Tuesday, August 31, 2021

अफगानिस्तान पर सुरक्षा परिषद में महाशक्तियों के मतभेद उभर कर सामने आए

संरा सुरक्षा परिषद की बैठक में अध्यक्ष की कुर्सी पर भारत के विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला

अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी पूरी तरह हो चुकी है और अब यह देश स्वतंत्र अफगान इस्लामिक अमीरात है। हालांकि यहाँ की सरकार भी पूरी तरह बनी नहीं है, पर मानकर चलना चाहिए कि जल्द बनेगी और यह देश अपने नागरिकों की हिफाजत, उनकी प्रगति और कल्याण के रास्ते जल्द से जल्द खोजेगा और विश्व-शांति में अपना योगदान देगा। अब कुछ बातें स्पष्ट होनी हैं, जिनका हमें इंतजार है। पहली यह कि इस व्यवस्था के बारे में वैश्विक-राय क्या है, दूसरे भारत और अफगानिस्तान रिश्तों का भविष्य क्या है और तीसरे पाकिस्तान की भूमिका अफगानिस्तान में क्या होगी। इनके इर्द-गिर्द ही तमाम बातें हैं।

जिस दिन अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी पूरी हुई है, उसी दिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव पास किया है, जिसमें तालिबान को याद दिलाया गया है कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर लगाम लगाने के अपने वायदे पर उन्हें दृढ़ रहना होगा। मंगलवार को संरा सुरक्षा परिषद में भारत की अध्यक्षता का अंतिम दिन था। भारत की अध्यक्षता में पास हुआ प्रस्ताव 2593 भारत की चिंता को भी व्यक्त करता है। यह प्रस्ताव सर्वानुमति से पास नहीं हुआ है। इसके समर्थन में 15 में से 13 वोट पड़े। इन 13 में भारत का वोट भी शामिल है। विरोध में कोई मत नहीं पड़ा, पर चीन और रूस ने मतदान में भाग नहीं लिया।

इस अनुपस्थिति को असहमति भले ही न माना जाए, पर सहमति भी नहीं माना जाएगा। अफगानिस्तान को लेकर पाँच स्थायी सदस्यों के विचार एक नहीं हैं और भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। दूसरे यह भी स्पष्ट है कि रूस और चीन के साथ भारत की सहमति नहीं है। सवाल है कि क्या है असहमति का बिन्दु? इसे सुरक्षा परिषद की बैठक में रूसी प्रतिनिधि के वक्तव्य में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि इस प्रस्ताव के लेखक, यानी अमेरिका ने, अफगानिस्तान में आतंकवादियों को हमारे और उनके (अवर्स एंड देयर्स) के खानों में विभाजित किया है। इस प्रकार उसने तालिबान और उसके सहयोगी हक्कानी नेटवर्क को अलग-अलग खाँचों में रखा है। हक्कानी नेटवर्क पर ही अफगानिस्तान में अमेरिकी और भारतीय ठिकानों पर हमले करने का आरोप लगता रहा है।

Monday, August 30, 2021

आजादी की नींद और नई सुबह के सपने


हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के विकास के लिए एक पहल की घोषणा की, जिसका नाम है दिल्ली@2047। इस पहल के राजनीतिक-प्रशासनिक निहितार्थ अपनी जगह हैं, महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जब हम अपना 75वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी कर रहे हैं, तब हमारे मन में 100वें वर्ष की योजनाएं जन्म ले रही हैं। ऐसा तब भी रहा होगा, जब हम स्वतंत्र हो रहे थे।

सवाल है कि हम नए भारत के उस सपने को पूरा कर पाए? वह सपना क्या था? भव्य भारतवर्ष की पुनर्स्थापना, जो हमारे गौरवपूर्ण अतीत की कहानी कहता है। क्या हम उसे पूरा कर पाए? क्या हैं हमारी उपलब्धियाँ और अगले 25 साल में ऐसा क्या हम कर पाएंगे, जो सपनों को साकार करे?

