के हिस्से में 130 से 138 सीटें आएंगी, बीएसपी 15 से 19 के बीच और कांग्रेस 3 से 7 सीटों के बीच सिमट सकती है।  सर्वे के मुताबिक, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 41 फीसदी, समाजवादी पार्टी को 32 फीसदी, बहुजन समाज पार्टी को 15 फीसदी, कांग्रेस को 6 फीसदी और अन्य के खाते में 6 फीसदी वोट जा सकते हैं।

माहौल बनाने की कोशिश

इस सर्वेक्षण के आधार पर उत्तर प्रदेश से जुड़े नतीजों को जब मैंने फेसबुक पर डाला, तो तीन तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं। कुछ लोगों ने इसे सही बताया और कहा कि बीजेपी इससे भी बेहतर प्रदर्शन करेगी। इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना था कि जैसा बंगाल में हुआ बीजेपी बुरी तरह हारेगी। आमतौर पर ऐसा होता भी है।

कुछ लोगों का कहना था कि गोदी मीडिया की तरफ से यह सर्वे बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने के लिए है। एक ने लिखा कि यह सर्वे सी-वोटर ने किया है, इससे आप खुद निष्कर्ष निकाल लीजिए। यह सच है कि सी-वोटर के संचालक यशवंत देशमुख का परिवार अर्से से बीजेपी के साथ जुड़ा रहा है, पर हाल में बंगाल में हुए चुनाव के पहले हुए सर्वे में सी-वोटर उन कुछ सर्वेक्षकों में शामिल था, जो तृणमूल की विजय सुनिश्चित कर रहे थे। जबकि काफी सर्वे बीजेपी को जिता रहे थे।

सी-वोटर ने बंगाल के चुनाव में टाइम्स नाउ के लिए चुनाव-पूर्व सर्वे और एबीपी के लिए एग्जिट पोल किया था। बहरहाल चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों और एग्जिट पोल की साख हमारे देश में काफी कम है। एग्जिट पोल को कुछ हद तक मान भी लिया जाता है, पर चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों पर कोई विश्वास नहीं करता। बहरहाल उत्तर प्रदेश को लेकर कई तरह के कयास हैं। चुनाव अभी चार-पाँच महीने दूर हैं, इसलिए कोई निर्णायक बात अभी नहीं कही जा सकती है। इस सर्वेक्षण के नतीजों को याद रखा जाना चाहिए, और परिणाम आने के बाद मिलान करना चाहिए।

एबीपी की साख

एबीपी चैनल कोलकाता के आनन्द बाजार पत्रिका समूह से जुड़ा है, जिसका अंग्रेजी अखबार मोदी-विरोधी कवरेज के लिए प्रसिद्ध है। अलबत्ता हिन्दी चैनल को लेकर प्रेक्षकों की राय अलग है। सन 2018 में एबीपी न्यूज चैनल के तीन वरिष्ठ सदस्यों को इस्तीफे देने पड़े। इन तीन में से पुण्य प्रसून वाजपेयी ने बाद में एक वैबसाइट में लेख लिखा, जिसमें उस घटनाक्रम का विस्तार से विवरण दिया, जिसमें उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इस विवरण में एबीपी न्यूज़ के प्रोपराइटर के साथ, जो एडिटर-इन-चीफ भी हैं उनके एक संवाद के कुछ अंश भी थे।

संवाद का निष्कर्ष था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत आलोचना से उन्हें बचना चाहिए। इस सिलसिले में ज्यादातर बातें पुण्य प्रसून की ओर से या उनके पक्षधरों की ओर से सामने आई थीं। चैनल के मालिकों और प्रबंधकों ने कोई स्पष्टीकरण जारी नहीं किया।