वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह के एक मामले को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि पत्रकारों को राजद्रोह के दंडात्मक प्रावधानों से तबतक सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, जबतक कि उनकी खबर से हिंसा भड़कना या सार्वजनिक शांति भंग होना साबित न हुआ हो। अदालत ने यह भी कहा कि किसी भी नागरिक को सरकार की आलोचना और टिप्पणी करने का हक है, बशर्ते वह लोगों को सरकार के खिलाफ हिंसा करने के लिए प्रेरित न करे। अलबत्ता कोर्ट ने इस मांग को ठुकरा दिया कि अनुभवी पत्रकारों पर राजद्रोह केस दर्ज करने से पहले हाईकोर्ट जज की कमेटी से मंजूरी ली जाए।
विनोद दुआ ने एक
यूट्यूब चैनल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार के खिलाफ टिप्पणी की
थी, जिसके खिलाफ शिमला के
कुमारसैन थाने में एक एफआईआर दर्ज कराई गई थी। अदालत ने कहा कि अब वह वक्त नहीं
है, जब सरकार की आलोचना को देशद्रोह माना जाए। ईमानदार और विवेकशील आलोचना समाज को
कमजोर नहीं मजबूत बनाती है।
हल्के-फुल्के
आरोप
पिछले हफ्ते ही अदालत
ने एक और मामले में आंध्र प्रदेश पुलिस को दो टीवी चैनलों के ख़िलाफ़ राजद्रोह के
आरोप में दंडात्मक कार्रवाई से रोकते हुए कहा कि राजद्रोह से जुड़ी आईपीसी की धारा
124-ए की व्याख्या करने की जरूरत है। इस कानून के इस्तेमाल से प्रेस की स्वतंत्रता
पर पड़ने वाले असर की व्याख्या भी होनी चाहिए।
आंध्र पुलिस ने दो तेलुगू चैनलों के ख़िलाफ़ 14 मई को राजद्रोह का मुक़दमा दायर किया था। आरोप है कि उनके कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी की आलोचना की गई थी। मुकदमा अभी आगे चलेगा, इसलिए सम्भव है कि अदालत अपने अंतिम आदेश में व्याख्या करे। यह कानून औपनिवेशिक शासन की देन है और ज्यादातर देशों में ऐसा कानून नहीं है।