देश के बड़े उद्यमियों में से एक मुकेश अम्बानी मानते हैं कि 2047 तक देश अमेरिका और चीन के बराबर पहुंच सकता है। आर्थिक उदारीकरण के 30 साल के पूरे होने के मौके पर उन्होंने अपने एक लेख में कहा कि साहसी आर्थिक सुधारों की वजह से भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। इस दौरान आबादी हालांकि 88 करोड़ से 138 करोड़ हो गई, लेकिन गरीबी की दर आधी रह गई।

भारत सरकार इस साल ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना रही है, पर बातें सपनों की हैं। नरेंद्र मोदी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक के पास भविष्य के सपने हैं। पिछले तीन दशक से हमने तेज आर्थिक विकास देखा। नए हाईवे, मेट्रो और दूर-संचार क्रांति को आते देखा। उस इंटरनेट को आते देखा जो सैम पित्रोदा के शब्दों में ‘एटमी ताकत’ से भी ज्यादा बलवान है। इनके साथ हर्षद मेहता से लेकर, टूजी, सीडब्ल्यूजी, कोल-गेट से लेकर आदर्श घोटाले तक को देखा।

आज सोशल मीडिया का जमाना है। लोकतंत्र बहुत पुरानी राज-पद्धति नहीं है। औद्योगिक क्रांति के साथ इसका विकास हुआ है। इसे सफल बनाने के लिए जनता को आर्थिक और शैक्षिक आधार पर चार कदम आगे आना होगा। पर जनता और भीड़ का फर्क भी हमें समझना होगा। हमने अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया है, पर उसकी व्यवस्था नहीं है। हम महिलाओं को विधायिकाओं में आरक्षण देना चाहते हैं, पर दे नहीं पाते। 

लुटी-पिटी आजादी

15 अगस्त, 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था। अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी। कैम्ब्रिज के इतिहासकार एंगस मैडिसन लिखा है कि सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी। यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी। क्या इतिहास के इस पहिए को हम उल्टा घुमा सकते हैं?

तालिबान को तोहफे जैसी आसान जीत कैसे मिली?

अफगानिस्तान में जितनी आसानी से सत्ता का हस्तांतरण हुआ, उसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। पिछले रविवार को न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में कहा गया कि तीन अनुमान-समय, मनोबल और भरोसा-गलत साबित हुए। टाइम्स की एक और रिपोर्ट के अनुसार तालिबान 2001 में तबाह हो चुके थे और वे अंतरिम राष्ट्रपति हामिद करज़ाई से समझौता करना चाहते थे। उनकी कोई माँग नहीं थी। वे केवल आम-माफी चाहते थे। तब अमेरिका मानता था कि समर्पणकारी से कैसा समझौता? इनका सफाया करना है। उसके बीस साल बाद अमेरिका ने ऐसा समझौता किया, जिसे अपमानजनक और अफगान जनता से विश्वासघात माना जा सकता है।

तालिबान की ताकत

टाइम्स की रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र नहीं है कि तालिबान को इतनी ताकत कहाँ से मिली, जो उसने बीस साल की जमी-जमाई व्यवस्था को उखाड़ फेंका। बीस साल पहले तालिबान के आर्थिक और सैनिक-स्रोतों को बंद कर दिया गया था। फिर भी वे इतने ताकतवर बन गए कि अपने से चार गुना बड़ी और आधुनिक हथियारों से लैस सेना को हराने में कामयाब हो गए अमेरिकी सांसद स्टीव कैबॉट ने पिछले रविवार को कहा कि पाकिस्तानी आईएसआई ने तालिबान की जबर्दस्त मदद की है। यह तो स्पष्ट है कि तालिबान से समझौता पाकिस्तानी मध्यस्थता से हुआ है। पाकिस्तानी सरकार और मीडिया ही तालिबानी विजय के प्रति पूर्ण आश्वस्त नजर आते थे।  

बाइडेन के सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने एनबीसी टीवी से कहा, काबुल का पतन अवश्यंभावी नहीं था। अफगान सरकार ने उस क्षमता का इस्तेमाल नहीं किया, जो अमेरिका ने तैयार की थी। हम दस-बीस साल और रुके रहते तब भी अफगान सेना अपने बूते देश को बचाने में कामयाब नहीं होती। पर सेंटर फॉर अ न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी के सीईओ रिचर्ड फोंटेन का कहना है, अंतरराष्ट्रीय सेना की मामूली सी उपस्थिति से, जिसमें अमेरिका की भागीदारी बहुत छोटी थी, तालिबान को हराना सम्भव नहीं था, पर अफगान सरकार को गिरने से बचाया जा सकता था।

जल्दबाजी क्यों?

भागने की ऐसी जल्दी क्या थी? पिछले सात दशक से कोरिया में अमेरिकी सेना जमी है या नहीं, जबकि दक्षिण कोरिया अपने आप में इतना समर्थ है कि उत्तर कोरिया को संभाल सके। सवाल तब खड़े हुए थे, जब 1 जुलाई को अमेरिकी सेना ने बगराम एयर बेस को स्थानीय प्रशासन को जानकारी दिए बगैर अचानक खाली कर दिया। आसपास के लोग सामान लूटने के लिए पहुंचे, तब अफगान सेना को पता लगा।

Sunday, August 29, 2021

तालिबान के प्रति भारत के रुख में नरमी


अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा करने के दो सप्ताह बाद ही तालिबान को लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का रुख बदलता दिखाई पड़ रहा है। सुरक्षा परिषद ने अफगानिस्तान मसले पर अपने ताजा बयान में आतंकी गतिविधियों से तालिबान का नाम हटा दिया है। काबुल पर कब्जे के एक दिन बाद यानी 16 अगस्त को सुप की तरफ से अफगानिस्तान को लेकर एक बयान जारी किया गया था, जिसमें तालिबान से अपील की गई थी कि वह अपने क्षेत्र में आतंकवाद का समर्थन न करे, मगर अब इसी बयान से तालिबान का नाम हटा दिया गया है। बावजूद इसके तालिबान सरकार को अमेरिका या दूसरे देशों की मान्यता देने की सम्भावना फौरन नजर नहीं आ रही है। ह्वाइट हाउस की प्रवक्ता जेन साकी का कहना है कि हमें अभी मान्यता देने की जल्दी नहीं है।

सुरक्षा परिषद में इस महीने का अध्यक्ष भारत है, जो पहली बार पूरे अध्यक्षता कर रहा है और इस बयान पर भारत के भी हस्ताक्षर हैं। भारत ने 26 अगस्त को काबुल एयरपोर्ट पर हुए आतंकी हमले की निंदा की है। इस आतंकी हमले में करीब 170 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी, जिनमें अमेरिका के 13 जवान भी शामिल थे। इस आतंकी हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट खुरासान ने ली थी।

काबुल हमले के एक दिन बाद 27 अगस्त को भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने बतौर यूएनएससी अध्यक्ष परिषद की ओर से एक बयान जारी किया, जिसमें 16 अगस्त को लिखे गए एक पैराग्राफ को फिर से दोहराया गया। पर इसबार पैराग्राफ में लिखा था-‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला करने के महत्व को फिर से व्यक्त किया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी भी देश को धमकी देने या हमला करने के लिए नहीं किया जाए। किसी भी अफगान समूह या व्यक्ति को किसी भी देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन नहीं करना चाहिए।'

यह पैराग्राफ इसलिए चौंकाने वाला है, क्योंकि इसमें तालिबान का नाम नहीं है। अलबत्ता काबुल पर तालिबान राज होने के बाद 16 अगस्त को यूएनएससी ने जो बयान जारी किया था, उसके पैराग्राफ में तालिबान का नाम था। 16 अगस्त का बयान कहता है, 'सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला करने के महत्व का जिक्र किया, ताकि यह सुनिश्चित किया जाए कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी देश को धमकी देने या हमला करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए और तालिबान और किसी अन्य अफगान समूह या व्यक्ति को किसी अन्य देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन नहीं करना चाहिए। यानी 27 को जो बदला हुआ पैराग्राफ था, उसमें से तालिबान शब्द को हटा लिया गया। इसका एक अर्थ यह है कि तालिबान को अब स्टेट एक्टर या वैधानिक राज्य के रूप में देखा जा रहा है।

संरा में भारत के पूर्व स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने ट्वीट किया कि राजनय में एक पखवाड़ा लम्बा समय होता है। टी शब्द हट गया। अधिकारियों का कहना है कि यह बदलाव जमीनी स्थितियों को देखते हुए हुआ है। तालिबान ने अफगानिस्तान में फँसे लोगों को निकालने में सहायता की है। हालांकि भारत ने तालिबान के साथ वैसा ही सम्पर्क नहीं बनाया है, जैसा सुरक्षा परिषद के दूसरे सदस्यों का है, पर इस वक्तव्य पर दस्तखत करने से पता लगता है कि भारतीय दृष्टिकोण में बदलाव हुआ है।  

अहमद रशीद की किताब ‘तालिबान’ को फिर से पढ़ने की जरूरत

मेरा विचार एक-दो किताबें लिखने का है। पता नहीं मैं लिख पाऊँगा या नहीं। पर उन किताबों को लिखने की कोशिश में इन दिनों मैं कुछ न कुछ पढ़ता और जानकारियों को पुष्ट या उनके सहारे दूसरी जानकारियाँ हासिल करने का प्रयास करता रहता हूँ। जानकारियों का बड़ा भंडार तैयार हो गया है। अब मैं अपने इस ब्लॉग में किताब नाम से एक नया क्रम शुरू कर रहा हूँ। इसमें केवल किताब का ही नहीं, महत्वपूर्ण लेखों का जिक्र भी होगा।

संयोग से अखबार हिन्दू के रविवारीय परिशिष्ट में मुझे रिप्राइज़ बुक्स (पुस्तक पुनर्पाठ)  नाम का कॉलम देखने को मिला। महीने में एकबार स्तम्भकार किसी पहले पढ़ी हुई किताब को फिर से याद करते हैं। आज 28 अगस्त के अंक में सुदीप्तो दत्ता ने अहमद रशीद की किताब तालिबान को याद किया है। पाकिस्तानी पत्रकार अहमद रशीद की यह किताब तालिबान पर बहुत विश्वसनीय मानी जाती है। इसमें उन्होंने तालिबान के उदय और पश्तून-क्षेत्र में उसकी जड़ों की बहुत अच्छी पड़ताल की है। सन 2000 में अपने प्रकाशन के बाद से यह लगातार बेस्ट सैलर्स में शामिल रही है। कम से कम 26 भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। यह हिन्दी में भी उपलब्ध है। इसके बाद अहमद रशीद ने एक और किताब लिखी थी, डिसेंट इनटू कैयॉस: द युनाइटेड स्टेट्स एंड दे फेल्यर ऑफ नेशन बिल्डिंग इन पाकिस्तान, अफगानिस्तान एंड सेंट्रल एशिया। बहरहाल अब पढ़ें सुदीप्तो दत्ता के कॉलम के अंश:-

तालिबान पहली बार सत्ता में 1996 में आए और उसके चार साल बाद पाकिस्तानी पत्रकार अहमद रशीद ने अपनी किताब तालिबान : द पावर ऑफ मिलिटेंट इस्लाम इन अफगानिस्तान एंड बियॉण्ड के माध्यम से दुनिया का परिचय तालिबान से कराया। यह किताब इस देश और उसके निवासियों की सच्ची जानकारी देती है और विदेशी ताकतों के नए ग्रेट गेम का विवरण देती है।